BA History MJC 4 Questions Papper 2025 | CBCS UG 3rd Sem Exam 2023-27 | BA 3rd Sem History MJC 4 Viral Questions Papper

BA History MJC 4 Questions Papper 2025 | CBCS UG 3rd Sem Exam 2023-27 | BA 3rd Sem History MJC 4 Viral Questions Papper

 

 

 

UG 3rd Sem AEC 3 Disaster management Questions Papper 2025 | CBCS BA/Bsc/Bcom 3rd Sem Exam 2023-27 | Disaster management Original Question paper | By Madhav sir

 

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UG 3rd Sem SEC 3 Communication in Professional life Original Questions Papper 2025

 

 

 

 

CBCS UG 3rd Sem Exam 2023-27 | BA 3rd Sem History MJC 4 Viral Questions Papper

 

 

 

 

Confirm Subjective Questions Papper By Madhav sir

 

1. यूरोप में सामंतवाद

सामंतवाद (Feudalism) भूमि पर आधारित एक सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था थी। यह व्यवस्था भूमि-वितरण के आधार पर बनी हुई थी। ऐसी सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार और कर्त्तव्य उसकी अधिकृत भूमि से सुनिश्चित किया जाता था। इस समाज में भूमि का स्वामित्व राजा का होता था एवं राजा से दूसरे लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भूमि प्रदत्त होती थी। राजा द्वारा जिन्हें भूमि प्रदान किये जाते थे वे बड़े सामंत तथा ये जिन्हें भूमि देते थे, उन्हें छोटे सामंत जबकि छोटे सामंत से जो भूमि पाते थे वे साधारण सामंत कहलाते थे। इस व्यवस्था से छोटे तथा बड़े सामंतों के अधिकार एवं कर्त्तव्य सुनिश्चित किए जाते थे।

सामंतवाद के उद्भव और विकास के पीछे आर्थिक तथा राजनीतिक कारण मौजूद थे। ईसा की 5वीं से 15वीं सदी तक इसी का वर्चस्व यूरोप पर था। 9वीं से 11वीं सदी तक, यूरोप में सामंतों का चरम काल था। सामंतों ने फ्रांस के फ्रैंकों के विकास से खूब लाभ उठाया। सामंत का विभाजन दो प्रकार से होने लगा। वे जिनके पास पीढ़ी दर पीढ़ी से सम्पत्ति थी तथा वे जिन्होंने अपने साहस एवं वीरता के बदौलत सम्पत्ति का अर्जन किया। इन नवीन सामंतों को “फ्रैंकलिन” कहते थे। लड़ाकू जर्मन जनजाति कबीलों में विभाजित थीं तथा हर एक कबीले का एक नेता या सरदार होता था। कबीले के दूसरे सदस्यों के लिए नेता के आदेश ही कानून थे तथा वे उनका परिपालन करते थे। विजयोपरांत वे नेता अपने साथियों के मध्य भूमि को बाँट देते थे। अतः उनके नेतृत्व में सामंती प्रथा प्रगति के पथ पर बढ़ता चला गया। इन्होंने जर्मन एवं रोमन प्रणालियों के आधार पर सामंतवाद को आगे बढ़ाया तथा उचित अर्थ में इसकी जड़ें सुदृढ़ हुई। मेरोविगियन राजवंश से यह सामंती प्रथा अस्तित्व में आयी। रोम की प्राचीन सामंती अदालतों को वैधानिक रूप प्रदान किया गया। अपने-अपने क्षेत्रों में उन्होंने अपनी संप्रभुता स्थापित करने की कोशिश की। उनका केवल एक ही काम था शांति से शासन व्यवस्था में राजा की सहायता करना।

हालांकि शारलेमेन ने सामंती प्रथा पर पाबन्दी लगायी। इसके बावजूद वह इसके विकास को रोक नहीं पाया। 11 वीं सदी से इंगलैण्ड में सामंतवाद का विकास होने लगा। यहाँ (इंगलैण्ड) विलिमय प्रथम ने सामंतवाद को प्रश्रय दिया। उसने बैटनों को इंगलैण्ड की भूमि प्रदान की तथा उन्हें जमीन का स्वामी बनाया। यही बैटन बाद में सामंत बने। इंगलैण्ड में भी सामंतवाद चरम पर पहुँच गया था।

