Hindi MJC 4 Questions Papper 2025 R CBCS UG 3rd Sem Exam 2023-27 | BA 3rd Sem Hindi MJC 4 Viral Questions Papper
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BA 3rd Sem Hindi MJC 4 Viral Questions Papper
Confirm Subjective Questions Papper By Madhav sir
प्रश्न-1. छायावाद की परिभाषा या तात्पर्य को समझाईए। अथवा, छायावाद का स्वरूप आर्विभाव की परिस्थितियों को बताएँ।
उत्तर- आधुनिक हिंदी कविता के तृतीय उत्थान की काव्यधारा (काव्यांदोलन) की प्रधान वृत्ति को छायावाद की संज्ञा दी जाती है। हिंदी कविता के क्षेत्र में छायावाद का उल्लेख 1920 के आस-पास मिलने लगता है। शुक्लजी इसे रवीन्द्र नाथ ठाकुर की कविताओं के प्रभाव से आया हुआ मानकर इसका संबंध इंसाई संतों के फैटेसमाटा (छायाभास) शब्द से जोड़ते थे। उन्होंने छायावाद को चित्र भाषा-शैली भी कहा। नंददुलारे वाजपेयी ने इसका संबंध युग-बोध से जोड़ते हुए भी इसे व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान’ कहा। डॉ० नगेन्द्र ने छायावाद को ‘स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म का विद्रोह’ माना। डॉ० नामवर सिंह के अनुसार, छायावाद कई काव्य-प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और वह ‘उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति पाना चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।’ छायावाद साम्राज्यवाद विरोधी मानवतावादी काव्यधारा है। वह व्यक्ति के सुख-दुख का उदात्तीकरण कर देता है।
प्रश्न-2. छायावादी काव्य में प्रकृति-चित्रण का वर्णन करें। अथवा, छायावादी कविता में प्रकृति का मानवीकरण को स्पष्ट करें।-
उत्तर- छायावादी कवियों ने प्रकृति के सूक्ष्म और स्थूल तथा कोमल एवं उग्र सभी रूपों को इतना व्यापक आयाम प्रदान किया है कि अनेक आलोचकों ने प्रकृति प्रेम को हीं छायावाद -का प्रमुख विषय स्वीकार कर लिया। इस युग के कवियों के लिए प्रकृति निर्जीव और उपेक्षित नहीं रह सकी। छायावादी काव्य में “संध्या-सुन्दरी परी सी मेघमय आसमान से उतर रही है” तो “उषा सुनहले तीर बरसती उदित होती है।” प्रसाद को उषा अम्बर पनघट पर जल भरने वाली नागरी के समान दिखाई देती है तथा निराला को संध्या सुन्दरी आसमान से उतरती प्रतीत होती है। छायावाद कवियों ने प्रकृति पर मानवीय भावों को आरोपित करते हुये उसे मानव की आंदि सहचरी के रूप में स्वीकार किया। प्रकृति का मानवीकरण छायावादं की प्रमुख विशेषता बन गई है। छायावादी कवियों ने प्रकृति के प्रत्येक उपकरण में परम सत्ता का दर्शन किया है। इस प्रकार प्रकृति को विराट चेतना से सम्पन्न कर इन कवियों ने प्रकृति के प्रति मानवीय भावनाओं को अधिक रागात्मक बना दिया है। प्रकृति हमारे सुख-दुख में बराबर हाथ बंटाती हुई दिखाई देती है। महादेवी वर्मा प्रकृति की विराटता में अखिल संसार की माँ का करूणामय रूप देखते हुये कहती हैं-
“दुलरा दे ना बहला दे ना
यह तेरा शिशु जग है उदास।”
प्रश्न-3. छायावादी-काव्य में नारी भावना (नारी-चित्रण) की विवेचना करें।
उत्तर- नारी-विषयक नवीन दृष्टिकोण छायावाद की प्रमुख प्रवृत्ति है। छायावादी युग में नवीन सांस्कृतिकं चेतना की जागृति के फलस्वरूप नारी-संबंधी दृष्टिकोण में महान परिवर्तन उसे मानवीय धरातल परः प्रतिष्ठित कर उसकी वेदना को सहलाया और उसके आँसू पोंछकर उसे श्रद्धा की मूर्ति घोषित किया “नारी! तुम केवल श्रद्धा हो।” यहाँ नारी “देवि, माँ, सहचरि, प्राण” बन गई। छायावादी कवियों के लिए नारी केवल प्रेमिका के ही रूप में न रह सकी, अपितु उसने अपने मातृत्व के गौरव को प्राप्त किया।
प्रश्न-4. छायावादी कवि के रूप में प्रसाद का महत्व बताएं। अथवा, प्रसाद-काव्य का मूल्यांकन कीजिए। अथवा, प्रसाद मूलतः प्रेम-सौंदर्य के कवि हैं। स्पष्ट करें।
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उत्तर- छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद मूलतः प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं। उनक कविताओं में प्रकृति का सूक्षम सौंदर्य मुखरित हो उठा है, जिनमें कहीं-कहीं जीवन दर्शन की गहरा भी झलकती है। वे तत्सम प्रधान खड़ी बोली के प्रयोग में सिद्धहस्त माने जाते हैं। प्रसाद का साहित जीवन की कोमलता, माधुर्य, शक्ति और ओज का साहित्य माना जाता है। छायावादी कविता अं अतिशय काल्पनिकता, सौंदर्य का सूक्ष्म चित्रण, प्रकृति-प्रेम, देश-प्रेम और शैली की लाक्षणिकत उनकी प्रमुख विशेषताएँ हैं। छायावादी कविता का वैभव अपनी पूर्णता के साथ प्रसाद कां कविताओं में प्राप्त होता है। उनका सौंदर्य बोध बहुत गहन एवं सूक्ष्म है। पुनर्जागरणकाली रचनाकार होने के कारण प्रसाद में अतीत के प्रति एक प्रकार का मोह और आसक्ति मिलती है। प्रसाद यौवन, प्रेम और लावण्य के कवि हैं। उनके रूप-चित्रण में प्राचीन नगर की-सी सुसंस्कृत अभिरूचि मिलती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रसाद की ‘मधुमयी प्रतिभा’ और ‘जागरूव भावुकता’ की ओर विशेष रूप से संकेत किया है।
प्रश्न-5. प्रसाद का गीत-सौंदर्य पर प्रकाश डालें।
उत्तर- जयशंकर प्रसाद सफल गीतकार हैं। प्रसाद के गीतों का अपना सौंदर्य है अं गीतिकाव्य के रूप में सामान्यतः इनकी ‘सा ही हुई है। प्रसाद के गीतों में यौवन, सौन्दर्य, प्रेम, स्मृति, वेदना आदि की अनुभूतियाँ मुख हुई हैं, यों कुछेक गीतों में आध्यात्मिक चेतना भी है, राष्ट्रीय चेतना भी। ‘तुम कनक किरण के अन्तराल’ में लज्जावती का रूप-सौंदर्य है, गर्व है, प्रेम की रस-वर्षा है, मौन मधुर मुस्कान भी। प्रेमिका का यह सांकेतिक चित्र आकर्षक रूप में अंकित है। ‘संसृति के वे सुन्दरतम क्षण’ में रोमांटिक प्रेम की अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया गया है। ‘आह! वेदना मिली विदाई’ गीत में प्रेम की पीड़ा का स्वर है। ये सभी गीत प्रेम के विभिन्न पक्षों और अनुभूतियों को ही अभिव्यक्त करते हैं। यदि शब्दों को देखें, तो प्रेमाभिव्यक्ति से सम्बद्ध परम्परागत शब्दावली ही लगभग सभी गीतों में आई है-प्रेम, स्मृति, सौंदर्य, माधव, चन्द्र, मधुप, कली, अलक, लहरें आदि। सौंदर्य और प्रेम के कवि प्रसाद ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए बार-बार स्थान बनाया है। ये सभी गीत छायावादी काव्य के बहुत अच्छे उदाहरण हैं। ‘अरूण यह मधुमय देश हमारा’ और ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से’ गीतों का राष्ट्रीय चेतना के कारण अपना वैशिष्ट्य एवं महत्व है, जो सर्वस्वीकृत है।
प्रश्न-6. कवि निराला का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व (स्वच्छंदतावादी कवि निराला तथा प्रगतिवादी कवि निराला की विवेचना करें।
अथवा, निराला की काव्य-भाषा को स्पष्ट करें।
उत्तर- निराला छायावादी काव्य-युग के प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं और उनमें छायावाद की समस्त काव्य-प्रवृतियों का विकास देखा-दिखाया जा सकता है|
प्रश्न-7. निराला के गीत की व्याख्या करें। अधवा, निराला की गीत-योजना को स्पष्ट करें।