यूरोप में सामन्तवाद लगभग 8 सदियों तक कायम रहा और 7वीं सदी से लेकर 15वीं सदी तक अपने विकास की चरम सीमा पर था। लेकिन कालक्रम से इसका भी पतन होना शुरू हुआ और 15वीं सदी तक आते-आते इसका दम टूट गया अर्थात इसका पतन हो गया।

2. भौगोलिक खोजें

आधुनिक काल की शुरुआत 15वीं शताब्दी से मानी जाती है। इस शताब्दी में जिन घटनाओं के कारण आधुनिक काल की शुरुआत हुई, उसमें भौगोलिक खोजों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारणों में से एक माना जा सकता है। 15वीं शताब्दी के अंत में और 16वीं सदी के आरंभ में यूरोपीय नाविकों ने कई दुस्साहसपूर्ण सामुद्रिक यात्राएँ कीं।

4. सामंतवादी आर्थिक व्यवस्था

 

सामंतकाल में आर्थिक जीवन व्यापारियों की श्रेणियों पर आधारित था। उस समय व्यापार सरकारी नियंत्रण से प्रायः मुक्त था। सामंत प्रथा में सामंत बराबर आपस में लड़ते रहते थे। इस कारण उनका जन-धन स्वाहा हो जाता था। सामंतवाद में किसानों का भयानक शोपन होता था। जमीन जोतने वालों की आमदनी नगण्य थी। मजदूरों के आमदनी से कर वसूला जाता था। सामंती व्यवस्था में जमीन तथा खेती की प्रधानता थी। प्रत्येक जागीर के स्वत्तः पूर्ण होने के कारण व्यापार का क्षेत्र बड़ा संकुचित था। अपनी जरूरतों को पूरी करने के बाद किसानों को जो कुछ बचता था, उसकी बिक्री हाटों या मेलों में होती थीं। सामंती प्रथा का वातावरण असंतोष और संकिर्णता का था। जबकी व्यापार का वातावरण स्वतंत्र होता है। सामंती अर्थव्यवस्था जीवन निर्वाह की अर्थव्यवस्था थी, जिसमें मुनाफे अथवा प्रतियोगिता का कोई स्थान नहीं था। सूद पर कर्ज के लेन-देन को पाप माना जाता था। सामंत लोग अपनी जागीर से अधिक से अधिक मुनाफा चाहते थे।

 

सामंती अर्थव्यवस्था गतिहीन और कृषि प्रधान थी। किसान व्यापारी मजदूर सभी सामंत को ही अपना हित चिंतक मानते थे। सामंती व्यवस्था में वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी। उस समय मुद्रा की प्रधानता नहीं थी, किसान काम कर के अपनी जरूरत की चीजें बनाते और सामंत शाह उनसे तरह-तरह की सेवाएँ लेकर अपनी आवश्यकताएँ पूरी करते थे। किसान तथा मजदूरों को बेगारियाँ भी करनी पड़ती थी। इस प्रकार की कमजोर आर्थिक व्यवस्था के कारण किसानों; मजदूरों तथा व्यावसायों में विद्रोह होने लगा। फलस्वरूप सामंतवाद की समाप्ति हो गई।

 

5. कार्ल मार्क्स का पूँजीवादी सिद्धान्त

 

आर्थिक ढांचे में उत्पादन की एक विशिष्ट प्रणाली तथा उत्पादन के संबंध निहित हैं। उत्पादन की प्रणाली ऐतिहासिक काल खंडों में समान नहीं होती। यह इतिहास के परिवर्तन के साथ-साथ बदलती है। मार्क्स ने विश्व इतिहास को विशिष्ट चरणों में विभाजित किया। इनमें से प्रत्येक चरण का आर्थिक स्वरूप अलग-अलग था। इस आर्थिक ढांचे से ही अन्य सामाजिक उपव्यवस्थाओं जैसे राजनैतिक व्यवस्था को अधिसंरचना (super structure) कहा जाता है। मार्क्स इतिहास को निम्न चार चरणों में बांटा है। (i) प्रारंभिक साम्यवाद (communal) चरण, (ii) दास प्रथा पर आधारित प्राचीन चरण, (iii) सामंतवादी चरण, (iv) पूँजीवादी चरण। उत्पादन की विशिष्ट प्रणालियों के अनुसार मान इतिहास के विभिन्न चरणों का अध्ययन मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत का आधार है। जैसा कि बताया जा चुका है, इनमें से हर चरण में उत्पादन की एक खास प्रणाली है। प्रत्येक चरण को इतिहास की एक कड़ी माना जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हर चरण के अपने अंतर्विरोध और तनाव होते हैं। इन अंतर्विरोधों के एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाने पर व्यवस्था ही बिखर जाती है और पिछले चरण के गर्भ से नया चरण जन्म लेता है।