उत्तर- वर्तमान गीत कविता के आकाश पर निराला की स्थिति सूर्य की भाँति अद्वितीय,
भास्वर और प्रकाशपूर्ण है। प्रसाद, पंत और महादेवी का समग्र गीतात्मक अवादान निराला के गीतात्मक-प्रदेय की तुलना में हल्का ही दिखाई देता है। गुणात्मक वैशिष्ट्य के निकष पर आज भी निराला से बढ़कर कोई दूसरा गीतकार नहीं हुआ। निराला ने अंतर्वस्तु के नव्यतर समाहरण के साथ-साथ गीत में नई भाषा, नए छंद, नूतन राग और अभिनव लय के समावेश की न केवल आवाज बुलंद की अपितु अपने असंख्यात गीतों के द्वारा अपने समसामयिक और परवर्ती गीतकारों के लिए नव्यतर संवेदना और प्रत्यग्र गीत- शिल्पाभिव्यक्ति के अभूतपूर्व गवाक्षों का भी उद्घाटन किया था। निराला अपने गीतों में जितने परंपरा प्रथित हैं, उतने ही उद्दाम रूढ़िभंजक। अद्वैत वेदांत रहस्यानुभूति, सौंदर्य, श्रृंगार, वैयक्तिक और वैश्विक चेतना के आह्लाद और अवसाद, प्रकृति-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम की जैसी अनाविल और उदात्त अभिव्यक्ति उनके गीतों में दृष्टिगत होती है वैसी अन्यत्र दुष्प्राप्य है। इस दृष्टि से वे हिंदी के ‘अप्रतिम और अतुलनीय गीतकवि हैं। ‘वीणा वादिनी वर दे’, ‘भारति जय विजय करे, ‘कौन तम के पार रे कह’, ‘प्रिय कामिनी जागी’, सखि वसंत आया’ जैसे बीसियों गीत इस स्थापना के समर्थन में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
प्रश्न-8. “निराला एक क्रांतिकारी कवि” इस कथन की व्याख्या करें। अथवा, निराला की विद्रोह भावना या विद्रोह चेतना की विवेचना करें।
उत्तर- छायावाद के प्रजापतियों में निराला का नाम अत्यन्त गौरव के साथ लिया जाता है। निराला का काव्य उनके नाम को सार्थक करता है। वे आरम्भ से अन्त तक विद्रोह एवं स्वच्छन्दता के पुजारी रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में गतानुगतिकता उन्हें साध्य नहीं है। अनुभूतिगत तीव्रता और व्यक्तिगत ओजस्विता के कारण उनके काव्य में आवेगों की ऐसी तीव्रता है जिसपर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता है। अपनी इसी स्वच्छन्द मनोवृत्ति के कारण निराला ने किसी समय छायावाद का नेतृत्व किया और बाद में प्रगतिवाद के अग्रदूतों में सर्वमान्य रहे। इस कारण उनके काव्य विकास को किसी वाद की परिधि में रखकर नहीं समझा जा सकता और न किसी दार्शनिक आधार पर उनकी व्याख्या की जा सकती है। सच तो यह है कि निराला का व्यक्तित्व विराट है और उनके काव्य को किसी एक कोण से देखकर सही निर्णय नहीं दिया जा सकता है |
प्रश्न-9. प्रसाद का प्रकृति प्रेम की व्याख्या करें। अथवा, प्रसाद के काव्य में प्रकृति को स्पष्ट करें। उत्तर-जयशंकर प्रसाद मूलतः कवि हैं। उनकी कविता प्रकृति की प्रेरणा से ही उत्पन
भ
है-
प्रकृति उनके काव्य में सजीव एवं मानवीय प्रेरणा से ही उत्पन्न हुई। प्रकृति उनके काव्य में सजाउ एवं मानवीय दोनों रूपों में चित्रित हुई है जिसका प्रमाण है उनका प्रसिद्ध गीत जागरी। इस गो में उषा नागरी का भावपूर्ण चित्र अत्यंत सजीव एवं सुन्दर बन पड़ा है। उषा को एक स्त्री मानक पनघट पर उसे पानी भरते हुए दिखाया जाना प्रकृति के सजीव एवं मानवीय रूप को ही दशांत है। प्रसाद जी को प्रकृति में अनन्त सत्ता के दर्शन हुए हैं। अलौकिक प्रियतम छाया के पर्दे सम्मोहन का वेणु बजाता हुआ दिखायी पड़ता है- ‘छायानट छवि के पर्दे में, सम्मोहन वेणु वजाद्या संध्या कुहकिनि अंचल में कौतुक अपना कर जाता।” इसी प्रकार कवि को सूने आकाश में कोई मुस्कुराता प्रतीत होता. है उस असीम नीले अंचल में देखा किसी की मृदु मुस्कान।”
प्रश्न-10. निराला का पारिवारिक जीवन के बारे में बताएं।
उत्तर-निराला का पूरा नाम ‘सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ है। उनका जन्म 21 फरवरी, 1899 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक देशी राज्य में हुआ था। उनके पिता पं रामसहाय त्रिपाठी उन्नाव जिले के गढ़ कोला ग्राम के निवासी तथा जाति के कान्य कुब्ज ब्राह्मण थे। उन्होंने बंगाल में मेदिनीपुर के महिषादल राज्य में नौकरी कर ली थी। वहीं निराला जी का जन्म माघ मास की शुक्ल पक्ष एकादशी को संवत 1953 वि0 में हुआ था। उनके जन्म के ढाई वर्ष वाद ही उनकी माता का निधन हो गया। पिता के कठोर अनुशासन में निराला जी का बचपन व्यतीत हुआ। उनकी औपचारिक शिक्षा मांग हाईस्कूल तक हुईं। उनका विवाह 13 वर्ष की अवस्था में मनोहरा देवी से हुआ किन्तु 22 वर्ष की अवस्था में निराला जी विधुर हो गये उनकी दो सन्तानें हुई। उनकी पत्नी अल्पायु में ही स्वर्ग सिधार गई। पिता की मृत्यु के बाद वे उन्हें महिषादल राज्य में ही नौकरी करनी पड़ी। कालान्तर में नौकरी छोड़कर घुमक्कड़ बन गये।
प्रश्न-11. निराला का प्रकृति चित्रण की विवेचना करें।
उत्तर-निराला जी के काव्य में प्रकृति का विस्तृत रूप दृष्टिगत होता है। निराला जी ने अपने काव्य में प्रकृति के मनोरम चित्र अंकित किये हैं। प्रकृति चित्रण से सम्बद्ध उनकी अनेक सुन्दर रचनाएँ हैं, यथा-प्रभाती, वासंती, संध्या सुन्दरी, संध्या के फूलों से, शेफालिका आदि। संध्या सुन्दरी कविता में कवि ने संध्या का मानवीकरण करते हुए सन्ध्या रूपी सुन्दरी को आकाश से उतर कर धरती पर आते हुए दिखाया है। निराला जी प्रकृति चित्रों द्वारा श्रृंगार और प्रेम भावना का चित्रण करते हैं। मानवीकरण की दृष्टि से ‘जुही की कली, “सन्ध्या सुन्दरी’ आदि सुन्दर रचनाएँ हैं। निराला जी के काव्य में कई स्थलों पर प्रकृति प्रेयसी के रूप में भी उपस्थित हुई। और कितने ही स्थलों पर प्रकृति का यथार्थ चित्रण हुआ है, यथा नये पत्ते, बेला-कुकुरमुत्ता आदि।
प्रश्न-12. प्रसाद की सौन्दर्य दृष्टि (चेतना) पर प्रकाश डालें।
उत्तर- प्रसाद की सौन्दर्य दृष्टि अत्यन्त तलस्पर्शी है। उनका सौन्दर्य वर्णन स्थूल कम है, सूक्ष्म और मानसिक अधिक है। कामायनी में सौन्दर्य को परिभाषित करते हुए प्रसाद जी ने लिखा है :-
उज्जवल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे अब कहते हैं
प्रश्न-13. “पंत : हिन्दी के कोमल कांत कवि” की व्याख्या करें।
उत्तर- छायावाद के प्रजापतियों में पंत अपनी सुन्दरता और शिल्पगत विशिष्टता की दृष्टि से अत्यधिक लोकप्रिय हैं। उन्होंने अगर शब्दों के क्षेत्र में खड़ी बोली की अनगढ़ता को खरादकर मस्सूंग वना दिया है तो भावों के क्षेत्र में उन्होंने केवल कोमलता और सुन्दरता को ही स्थान दिया है। इसलिए प्रायः कहा जाता है कि पंत सुन्दरता के कवि हैं, उनकी कला नारी कला है। “जब कभी मैंने प्रकृति से तादात्मय अनुभवं किया है तब मैंने अपने को भी नारी के रूप में तादात्मय किया है।” इस तरह कवि ने अपनी सत्ता को भी नारी के रूप में प्रस्तुत कर अपनी पूरी कला को नारीमय बना दिया है।
‘ग्रन्थि’ में पंतजी ने प्रेम सम्बन्धी अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि ग्रंथि की कथा उनके अपने ही जीवन की प्रणय ग्रन्थि है, जो कभी नहीं खुली है, यहाँ पर कवि ने प्रणय के कोमल-विह्वल रूप को प्रस्तुत किया है।
प्रश्न-14.