 

6. मेरिया थेरीसा

 

मेरिया थेरीसा आस्ट्रिया की एक उच्च कोटि की शासिका थी। उसने प्रशा के सम्राट फोड्रिक महान रूस के सम्राट पीटर महान् तथा रूस की साम्राज्ञी कैथराइन द्वितीय की भाँति देशवासियों के हित के लिये प्रशासनीय सुधार किये। इस सम्बन्ध में एक लेखक का कथन है-

 

“यद्यपि मेरिया थेरीसा को फ्रेड्रिक महान् की तरह एक महान् प्रबुद्ध शासक तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि तत्कालीन दार्शनिकों के सिद्धान्तों में उसकी कोई श्रद्धा न थी, फिर भी वह एक प्रजा-वत्सल शासिका थी तथा प्रजा को प्रसन्न रखना अपना एक धर्म समझती थी।”

 

वह एक चरित्रवान, गुणवान, दूरदर्शी और दृढ़ निश्चय वाली शासिका थी। वह एक पवित्र कैथोलिक थी और स्वभाव से क्रांति और परिवर्तन की विरोधी थी।

 

9. 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति

 

विश्व-इतिहास में फ्रांस की राज्य क्रांति का एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण स्थान है। यह एक ऐसी क्राति थी जिसने विश्व को सोते से जगाया था। एक तरह से इस क्रांति के श्री गणेश के साथ ही साथ यूरोप का इतिहास एक राष्ट्र, एक घटना और एक पुरुष के इतिहास में मिलकर एक हो जाता है, वह राष्ट्र है फ्रांस, वह घटना है फ्रांस की राज्य क्रांति और वह व्यक्ति है नेपोलियन बोनापार्ट। इतना ही नहीं, इस क्रांति ने एक युग का अंत और दूसरे युग के आगमन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। यह क्रांति विचारों की क्रांति थी। यह केवल हथियारों की लंड़ाई ही नहीं थी। इसलिए इस क्रांति ने विश्व के कोने-कोने में शासन के नवीन सिद्धांतों, सामाजिक व्यवस्था के नवीन विचारों और मानव अधिकारों के सिद्धांतों को समुचित ढंग से फैलाया। इस क्राति ने यूरोप की पुरानी प्रथाओं, परम्पराओं और रीति रिवाजों तथा संस्थाओं को चुनौती दी। इस तरह से इस क्रांति का महत्व अत्यधिक प्रमुख है।

 

वस्तुतः क्रांति एकाएक नहीं होती है। इसके लिए बहुत पहले से ही पृष्ठभूमि तैयार की जाती है। फ्रांस की राज्य क्रांति एकाएक न होकर उसका बीज बहुत पहले ही रोपा जा चुका था जो समय और परिस्थितियों को पाकर पनप गया। इस तरह से फ्रांस की राज्य क्रांति के अनेक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं।

 

10. औद्योगिक क्रान्ति का स्वरूप

 

17वीं सदी तक मनुष्य को अपने सब कार्यों के लिए अपने दो हाथ-पैर पर निर्भर रहना पड़ता था। वैल, घोड़ा, ऊँट आदि उसकी मदद किया करते थे। मशीनों और कल-कारखानों से उसको कोई सहायता नहीं मिलती थी। लेकिन 18वीं सदी के मध्य स्थिति में पूर्णरूपेण परिवर्तन आ गया था। उत्पादन के लिए नए-नए ढंग की मशीनों का आविष्कार हो गया था जिसको वेधड़ल्ले से प्रयोग करने लगे थे। यातायात के साधनों में भी खूब उन्नति हुई थी। एक के बाद एक मिलों की स्थापना से लोगों का काम सरल हो गया था। अतः इनके प्रयोग से मनुष्य के समय तथा शक्ति में काफी बचत होने लगी थी। पहले मनुष्य अपने हाथों के द्वारा ही सब कार्य करते थे परन्तु अब समस्त कार्य यन्त्रों के द्वारा होने लगे पहले तो कार्य सैकड़ों मनुष्य मिलकर कई वर्षों में करते थे अब वही कार्य मशीन के द्वारा कम ही लोग चन्द दिनों में करने लगे इन सब का प्रभाव समाज पर गहरे रूप से पड़ा। फलतः मानव के आर्थिक और सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा जिससे मनुष्य के आर्थिक और सामाजिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गया।