पंत का काव्य और प्रकृति चित्रण को समझाईए।
उत्तर- पंत जी को प्रकृति से बहुत लगाव था। पंत जी के अनुसार प्रकृति के दो रूप हैं:-सुन्दर, कोमल और दूसरा कुरूप, कठोर। पंतजी ने खुद स्वीकार किया है कि उन्हें प्रकृति के सुन्दर रूप ने ही अधिक लुभाया है। उनकी प्रकृति में मधुबन की लालसा सालस बतास डोलती है और फूलों का दास तथा तरल-तुरिन वन का उल्लास बेमोल बिकता है। वे नीले नभ के शतदल पर बैठी हुई शारद द्वासिनी चाँदनी को देखते हैं और बादल उनके लिए मदनराज का वीर बहादूर बनकर प्रस्तुत होता है। ‘एकतारा’, ‘ग्राम श्री’, ‘झंझा में नील’ और चाँदनी प्रकृति सौन्दर्य की दृष्टि से उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। सब मिलाकर प्रकृति का रमणीय रूप ही उनके काव्य में व्यक्त हुआ है। इस तरह दीख पड़ता है कि पंत जी को प्रकृति से जितना लगाव था शायद दूसरे में नहीं।
प्रश्न-15. छायावाद का स्वरूप पर प्रकाश डालें।
अथवा, शिल्प-विधान का अभिप्राय स्पष्ट करें।
उत्तर- पंडित मुकुटधर पांडेय को छायावाद का जनक माना जाता है। उनकी कविता “उररि के प्रति” से छायावाद का प्रारम्भ माना जाता है। भाव की दृष्टि से प्रणय की तरलता, वेदना की बहुविध अभिव्यक्ति, प्रकृति का अमित सौन्दर्य, रहस्यमयता तथा शैली तथा शिल्प की दृष्टि से लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, बिम्बविधान, चित्रात्मकता और अभिव्यंजना की भंगिमाओं की प्रधानता से मंडित जो काव्य हिन्दी साहित्य में सन् 1920 से 1935 के बीच लिखा गया |
प्रश्न-16. छायावाद की विशेषताः बताईए।
उत्तर- छायावाद की प्रमुख विशेषताएँ हैं- 1. प्रणय, 2. सौंदर्य वर्णन (प्रकृति तथा नारी) 3. निराला की वेदना, 4. रहस्यात्मकता, 5. व्यक्तिनिष्ठता, 6. शिल्प (लाक्षणिकता प्रतीक विधात और कल्पना)
संघर्ष भिरू होने के कारण छायावादं जीवन से पलायन करने को बाध्य हुआ और एकांत देश में जाकर अपनी पीड़ा सहलाने लगा। इस पलायन प्रवृत्ति के कारण ही छायावाद में एत्र काल्पनिक संसार के निर्माण की प्रवृत्ति मिलती है। बाद में प्रसाद की समरसता, पंत की यधार्थ दृष्टि और निराला की तेजस्विता ने पलायन की कुंठा को सर्वथा समाप्त कर दिया और छायावाद जीवन का प्रतिनिधि काव्य बन गया।
स्वच्छन्दता के वावजूद छायावाद में व्यक्ति चेतना की प्रधानता है। सब अपनी ही बात कहते हैं, समस्त मानस का सुख-दुःख उनकी दृष्टि से ओझल है।
संघर्ष से भागा हुआ मनुष्य, या तो नारी के आंचल में आश्रय लेता है या प्रकृति की गोद में। यही कारण है कि छायावादी काव्य में प्रकृतिं और नारी दोनों के प्रति गहरी आसक्ति है। वस्तुतः छायावाद की प्रकृति नारीमयी और नारी प्रकृतिमयी है।
छायावाद की प्रकृति अन्तर्मुखी है अतः इसमें प्रत्यक्ष जगत के निरीक्षण की कमी है। इसमें रहस्यवाद की प्रवृत्ति आरम्भ से ही घुली-मिली रही है। प्रसाद, पंत, निराला और शास्त्रीजी में गौरव रूप से तथा महादेवी में स्वतंत्र रूप से रहस्यवाद की प्रवृत्ति मिलती है।
सारतः छायावाद का आरम्भिक छोर स्वच्छंदतावाद से और अंतिम छोर रहस्यवाद से भरा हुआ है।
प्रश्न-17. प्रसाद के काव्य में प्रेम भावना की विवेचना कीजिए।
उत्तर- आधुनिक हिन्दी कविता जिन कवियों की रचनाओं में दृष्टिगत होनेवाली प्रेम और सौन्दर्य विषयक अनुभूतियों की स्वच्छंदतापूर्ण अभिव्यक्ति को लेकर छायावाद की संज्ञा से अभिहित हुई महाकवि जयशंकर प्रसाद उनं कवियों में अग्रणी हैं जिनकी कविताओं में सर्वप्रथम एक साथ छायावाद की सारी काव्य-प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होने लगीं जिनके संदर्भ में डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि, “कई दृष्टियों से जयशंकर प्रसाद छायावाद के पहले कवि हैं। 1918 में प्रकाशित उनका काव्य-संग्रह ‘झरना’ इस नये ढंग की कविताओं का पहला संकलन है। जैसे मनुष्य के बच्चे को अन्य प्राणियों की तुलना में वयस्क होने के लिए सबसे अधिक समय लगता है वैसे ही अपने समकालीनों के बीच कवि बनने में प्रसाद को लगा। पर एक बार कवि बनकर फिर वं वैसे ही शीर्षस्थ रहे।”
प्रश्न-18. जागरी कविता का भाव स्पष्ट करें।
उत्तर – “बीती विभावरी जागरी” गीत एक उद्बोधनात्मक गीत है। यहाँ कवि ने प्रत्युष काल का मानवीकरण किया है, उषा कालीन उपादानों के माध्यम से कवि ने लोगों को जागरण का सन्देश दिया है। रात्रि व्यतीत हो गई है, जागो, आकाश रूपी पनघट में तारा रूपी घड़ा डूब रहा. है। प्रातः काल हो गया है, उषा रूपी नायिका हाथों में घड़ा लेकर पनहारिन की भाँति आ गई है। आकाश रूपी पनघट पर तारा रूपी घड़ा उषा डूबा रही है। सभी तारे तिरोहित हो रहे हैं। प्रातः काल होते ही उषा नायिका के रूप में आकर सारे संसार को आलोकित कर देती है। इस आलोक से आकाश में उगे सारे तारे डूब जाते हैं। कवि प्रकृति का मानवीकरण करते हुए कह रहा है कि उषा के आते ही जैसे ग्राम कन्याएँ अपने-अपने घड़ों के साथ जल लाने के लिए पनघट पर आ जाती हैं, जल में अपने घड़ों को डूबोती हैं उसी प्रकार उषा रानी आकाश रूपी पनघट पर तारे रूपी घड़ों को डुबाने लगी है। चारों ओर प्रकाश फैल रहा है, तारे डूब रहे हैं, हे सखी. जाग जाओ।
प्रश्न-19. हिन्दी कविता को पंत जी का अवदान की विवेचना करें।
उत्तर- पंत जी छायावादी काव्य-धारा के अकेले वह कवि हैं जिन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि माना गया है। उनकी कविताओं में प्रकृति-सौन्दर्य को सर्वाधिक महत्व प्राप्त हुआ हैं प्रकृति उनकी कविताओं में न केवल प्रेमाभिव्यक्ति का माध्यम बनकर उपस्थित हुई है अपितु कवि उसमें अव्यक्त चेतना सत्ता का आभास भी पाता हैं कवि ने प्रकृति-चित्रण के माध्यम से कई स्थलों पर मानवीय क्रियाकलापों का भी वर्णन किया है। किन्तु कवि स्वयं को प्रकृति-सौन्दर्य तक ही सीमित नहीं रखता है अपितु ‘ग्राम्या’ तक पहुँचते-पहुँचते कवि यथार्थ की भूमि पर होता है। निःसंदेह उनकी कविताओं में प्रकृति के प्रति उनका दृष्टिकोण अनवरत बदलता गया है।
पंत जी की काव्यकृतियों में उच्छ्वास, पल्लव, वीणा, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, लोकायतन, तारापथ आदि प्रमुख हैं।
पंत जी ने अपने काव्य में प्रकृति के कोमल चित्र अंकित करने के साथ ही उसके कठोर एवं भीषण रूप को भी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया है। प्रकृति के प्रति उनके विकसित दृष्टिकोण का परिचय उनके काव्यों से प्राप्त किया जा सकता है।
प्रश्न-20. भारतेन्दु के अनुसार भारत का अतीत कैसा था?
उत्तर- भारतेन्द के अनुसार हमारा अतीत गौरवशाली था। ईश्वर की कृपा से हम सबसे पहले सभ्य हुए। सबसे पहले कला-कौशल का विकास किया। सबसे पहले ज्ञान-विज्ञान की अनंत्र उपलब्धियाँ प्राप्त की। अतीत में हमारे यहाँ रामकृष्ण, हरिश्चन्द्र, बुद्ध, भीम, अर्जुन आदि महार पुरुष जिनको याद कर हम गौरवान्वित होते हैं।
प्रश्न-21. भारतेन्दु के अनुसार भारत की वर्तमान स्थिति कैसी थी?
उत्तर- भारतेन्दु के अनुसार वर्त्तमान काल में हमारी स्थिति बहुत बुरी थी। उनके समय देश पराधीन था, अंग्रेजों का शासन था। हमारा समाज अशिक्षित, मूर्ख और कलहप्रिय था। आपसी कलह के कारण हमने यवनों को बुलाया था। उन्होंने हमें पराजित कर हमें लूटा, हमारे ग्रंथ नह कर दिये और हमें पंगु तथा ओलसी बना दिया।
प्रश्न-22. अंग्रेजी राज के प्रति भारतेन्दु के दृष्टिकोण का वर्णन करें।
उत्तर- अंग्रेजी राज के विषय में भारतेन्दु के दृष्टिकोण विरोधी है। वे देशभक्त थे। अतःग गुलामी के विरोधी थे। वे मानते थे कि अंग्रेज देश में सुख के जो सामान रेल-तार-डाक आदिग ले आये हैं वे अपने लाभ के लिए यों उसका लाभ हमें भी मिल रहा है। इसके विपरीत वे हमारे हीं देश के श्रम और कच्चे माल का उपयोग कर जो सामान बनाते हैं वह हमीं को बेचकर उसके मुनाफे से अपने को सम्पन्न बना रहे हैं। हम निरन्तर गरीब होते जा रहे हैं। ऊपर से वे रोज नए टैक्स लगा रहे हैं। रोज महँगाई बढ़ रही है, अकाल पड़ा है। यदि हम स्वाधीन रहते तो हमारा धन यहीं रहता और हम इस तरह निरन्तर दीन-हीन नहीं होते।
प्रश्न-23. भारतेन्दु के अनुसार भारत की दुर्दशा के कारण क्या थे?
उत्तर- भारतेन्दु के अनुसार भारत की दुर्दशा का प्रधान कारण है- गुलामी। यह गुलामीतं चाहे यवनों की हो या अंग्रेज़ी की हमारे लिए अहितकर रही। इन लोगों ने हमें विद्या, बल तथा हु धन तीनों से वंचित रखा ताकि हम दुर्बल बने रहें।
दूसरा कारण उनकी दृष्टि में स्वयं भारतीय लोगों का आचरण है। उनके आचरण में स्वार्थ कर तथा कलहप्रियता की प्रधानता है। इसके अतिरिक्त ये आलसी स्वभाव के हैं। थोड़े में संतुष्ट होकर प्रयत्न नहीं करते, अपनी बुरी दशा से विद्रोह नहीं करते तथा बेहतर जीवन के लिए संघर्ष नहीं बहर करते। इन्हीं कारणों से ये बार-बार पदाक्रान्त हुए, पराजित हुए और गुलाम बने।
प्रश्न-24. जयशंकर प्रसाद का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 ई० की दशमी को वाराणसी के एक सम्भ्रांत कान्यकुब्ज वैश्य परिवार में हुआ था। श्री देवी प्रसाद उनके पिता थे जो सुंघनी साहु नाम से विख्यात शिवरत्न प्रसाद के पुत्र थे। जयशंकर प्रसाद अपने भाइयों में छोटे थे। उनके बड़े भाई का नाम वावृ शम्भूरत्न प्रसाद था। जयशंकर प्रसाद को कक्षा 7वीं तक ही शिक्षा प्राप्त हुई थी। हिन्दी काव्य-साहित्य के क्षेत्र में उन्हें परिवर्तन के अग्रदूत एवं नव संदेश के गायक के रूप में ख्याति प्राप्त है। उनका निधन सन् 1937 ई० में हुआ।
प्रश्न-25. ‘बीती विभावरी जागरी’ कविता प्रकृति चित्रण होते हुए भी इसमें कवि की राष्ट्रीय भावना को अभिव्यक्ति मिली है’ स्पष्ट करें।
उत्तर-‘बीती विभावरी जागरी’ छायावादी कवि प्रसाद जी रचित उनकी प्रकृतिपरक कविता है। किन्तु इस कविता में प्रकृति के मोहक चित्रों की विद्यमानता है |
प्रश्न-26. निराला जी का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करें।
उत्तर-निराला जी का पूरा नाम पं० सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ था। उनका जन्म बंगाल राज्य मेदिनीपुर जिले के महिषादल इस्टेट में सन् 1887 ई० में वंसतपंचमी के दिन हुआ था। उत्तर 1 राज्यान्तर्गत उन्नाव जिले का गढ़कोला गाँव उनका पैतृक गाँव है। मैट्रिक तक की शिक्षा बंगला के माध्यम से ही प्राप्त हुई तत्पश्चात उन्होंने पढ़ाई छोड़कर विभिन्न भाषाओं के इत्य, दर्शनशास्त्र आदि का ज्ञान स्वाध्याय से अर्जित किया। उनके पिता पं० रामसहाय त्रिपाठी षादल इस्टेट में काम करते थे जिनके दिवंगत होने पर निराला जी ने भी वहाँ नौकरी की। का निधन 15 अक्टूबर, सन् 1961 को हुआ।
प्रश्न-27. पंत जी का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करें।
उत्तर-पंत जी का पूरा नाम सुमित्रानंदन पंत है। उनका जन्म उत्तरप्रदेश के अल्मोड़ा लान्तर्गत कौसानी नामक पर्वतीय ग्राम में 21 मई, सन् 1900 ई० को हुआ था। उनकी माता जन्म देने के कुछ ही घंटों बाद दिवंगत हो गयी तत्पश्चात उनका पालन-पोषण पिता पं० दत्तपंत और उनकी दादी द्वारा किया गया। उनके पिता पं० गंगादत्त पंत कौसानी इस्टेट में चाय ान के मुनीम का कार्य करते थे। पंत जी दसवीं तक की शिक्षा प्राप्त कर आगे की पढ़ाई जारी रख संके। उनका निधन सन् 1977 ई० में हुआ था।
प्रश्न-28. ‘प्रथम रश्मि’ कविता में छोटी चिड़िया के लिए जिन विशेषणों के प्रयोग : हैं उनके अभिप्राय को स्पष्ट करें।
उत्तर-‘प्रथम रश्मि’ छायावादी कवि पंत जी रचित ‘वीणा’ काव्य के अन्तर्गत है। इसमें प्रकृति प्रति कवि की जिज्ञासा को अभिव्यक्ति मिली है। कवि को छोटी चिड़िया मनुष्यों की अपेक्षा धिक चैतन्य दिखायी देती है तभी तो प्रभातागमन की पूर्व सूचना पाकर वह अपने मधुर गीत ती है। कवि ने यहाँ छोटी चिड़िया के लिए बालविहंगिनी, रंगिणि, तरुवासिनि, अंन्तर्यामिनि, दर्शिनि सम्बोधनों के प्रयोग किये हैं जिनके अभिप्राय हैं क्रमशः छोटी, रंग-विरंगी, पेड़ों पर स करनेवाली, रहस्य को जाननेवाली, अनेक तरह की दिखायी देनेवाली, और आकाश में विचरण रनेवाली।
प्रश्न-29. ‘प्रथम रश्मि’ कविता के आधार पर प्रातःकालीन प्राकृतिक सुषमा एवं हल-पहल का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर-प्रातःकाल की पूर्व सूचना पाकर पक्षीगण अपने घोंसलों में कूजते हुए बाहर निकलते । जो वस्तुएँ रात्रि में घने अंधकार के कारण दिखायी नहीं देते वे भी सूर्योदय के होते ही स्पष्ट रखायी देनं लगते हैं, आसमान में तारे उँघते हुए लुप्त होते दिखायी देने लगते हैं। सूर्य के प्रकाश 5 फैलते ही पत्तों एवं फूलों पर पड़ी ओस की बूँदें मोतियों जैसी दिखायी देती हैं। विभिन्न फूलों की सुरभि से वातावरण महमह होने लगता है। नव जीवन का स्पन्दन सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।
प्रश्न-30. महादेवी वर्मा की कविताओं में निहित विरह वेदना का मर्म बताइये।
उत्तर- कवयित्री महादेवी वर्मा आधुनिक हिन्दी कविता के क्षेत्र में छायावाद की वह अकेली कवयित्री हैं जो अपने उन रहस्यवादी गीतों के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं जिनमें अनुभूति और सौन्दर्य-चेतना को प्रमुखता प्राप्त है। उनके गीतों में जिस प्रियतम का सौन्दर्य-वर्णन हुआ है वह अज्ञात है या फिर वह ब्रह्म है इसी प्रकार जो विरह-वेदना उनके गीतों में व्यंजित हुई है वह लौकिक होकर भी अलौकिक है। व्यक्तिगत होकर भी सामाजिक तथा ‘स्व’ की होकर भी ‘पर’ की कही जा सकती है।