 

11. औद्योगिक क्रान्ति का प्रभाव

 

विश्व की युगान्तरकारी घटनाओं में औद्योगिक क्रान्ति भी एक महत्वपूर्ण घटना है जिसके महत्वपूर्ण परिणामों से आज विश्व में उजाला फैला हुआ है। इस तरह से औद्योगिक क्रान्ति ने उत्पादन के प्राचीन तरीकों में क्रान्तिकारी परिवर्तनों को लाकर मानव जीवन में ही क्रान्ति ला दो है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार लुकास महोदय का यह कथन सत्य ही है कि प्राचीन युग से तथा मध्य युग में आधुनिक युग को पृथक करने वाली घटनाओं में औद्योगिक क्रान्ति एक बहुत बड़ी घटना है। फ्रांस की क्रांति ने उसकी भौतिक स्थिति में फ्रांसीसी क्रांति फ्रांस की देन थी और औद्योगिक क्रांति इंगलैंड की। इस तरह से दोनों ने मिलकर आधुनिक सभ्यता का निर्माण किया, मध्यम वर्ग के महत्व को बढ़ाया तथा उद्योग-धन्धों में लगे सर्वहारा वर्ग को जन्म दिया। एक दूसरे प्रसिद्ध इतिहासकार का भी कथन उल्लेखनीय है “विश्वसभ्यता को ब्रिटेन को सबसे बड़ी देन औद्योगिक क्रान्ति थी। आर्थिक जगत में औद्योगिक क्रान्ति की अमिट छाप पड़ी। इस क्रान्ति से मालों के उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई। रेल, जहाज, नहर और सड़कों के द्वारा मालों को लाना और ले जाना अब अत्यन्त ही सरल हो गया। इससे यूरोप एशिया और अफ्रीका का शोषण करने लगा। इसी उद्देश्य से यूरोप ने इस देशों में अपना उपनिवेश स्थापित किया। इन उपनिवेशों में बसे हुए यूरोपियनों के लिए यूरोप से ही तैयार माल आते थे। इससे यूरोप तथा अन्य देशों के बीच आर्थिक सम्बन्ध स्थापित हो गया। इन सब के अलावा सोना-चाँदी बहुत अधिक मात्रा में पैदा होने लगे जिससे मुद्रा का दाम बहुत गिर गया। फलतः क्रयशक्ति क्षीण हो गई। इन सब का परिणाम यह निकला कि इन सब वस्तुओं का व्यवहार अमीरों के विलास में होता था, अब उन चीजों का व्यवहार जनसाधारण लोग भी करने लगे। इस तरह से औद्योगिक क्रांति के प्रभावों से एक नये संसार का जन्म हुआ।

 

12. औद्योगिक क्रान्ति और सामाजिक आन्दोलन

 

दास प्रथा को प्रोत्साहन देकर औद्योगिक क्रान्ति ने मानवता का शोषण किया। इंग्लैण्ड को कच्चे मालों की कमी हो गई। कृषि की उपेक्षा से औद्योगिक देशों में अन्न की भारी कमी हो गई। इसकी पूर्ति के लिए अमेरिका की बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की कोशिश की गई। इसके लिए बहुत-से कृषक श्रमिकों की जरूरत थी। इस कार्य के लिए अफ्रिका के हब्शियों को पकड़-पकड़ कर लाया गया। इन सभी हब्शियों को बाद में दास बना लिया गया। बाद में चलकर इन दासों की खरीद-बिक्री होने लगी और उन पर एक से एक अत्याचार किये जाने लगे। वास्तव में यह अमानवीय कार्य था।

 

इस तरह के मजदरों की दशा अत्यन्त ही दयनीय हो गई। उनकी दशा में सुधार लाने के प्रयत्न किये गये। फलतः मजदूरों के व्यवसाय संघ (Trade Union) की स्थापना हुई।

13. 1688 की गौरवपूर्ण क्रांति के कारण

 