प्रश्न-33. हरिऔध और उनका ‘प्रियप्रवास’ पर टिप्पणी करें।
उत्तर- हरिऔध की कवि-कीर्ति का आधार उनका ‘प्रियप्रवास’ है जो खड़ी बोली हिंदी सर्वप्रथम महाकाव्य है। विप्रलंभ श्रृंगार रस से पूर्ण इस रचना में कृष्ण के वियोग में व्रजवासियों मनः स्थिति का मार्मिक चित्रण हुआ है। छंद प्रयोग की दृष्टि से भी हरिऔध ने इसमें संस्कृत वृित्तों का प्रयोग कर अपनी मौलिकता का परिचय दिया है। इसके नायक श्रीकृष्ण लोकरक्षक घेक हैं, ईश्वर के अवतारी रूप नाममात्र के। यद्यपिं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘प्रियप्रवास को काव्य नहीं माना है।’ प्रियप्रवास शास्त्रीय अर्थ में भले ही महाकाव्य नहीं, आचार्य विश्वनाथ श्र के अनुसार ‘एकार्थ काव्य’ हो, किंतु इसमें परंपरा एवं आधुनिकता का हृदया-वर्जक योग वश्य दृष्टिगत होता है।
प्रश्न-34. ‘प्रियप्रवास’ (हरिऔध) की भाषा की व्याख्या करें।
: उत्तर- हरिऔध ने खड़ीबोली हिंदी में ‘प्रियप्रवास’ की रचना की। खड़ीबोली के प्रथम हाकवि का गौरव हरिऔध को ही मिला है। साथ ही उन्होंने संस्कृत के वर्णवृत्तों का भी प्रयोग ज्या। ‘प्रियप्रवास’ में उनकी काव्यभाषा का अभिजात्य रूप मिलता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्विवेदी-युग के अन्य कवियों की तुलना में ‘प्रियप्रवास’ के कवि को ‘कोमल कांतपदावली’ की और अधिक उन्मुक्त बताया है। उनके इस मंतव्य का अभिप्राय है कि हरिऔध ने खड़ीबोली की रिखराहट या कठोरता को मृदुल बनाने का प्रयत्न किया है। एक नयी काव्यभाषा को पुरानी गव्यभाषा-व्रजभाषा की स्पर्धा में कुलीनता प्रदान करने की दृष्टि से हरिऔध का यह कार्य अविस्मरणीय है।
प्रश्न-35. ‘प्रियप्रवास’ (हरिऔध) के कृष्ण पर टिप्पणी करें।
उत्तर- हरिऔध विरचित ‘प्रिय प्रवास’ में कृष्ण-काव्य की एकांगिता का परिहार किया गया और कथानायक (कृष्ण) के लोकरक्षक रूप को नवयुग के आदशों के अनुरूप (अनुकूल) रचा ाया है। यहाँ कृष्ण ईश्वर नहीं, मनुष्य हैं। कवि की यह बौद्धिकता ध्यान आकर्षित करती है। कृष्ण लोक कल्याण के लिए तत्पर किसी त्राता या नेता की तरह वर्णित है। एक पौराणिक चरित्र का लोकनायक के रूप में यह रूपान्तरण प्रशंसनीय है। हरिऔध ने स्वयं अपने दृष्टिकोण की इस नव्यता की सूचना दी है कि उनके कृष्ण ब्रह्म नहीं, महापुरुष हैं- “मैंने श्रीकृष्णचंद्र को इस ग्रंथ में एक महापुरुप की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं।” निःसंदेह यहाँ कृष्ण आत्मत्यागी, कर्मण्य लोकोपकारी तथा लोक सेवा के समक्ष मुक्ति को भी हेय दृष्टि से देखनेवाले महापुरुष हैं।
प्रश्न-36. ‘प्रियप्रवास’ (हरिऔध) की राधा पर टिप्पणी करें।
उत्तर- ‘प्रियप्रवास’ (हरिऔध) की राधा भी कृष्ण की तरह ही विद्यापति, सूरदास, नंददास की राधाओं से अलग है। यहाँ राधा की शील में आधुनिक युग की संवेदनशील किन्तु प्रवुद्ध स्त्री के दर्शन होते हैं। वह प्रेम-विरह ही नहीं विचारों में भी पगी है। वह आधुनिक के करीब है। वह आँसू ही नहीं, जीवन-संघर्ष में भी डबी हुई है।
BA 3rd Sem Hindi MJC 4 Original Question paper
प्रश्न-1. पठित कविताओं के आधार पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की काव्यगत विशिष्टताओं [ अवलोकन करें।
उत्तर – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म वाराणसी के एक सम्भ्रान्त वैश्य कूल में सन् 1850 .. में हुआ था। उनके पिता का नाम बाबू गोपालचन्द्र था जो ब्रजभाषा के अच्छे और लोकप्रिय वि थे जिनकी कविताएँ प्रायः ‘गिरिधरदास’ उपनाम से छपा करती थीं। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा र पर ही आगत अध्यापकों से प्राप्त की। इस दौरान उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी आदि ई. भाषाएँ सीखीं। उनका विवाह तेरह वर्ष की अवस्था में लाला गुलाबराय की कन्या मन्नोदेवी साथ हुआ तदुपरांत वे सपरिवार जगन्नाथपुरी की यात्रा पर गये जहाँ उन्हें बंगाल के कतिपय न नये कलाकारों से मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ जिनसे वहाँ के जन-जीवन के बारे में बहुत कुछ जानने-समझने का अवसर प्राप्त हुआ। अपनी यात्रा पूरी कर जब वे लौटे तबसे अनवरत ॥हित्य की सेवा करते रहे और इस प्रकार लगभग पैंतीस वर्ष की अल्पायु में वे सन् 1885 ई० । इस संसार को छोड़कर सदा के लिए चले गये।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, अपने समय के सर्वाधिक सजग और बहुआयामी कवि हैं। उनका बहुआयामी व्यक्तित्व उनके द्वारा सृष्ट साहित्य, में प्रतिबिम्वित होता हुआ देखा जा सकता है। यद्यपि उन्हें विधिवत शिक्षा प्राप्त नहीं हुई तथापि अपने रचना-कौशल के कारण जो प्रसिद्धि उन्हें प्राप्त हुई वैसी. विरले ही को प्राप्त होती है। उन्होंने अपनी अल्पायु में ही साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी लेखनी चलाकर युगीन कवियों और लेखकों का ध्यान नवयुग की ओर आकृष्ट किया।
भारतेन्दुः अपनी काव्य-यात्रा ब्रजभाषा से आरंभ करते हैं तत्पश्चात खड़ी बोली हिन्दी के
उद्धरार्थ अनेक प्रयत्न करते हैं। इस दृष्टि से उनकी अग्रांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत ना हिय को शूल।’
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने निज भाषा के उद्धार का कार्य पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भी किया, उनके पत्र-पत्रिकाओं में कवि वचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका आदि प्रमुख हैं।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी कविता के क्षेत्र में सर्वप्रथम एक कृष्णभक्त कवि के रूप में दिखायी देते हैं। कृष्ण-भक्ति से सम्बन्धित उनकी रचनाएँ ब्रजभाषा में रचित हैं जो वैष्णव भावना से ओत-प्रोत दृष्टिगत होती है। इस दृष्टि से उनकी अंग्राकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
“हम तो मोल लिए या घर के।
दास-दास श्री वल्लभ कुल के चाकर राधावरके।
इतना ही नहीं भारतेन्दु ने अपनी श्रृंगारपरक रचनाओं में गोपियों के प्रेम वर्णन में जिस रसिकता का परिचय दिया है, वह तो देखते ही बनता है। इस प्रकार की रचनाओं में प्रमुखतया नायिका-भेद, नख शिख वर्णन और श्रृंगार रस की जैसी पुष्टि हुई है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। विरहिणी गोपियों की अन्तर्दशा का अत्यंत ही मर्मस्पर्शी चित्रण उन्होंने अपने काव्य में जिस खूबी के साथ किया है वह उनकी नवीनता है। उनकी श्रृंगारपरक रचनाएँ रीतिकालीन कवियों की स्पष्ट छाप लिये दृष्टिगत होती है।
प्रश्न-2. ‘भारत दुर्दशा’ शीर्षक कविता का सारांश लिखें।.
उत्तर – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की युग चेतना भारत-दुर्दशा कविता में स्पष्टतः व्यक्त हुई। देश की गुलामी उन्हें बहुत खटकती थी। वे देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दुर्दशा 오 कारण गुलामी को मानते थे। देश की दुर्दशा का विस्तृत चित्रण करने के लिए उन्हें ‘भारत-दुर्दशा’ नाटक की रचना की। उसी नाटक से यह गीत लिया गया है।
भारतेन्दु अपने देश के तमाम लोगों को देश की दुर्दशा पर रोने के लिए आमंत्रित काम हैं। उनसे देश की दुर्दशा नहीं देखी जाती है, दुर्दशा से उत्पन्न पीड़ा को झेल नहीं पाते हैं। आन वे लोगों को आमंत्रण देते हैं
:
“रोवहु सब मिलिके आवहु भारत भाई। हा हा ! भारत दुर्दशा न देखी जाई।”
इसके पश्चात् वे देश के अतीतकालीन गौरव और वर्त्तमान दुर्दशा की तुलना करते हुए दुर्दर के प्रति लोगों के मन में करुणा उत्पन्न करने की चेष्टा करते हैं। उनके अनुसार ईश्वर ने जि सवसे पहले सभ्य बनाया, सबसे पहले धन और बल दिया, सबसे पहले विद्या देकर विद्वान बनार वही भारत आज सबसे पीछे चला गया है। जो अग्रणी था वह पिछलग्गू बन गया है।
भारतेन्दु देखते हैं कि जिस देश में राम, कृष्णः तथा युधिष्ठिर जैसे नीतिज्ञ और त्यागी महात्म पैदा हुए, हरिश्चन्द्र जैसे दानी तथा बुद्ध जैसे महान पुरुष पैदा हुए, भीम तथा अर्जुन जैसे वी पैदा हुए वहाँ आज मूढ़ता, अविद्या और कलह का साम्राज्य है। जहाँ देखो वहाँ दुःख ही दुःख फैला हुआ है।
भारतेन्दु की दृष्टिं में दुर्दशा और पतन का एक कारण आपसी लड़ाई है। यह लड़ाई का तरह की है। सबसे बड़ी लड़ाई धार्मिक है। वैदिक धर्म माननेवालों की जैनों-बौद्धों से लड़ाई थी इस आपसी कलह के कारण लोगों ने विदेशी आक्रमणकारी यवनों को न्योता देकर बुलाया। उन् लोगों ने विद्या, धन आदि समस्त भौतिक वस्तुओं तथा पुस्तक आदि बौद्धिक ज्ञान-सम्पदा का नाह कर दिया। अब चारों तरफ आलस्य, कुमति और कलह का अँधेरा छाया है। सब लोग अंधे-लंगड तथा दीन-हीन बने विलख रहे हैं।
प्रश्न-5. मैथिलीशरण गुप्त के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर – आधुनिक हिन्दी काव्य-साहित्य के अन्तर्गत मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग का प्रतिनिधित्व करने वाले वह पहले कवि हैं जिनकी कविताओं में युग-जीवन के साथ-साथ स्वर्णिम अतीत का समन्वय प्रस्तुत हुआ है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार, “गुप्तजी जितना प्राचीन साहित्य से, प्राचीन गाथाओं से प्रभावित हुए हैं उतना ही आधुनिक जीवन से भी। उन्होंने प्राचीन कथाओं को नवीन आदर्शों का निरूपक बनाकर प्रस्तुत किया है।”
गुप्तजी अपने युग को स्वर्णिम विहान काः स्वप्न दिखलाने वाले वह पहले कवि हैं जिन्होंने एक ओर अपनी कविताओं में काव्योपेक्षिताओं के प्रति उदात्तता दर्शाते हुए उनका उद्धार किया है वहीं दूसरी ओर एक आशावादी कवि के रूप में युग-जीवन में आशा का संचार करते हुए यहाँ तक कहा है कि, ‘आशा से आकाश थमा है स्वांस-तन्तु कब टूटे।’
गुप्तजी ने एक ओर नारी की अव्यक्त वेदना को वाणी देकर उर्मिला, यशोधरा आदि नारियों का उद्धार करते हुए स्वयं के कौटुम्बिक कवि होने का परिचय दिया है वहीं दूसरी ओर अपनी कविताओं में जन-जागरण का शंखनाद करते हुए स्वयं को एक ऐसे राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रस्तुत किया है जिनकी कविताओं में राष्ट्रीयता का सशक्त स्वर प्रथमतः ध्वनित हुआ।
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म मध्यप्रदेश राज्यान्तर्गत झाँसी के चिरगाँव में 3 अगस्त सन् 1886 ई० को एक मध्यवर्गीय गृहस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सेठ रामचरण दास तथा माता का नाम काशीवाई था। उनके पिता अत्यंत धार्मिक प्रवृति के थे यही कारण था कि सुवह विस्तर से उठते ही राम नाम की महिमा गाते हुए वे लोगों को जगाया करते थे। अपने पिता से उन्हें राम-भक्ति का संस्कार प्राप्त हुआ तो माता से वात्सल्य का प्रसाद किन्तु उन्हें अपने माता-पिता का स्नेह अधिक दिनों तक प्राप्त नहीं रहा। उनके पिता सन् 1903 ई० में तथा माता सन् 1905 ई० में सिधार गये तत्पश्चात उनका पालन-पोषण उनके छोटे चाचा भगवान दास जी ने ही किया। अपनी प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने अपने पैतृक गाँव चिरगाँव में ही प्राप्त की। बाद में वे झाँसी के मेक्डॉन्ल हाई स्कूल में दाखिल किये गये जहाँ उन्होंने अंग्रेजी सीखी। उन्हें अपनी अद्भुत प्रतिभा के कारण ही पद्मभूषण, राष्ट्रकवि आदि अनेक उपाधियाँ प्राप्त हुईं। सन् 1952 ई० में उन्हें राज्यसभा में छः वर्षों के लिए सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया। जीवन काव्य-साधना से जुड़े रहते हुए 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई० को इस असार संसार को छोड़कर सदा के लिये उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर ली। आज वे नहीं होकर भी अपनी कृतियों में अमर हैं।
गुप्तजी अपने युग के वह पहले कवि हैं जिनकी रचनाओं में प्राचीन और नवीन का मणिकांचन संयोग दृष्टिगोचर होता है।
प्रश्न-6. ‘पंचवटी’ की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर- श्री राम अपने पिता के प्राण की रक्षा के लिए सारी सम्पत्ति, राजमहल और अयोध्या नगरी को छोड़कर वनवास के लिए जा रहे हैं। कुल-ललना सीता भी उनके पीछे-पीछे वन में जाने के लिए चल पड़ती हैं। उनके पीछे लक्ष्मण को देखकर राम ने उनसे पूछ दिया कि तुम कहाँ चले? इस पर बहुत नम्र होकर लक्ष्मण ने कहा कि जहाँ मेरे सर्वस्व आप जाते हैं। दोनों भाई की बातों को सुनकर सीताजी कह उठीं कि राम तो पिता की आज्ञा पाकर वन की यात्रा कर रहे हैं, किन्तु आप क्यों त्यागी बनकर घर से मुँह मोड़ रहे हैं? इस पर विनीत भाव से लक्ष्मण ने सीता से कहा कि हे आयें ! तुम मुझे त्यागी क्यों बना रही हो ? राम की सेवा में अपने अतिरिक्त मुझे भी कुछ अवसर दो। इस पर राम ने कहा कि उनके लिए क्या यही उचित है कि माँ-बाप, स्त्री, नगर के लोग सबों को त्याग कर जंगल चला जाय ! लक्ष्मण ने नम्रतापूर्वक कहा कि वे अपना कर्त्तव्य अबतक नहीं निभा सके हैं। सीता जी विनोद करती हुई बोलीं कि लक्ष्मण ने कर्त्तव्य का निर्वाह तो नहीं किया है, किन्तु त्याग करना जानता है। सीता की इस वाणी पर उदारहृदय श्री राम की आँखों में स्नेह के आँसू छलछला आये। कुछ ऐसा आभास हुआ कि राम के उन आँसुओं ने लक्ष्मण को साथ चलने की स्वीकृति दे दी।