गौरवमयी क्रान्ति ने इंगलैंड के प्रशासकीय ढाँचे में वह परिवर्तन ला दिया जो कि पहले कभी नहीं हुआ था। इसके परिणामस्वरूप जेम्स द्वितीय को इंगलैंड से फ्रांस भाग जाना पड़ा और उसके स्थान पर उसकी लड़की मैरी (Mary) तथा उसके जमाता विलियम ऑफ ओरेंज (William of Orange) सिंहासनारूढ़ हुए। यह अद्भुत परिवर्तन जेम्स द्वितीय के कुछ कार्यों को करने तथा कुछ कार्यों को न करने का परिणाम था। इस क्रान्ति के कारण अनेक प्रकार के थे जो इस प्रकार हैं-

 

1. टेस्ट लॉ को पुनस्र्थापित करने का प्रयास – पहली बात जिसने कि पार्लियामेंट तथा सम्राट के सम्बन्धों को कटु बना दिया था, टेस्ट लॉ को पुनर्स्थापित करना था। जेम्स द्वितीय टेस्ट लॉ को पुनर्स्थापित करना चाहता था क्योंकि इसके बिना वह कैथोलिक का संरक्षक नहीं बन सकता था, परन्तु संसद ने इसका विरोध किया।

 

2. स्थाई सेना – स्थाई सेना को बनाये रखने के प्रश्न में राजा की लोकप्रियता में कमी कर दी। इस कारण जेम्स ने लन्दन शहर के निकट बहुत विशाल कैथोलिक सेना नियुक्त कर दी तथा सेना में निरन्तरं वृद्धि करने का प्रयास किया। इस घटना ने प्रजा के कान चौकन्ने कर दिये क्योंकि ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई थी।

 

3. शत्रुओं के साथ निर्दयता का व्यवहार – जेम्स द्वितीय ने शत्रुओं के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया। इसी के नियंत्रण में ही तीन सौ आदमियों को मौत के घाट उतारा गया तथा कई हजार आदमियों को वेस्ट इण्डीज में आकर बसने की सजा दी गई। इस भावपूर्ण शासन ने अनेक लोगों को स्टुअर्ट राजाओं के विरुद्ध कर दिया।

 

4. शक्तियों को सीमित करने तथा स्थगित करने का प्रयास राजा की लोकप्रियता

 

को कम करने में इसका हाथ कम न था। स्थगित करने की शक्ति से एक विशेष कानून कुछ व्यक्तियों के लिए अव्यवहार्य (Inapplicable) हो गया। इसके अतिरिक्त कोई भी कानून सबसे लिए भी कुछ काल तक रोका जा सकता था। इन बातों से प्रजा में आतंक फैल गया। इंगलैंड का राष्ट्र इसे सहन नहीं कर सकता था।

 

5. प्रेरोगेटिव कोर्ट्स का पुरुत्थान – यह भी राजा के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। राजा ने इसकी आलोचना करना प्रारम्भ कर दी तथा अन्त में इसका अन्त हो गया।

 

6. विश्वविद्यालय में कैथोलिकों की नियुक्ति-उसने विश्वविद्यालयों में पोप मतानुयायियों आए |

 

14. गौरवपूर्ण क्रान्ति के परिणाम

 

गौरवपूर्ण क्रान्ति के परिणामस्वरूप इंगलैंड के सम्राट की शक्ति सीमित हो गई। यह सिद्ध कर दिया कि सम्राट में कोई भी दैविक शक्ति नहीं है। बिल ऑफ राइटस के आधार पर राजा के अधिकारों को सीमित कर दिया गया। सम्राट अपनी इच्छा के आधार पर किसी भी कानून को अवैध घोषित नहीं कर सकता था।

 

1. लोगों की इच्छा के विपरीत सम्राट कोई भी कार्य नहीं कर सकता था। सम्राट पर प्रत्येक प्रकार के प्रतिबंध लगाये जा सकते थे। वह बिना लोगों की स्वीकृति के कर न लगा सकता था और न कानून पास कर सकता था, अर्थात् यह निश्चित कर दिया कि वैधानिक प्रभुता न राजा की और न पार्लियामेंट को, किन्तु वास्तविक अर्थ में प्रभुता दोनों की है।

 

2. पार्लियामेंट की अवधि तीन वर्ष के लिए निश्चित हो गई। यह ट्रीनियल ऐक्ट के पास होने के पश्चात् सम्भव हो गया। इस पार्लियामेंट का प्रभुत्व अब देश के समस्त महत्वपूर्ण अंगों – पर होने लगा। इसका तात्पर्य यह था कि सम्राट को अनिश्चित काल तक के लिए पार्लियामेंट को अपने अधीन कार्य करने के अधिकार से वंचित कर दिया।