गोदावरी नदी के पावन पट पर रात्रि के अन्तिम प्रहर में राम और सीता कुटी के अन्दर निद्रा में निमग्न हैं। रजनी के इस नीरव वातावरण में चाँद की स्निग्ध ज्योत्सना चारों ओर फैली है। घरती से आकाश तक चाँद मनोहर रश्मियाँ बिखेर रहा है। मन्द मन्द हवा बह रही है। ऐसे शान्त वातावरण में धनुर्धर लक्ष्मण जगे हुए हैं। जब संसार के सारे प्राणी निद्रा देवी की गोद में झपकी ले रहे हैं उस समय योगी के समान लक्ष्मण रात को आँखों में गुजार रहे हैं। पता नहीं क्यों वह वीर-व्रती इस प्रकार व्रत में लीन हैं। प्रकृति के इस सुनसान वातावरण में लक्ष्मण अकेले रहकर अपने आपको ही कुछ कहते हैं और अपने आप से ही सुनते हैं। कभी वे आँखें उठा कर आस-पास की प्रकृति का अवलोकन करते हैं कभी मन-ही-मन बातें करते हैं।
वनवास की अवधि के तेरह वर्ष बीत चुके हैं किन्तु लक्ष्मण को ऐसा आभास हो रहा है कि वे लोग वन में जैसे कल ही आये हों। उन्हें फिर स्मृति हो आई कि किस प्रकार दशरथ जी अपने प्राण-पुत्र और पुत्र-वधू को जाते देखकर बेहोश हो गये थे। वनवास की अवधि कुछ ही माह में समाप्त होगी, किन्तु लक्ष्मण की सेवा रूपी धन से बढ़कर और कुछ प्रिय नहीं लगता। राम वनवास की अवधि समाप्त कर अयोध्या में राज्य-भार सँभालेंगे, जीवन के उन व्यस्त दिनों में लक्ष्मण को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा कि उनसे देर तक बातें करें। लोक-मंगल के भाव के कारण लक्ष्मण तथा अन्य व्यक्तियों को भी इसके लिए दुःख नहीं होगा। राम को वनवास देकर, कंकेयी सोच रही थी कि अयोध्या के राज्य पर अपना पूर्ण अधिकार भरत का होगा |
प्रश्न-9. रामनरेश त्रिपाठी का राष्ट्र-प्रेम पर टिप्पणी करें। अथवा, ‘स्वप्न’ का काव्य-सौंदर्य की विवेचना करें।
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उत्तर – रामनरेश त्रिपाठी छायावादं पूर्व की खड़ीबोली के महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं।
उनकी रुचनाओं (‘मिलन’, ‘पथिक’ और स्वप्न) में देशप्रेम और वैयक्तिक प्रेम दोनों मौजूद हैं, लेकिन देशप्रेम को ही विशेष स्थान दिया गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उचित ही लिखा है-“देशभक्ति का यह भाव उनके मुख्य पात्रों को जीवन के किए कई क्षेत्रों में सौंदर्य प्रदान करता दिखाई पड़ता है- कर्म के क्षेत्र में भी, प्रेम के क्षेत्र में भी। वे पात्र कई तरफ से देखने में सुंदर लगते हैं। देशभक्ति का रसात्मक रूप त्रिपाठीजी द्वारा प्राप्त हुआ, ‘स्वप्न’ खंडकाव्य में नायक वसन्त विलासी तथा कायर है। पत्नी सुमन की प्रेरणा से उसमें वीरता के भाव जागृत होते हैं। वह आततायियों-आक्रमणकारियों को देश से खदेड़कर यश का भागीदार बनता है। देश की दुर्गतिपूर्ण स्थिति को ‘स्वप्न’ में देखकर कवि क्षुब्ध है। नायक अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने का स्वप्न देखता है। उसमें जनमत तैयार करने की अथाह शक्ति है। काव्य-नायक का संघर्ष तमाम जन-चेतना के राष्ट्रीय तेज को उजागर करता है। पराधीन देश की जनता का वह रूप सामने लाता है जो हमारी आत्मा को बल देता है।
प्रश्न-10. छायावादी कवि के रूप में जयशंकर प्रसाद का काव्यगत परिचय दीजिए।
उत्तर – आधुनिक हिन्दी कविता जिन कवियों की रचनाओं में दृष्टिगत होनेवाली प्रेम और सौन्दर्य विषयक अनुभूतियों की स्वच्छंदतापूर्ण अभिव्यक्ति को लेकर छायावाद की संज्ञा से अभिहित हुई महाकवि जयशंकर प्रसाद उन कवियों में अग्रणी हैं जिनकी कविताओं में सर्वप्रथम एक साथ छायावाद की सारी काव्य-प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होने लगीं जिनके संदर्भ में डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि, “कई दृष्टियों से जयशंकर प्रसाद छायावाद के पहले कवि हैं।
प्रश्न-12. ‘बीति विभावरी जागरी’ कविता का सारांश लिखें।
उत्तर – प्रसाद जी की काव्य-साधना के अन्तर्गत प्रेम प्रकृति के प्रति अभिव्यक्ति एक-साथ देश के प्रति भी अभिव्यक्त होता देखा जा सकता है। जिन स्थलों पर प्रकृति ऐसे चित्र मिलते हैं वहाँ कवि राष्ट्रीय भावना से शून्य अपने देशवासियों की सुषुप्त राष्ट्रीयं चेतना को जागृति प्रदान करता हुआ दिखायी देता है।
‘जागरी’ शीर्षक कविता प्रसाद जी रचित ‘लहर’ काव्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्बोधनात्मक कविता है जिसमें कवि द्वारा प्रकृति-चित्रण के माध्यम से देशवासियों को जागरण का संदेश दिया गया है।
कवि कहता है कि उषा रूपी पनिहारिन आकाशरूपी पनघट पर अपने तारे रूपी घट को डुबो रही है। उधर ‘कुलकुल’ के स्वर में पक्षियों का कलरव सुनायी दे रहा है। वृक्षों में लगे नव किसलय हवाओं के संस्पर्श से नृत्यं करते प्रतीत होते हैं। नये मधुरस से भरे पुष्प, लताओं में दिखायी देने लगे हैं पर अपने बालों में मलय पंवन की सुरभि, अधरों पर प्रेम की लालिमा तथा नेत्रों में विहाग लिये सखी अभी तक सो रही है जबकि समय-जांगने का हो चुका है।
प्रस्तुत कविता में कवि द्वारा प्रातःकालीन प्रकृति का अत्यन्त ही काव्यात्मक एवं कलात्मक चित्रण किया गया है। यहाँ ‘कुलकुल’ जैसे ध्वन्यात्मक शब्दों के सुन्दर प्रयोग हुये हैं। छायावाद की अन्यतम प्रवृति मानवीकरण का एक उदाहरण है यह कविता जिसमें उषा को पनिहारिन तथा पवन को नायक के रूप में प्रस्तुत कर प्रकृति को मानवीकृत किया गया है। यहाँ नायिका लतिका के रूप में उपस्थित होती दृष्टिगत होती है। सखी के रूप में सो रही देश की जनता को जागरण काल की ओर संकेत कर कवि ने जगाने का उपक्रम किया है। प्रकृति-चित्रण के माध्यम से प्रातःकालीन, वातावरण. का यहाँ अत्यंत ही सजीव एवं प्रभावोत्पादक चित्रण प्रस्तुत किया गया-
प्रश्न-20. सुमित्रानन्दन पंत की कविताओं में निहित प्रकृति प्रेम की विवेचना कीजिए।
उत्तर – आधुनिक हिन्दी काव्य-जगत में कविवर सुमित्रानंदन पंत छायावादी काव्य-धारा के वह अकेले कवि हैं जिन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि कहकर प्रकृति का अन्यतम चितेरा माना गया है। प्रकृति के प्रति उनका प्रेम न केवल कल्पना की उड़ानें भरता है अपितु उनकी कविताओं में जहाँ प्रकृति के इन्द्रधनुषी चित्र प्रस्तुत हुये हैं वहाँ उनकी कल्पना उत्कर्ष को प्राप्त होती हुई भी दृष्टिगत होती है।
पंत जी का जन्म 21 मई सन् 1900 ई० को उत्तर प्रदेश राज्यान्तर्गत अल्मोड़ा जिले के एक पर्वतीय गाँव कौसानी में तथा निधंन सन् 1977 में हुआ था। उनके पिता का नाम पं० गंगादत्त पंत था जो कौसानी इस्टेट में एक चाय बागान के मुनीम पद पर कार्यरत थे वहाँ रहते हुए उन्हें लकड़ी की ठेकेदारी भी मिला करती थी। पंत जी को अपनी माता का स्नेह अधिक प्राप्त नहीं हो सका। उनकी माता पंत जी के जन्म के छः घंटे बाद ही दिवंगत हो गयीं जिनका नाम सरस्वती देवी था। पर्वतीय ग्राम कौसानी जो पंतजी की जन्मभूमि थी वहाँ के प्राकृतिक परिवेश में ही उनका बचपन व्यतीत हुआ। जहाँ रहते हुए वे घंटों प्रकृति के सौन्दर्य को निहारा करते थे जिससे उन्हें सृजन की प्रेरणा प्राप्त हुई जैसी कि उनकी स्वीकारोक्ति भी है-
“कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति-निरीक्षण से मिली है, जिनका श्रेय मेरी जन्मभूमि कुंर्माचल प्रदेश को है। कवि-जीवन से पहले. भी मुझे याद है-घंटों एकांत में बैठा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था और कोई आकर्षण मेरे भीतर एक अत्यंत सौन्दर्य का जाल बुनकर मेरी चेतना को तन्मय कर देता था। यह शायद पर्वत-प्रान्त के वातावरण का ही प्रभाव है कि मेरे भीतर विश्व और जीवन के प्रति गंभीर आश्चर्य की भावना पर्वत ही की तरह निश्चय रूप में अवस्थित है।”
पंत जी की काव्य-कृतियों में पल्लव, वीणा, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, वाणी आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त उनकी गद्य-कृतियाँ भी उपलब्ध होती हैं।
पंत जी का व्यक्तिगत जीवन प्रकृति से अत्यंत प्रभावित रहा है जो उनके काव्य से स्पष्ट है। उनकी काव्य-यात्रा का प्रारंभ सन् 1918 के आसपास ‘वीणा’ के प्रकाशन के साथ होता है जो उनका प्रकृतिपरक काव्य हैं जिसमें प्रकृति एक अल्हड़ नायिका के रूप में चित्रित हुई है।
प्रश्न-23. ‘नौका विहार’ कविता का सारांश लिखें।
उत्तर – प्रकृति के सुकुमार कवि पंत की काव्य-चेतना प्रकृति में केवल सौन्दर्य के ही दर्शन नहीं करती है अपितु उसमें जीवन के शाश्वत तत्त्वों का भी अनुसंधान करती है। इस दृष्टि से उनकी ‘नौका-विहार’ कविता की अलग पहचान है। इस कविता में नौका विहार के माध्यम से जन्म-मरण के दर्शन का बड़ा ही काव्यात्मक बोध कराया गया है।.
कवि की दृष्टि ग्रीष्मकालीन गंगा की ओर जाती है। रात्रि की बेला है, ग्रीष्म ऋतु के कारण तन्वंगी हो गयी गंगा थकी-माँदी-सी बालू की सेज पर चाँदनी रात में हथेली पर मुख टिकाए लेटी हुई है। उसकी छाती पर लहरों की केश-राशि बिखरी है और चन्द्रकिरणों में चमकती लहरें तरलायित आँचल की तरह लग रही हैं। कवि ने इस तन्वंगी गंगा को तापस बाला कहकर न केवल उसकी शुभ्रता का संकेत दिया है अपितु गंगा की सांस्कृतिक गरिमा और उसके सात्त्विक सौन्दर्य का भी संकेत दिया है। जिस तरह ‘तापस बाला का सौन्दर्य मन में सात्त्विक भाव जगाता है, कामोत्तेजना नहीं, उसी तरह ग्रीष्म की शांत तन्वंगी गंगा का सादगी भरा सौन्दर्य मन में सात्त्विक भाव का उन्मेष करता है।
विहार के क्रम में कवि की दृष्टि ऊपर नीले आकाश की ओर जाती है तो अनुभव करता है कि तारों के माध्यम से आकाश आँखें फाड़-फाड़ कर कुछ खोज रहा है। जल में तारों का विम्ब ऐसा लग रहा है मानो लहरें तारों के चंचल दीप आँचल में छिपाए लुका-छिपी खेल रही है। दशमी तिथि की रात्रि है। अतः दशमी का. चाँद रह-रह कर अपना तिर्यक मुख मुग्धा नायिका की तरह दिखला रहा है-
“लहरों के घूँघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक मुख, दिखलाता मुग्धा सा रुक-रुक।”
प्रश्न-26. ‘मधुर-मधुर मेरे दीपक जल’ का मुख्य प्रतिपाद्य स्पष्ट करें।
उत्तर – महादेवी वर्मा छायावादी परम्परा की एक श्रेष्ठ कवयित्री हैं। इनके काव्य में इनकी व्यक्तिगत पीड़ाजन्य अनुभूति की अभिव्यक्ति रहस्यमयता के धरातल पर हुई है। इनके काव्य में गीतितत्त्व की प्रधानता है। छायावादी कविं पंत के बाद महादेवी अपनी काव्य-कला के प्रति अत्यन्त सजग कलाकार मानी गयी हैं। डा० नगेन्द्र ने इनके सम्बन्ध में कहा है- “महादेवी के काव्य में हमें छायावाद का शुद्ध अमिश्रित रूप मिलता है। छायावाद की अन्तर्मुखी अनुभूति, अशरीरी प्रेम जो तृप्ति न पाकर अमांसल सौंदर्य की सृष्टि करता है। मानव और प्रकृति चेतन संस्पर्श, रहस्य, चिंतन, तितली के पंखों और पंखुड़ियों से चुराई हुई कला और इन सबसे ऊपर स्वप्न सा पूरा हुआ एक वायवी वातावरण ये तत्त्व जिसमें घुले मिलते हैं, वह है महादेवी की कविता”।
‘मधुर-मधुर मेरे दीपक जल’ कवयित्री के काव्य कृति संधिनी में संकलित है। इस गीत में दीपक कवयित्री को वेदना, त्याग एवं परोपकार की भावनाओं के प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुआ है। कवयित्री अपने दीपक से आग्रह करती है, तुम सदैव जलता रहा और युग-युग तक, प्रतिदिन, प्रतिपल प्रियतम के पथ को आलोकित करता रहा जिससे उनके पथ का अंधकार दूर हो जाए और वे निर्विघ्न मुझं तक पहुँच जाए। कवयित्री के कहने का भाव है कि वेदना की सहज स्वीकृति के बाद ही प्रियतम की प्राप्ति हो सकती है। दीपक कवयित्री की त्याग का प्रतीक है। वह दीपक को सम्बोधित करती हुई कहती है कि हे मेरे दीपक तुम पुलक पुलक कर जलं, तू धूप बनकर विपुल सौरभ फैलाओ और संसार को सुगंधमय बनाने के लिए उसे आलोकित करने के लिए अपने मृदुल शरीर को मृदुल मोम सा घुला दे, तेरे जीवन का अणु-अणु गल कर इस संसार को प्रकाश का अपरिमित प्रदान करें, तुम स्वयं मिटकर संसार को दिव्यः प्रकाश से आलोकित कर दे। दीपक के माध्यम से कवयित्री स्वयं को समाप्त करके संसार का कल्याण करना चाहती है, दीपक का जलना संसार के लिए ही सार्थक होता है।
हे मेरे दीपक संसार के सारे शीतलं कोमल और नये पदार्थ हैं, वे सभी तुमसे ताप की उष्णता चाहते हैं, अर्थात् तेरी जलन लेकर ही वे स्वयं जलना चाहते हैं, तुम इन्हें ज्वाला का कण प्रदान करो। विश्वरूपी शलम (पतंगा) पछताकर कह रहा है कि तुम से घुल मिल वे जल नहीं पाये। कवयित्री के कहने का लक्ष्य है कि सांसारिक प्राणी में त्याग, परोपकार, एवं सेवा-भाव की कमी है, इसलिए वह स्वार्थ के दायरे में कैद है। परोपकाराय संतां-विभूतयः” की भावना से दीपक भर जाए ऐसी कामना कवयित्री की है।
कवयित्री संसार के अनेक ज्वलनशील पदार्थों का परिचय कराती हुई दीपक को जलते रहने के लिए उत्प्रेरित करती है। वह कहती है हे दीप तुम विहँस-विहंस कर आसमान के अंधकार को पूरा करने के लिए. असंख्य तारे जलते रहते हैं, वे तेल के बिना भी जलते रहते हैं। सागर जल से परिपूर्ण रहकर भी जलता है। उसका हृदय वड़वाग्नि से विदग्ध होता रहता है।
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