 

3. ऐक्ट ऑफ सेटिलमेंट द्वारा यह निश्चित कर दिया गया कि कैथोलिक धर्मावलम्बियों अथवा इससे सम्बन्ध रखनेवाले व्यक्तियों से शासन करने का अधिकार छीन लिया गया। इस धर्म पर गहरा आघात कैथोलिक शासकों की समाप्ति के कारण हुआ। अब इस मत को राष्ट्रीय मत की महत्ता न दी जा सकती थी और न विवशतापूर्वक किसी को यह मत मानने के हेतु बाध्य ही किया जा सकता था। कैथोलिकों ने प्रोटेस्टेन्ट से पराजय पाई थी।

 

4. सन् 1689 में पार्लियामेंट ने ‘Toletrition Act’ पास किया। इस ऐक्ट के अनुसार देश की प्रजा को अपनी इच्छानुसार धर्म-पालन का अधिकार प्राप्त हो गया। किन्तु जो लोग पोप के मत के अनुयायी थे उन्हें यह धार्मिक स्वतन्त्रता न दी गई। क्योंकि उनका धर्म विदेशी था। इस प्रकार एक महान् समस्या का समाधान सम्भव हो सका जिसने ट्यूडर स्टूअर्ट शासकों को परेशानी

 

में डाल रखा था।

 

5. गौरवपूर्ण क्रान्ति के पूर्व प्रेस पर काफी नियन्त्रण था, इस प्रतिबन्धों के कारण जनता की आवाज सम्राट तक न पहुँच सकती थी। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि जनता की आवाज काल की कठोरता में समा गई थी। यह प्रतिबन्ध विलियम ने आते ही समाप्त कर दिया। कुछ दिनों के पश्चात् इंगलैंड का प्रेस एक महत्वपूर्ण राजनैतिक प्रेस समझा जाने लगा। प्रेस जनमत एकत्र करने का एक उपयुक्त साधन है। आज भी इसका योगदान राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर है।

 

6. इस प्रकार गौरवपूर्ण क्रान्ति के अनेक सुधार किए। इन सुधारों से न्यायाधीश भी वचि नहीं हुए। न्यायाधीशों ने सम्राट की अधीनता से मुक्ति पाई। इसके पूर्व न्यायाधीशों का स्वतन अस्तित्व न था। उन्हें सम्राट की इच्छा पर निर्भर रहना पड़ता था। उनकी नियुक्ति तथा निलम्बि करने का अधिकार सम्राट के हाथ में था।

 

15. कोल्बर्ट

 

लुई चौदहवाँ का योग्य वित्तमंत्री कोल्बर्ट था। कोल्बर्ट एक मध्यम वर्गीय परिवार का वह एक स्वामिभक्त मंत्री साबित हुआ। वह बीस वर्षों तक अपने राजा, देश तथा अपने वार्ग हितों के लिए अथक परिश्रम करता रहा। वह प्रतिदिन 16 घंटे कार्य करता था। उसके सा अर्थशास्त्री एवं स्वामिभक्त मंत्री मिलना लुई चौदहवाँ का सौभाग्य था।

16. सप्तवर्षीय युद्ध

 

सप्तवर्षीय युद्ध (1756-1763) ने अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम को अवश्यम्भावी बना दिया। इसमें एक ओर इंगलैंड तथा प्रशा थे और दूसरी ओर आस्ट्रिया, फ्रांस, रूस, स्वीडन एवं सेवाय थे। यह युद्ध 7 वर्ष तक लड़े जाने के पश्चात् 1763 में पेरिस की संधि के साथ समाप्त हुआ।

 

इस युद्ध के दौरान चार स्थानों, अर्थात् यूरोप, अमेरिका, भारतवर्ष और समुद्री जगहों में युद्ध हुए थे। सप्तवर्षीय युद्ध का अन्त होते ही अमेरिका में फ्रांसीसी संकट का अन्त हो गया। इस समय कनाडा और लुईसियानी में फ्रांसीसी उपनिवेश थे। उन्हें निरन्तर फ्रांस का भय बना रहता था। भय का निवारण करने हेतु वे इंगलैण्ड की सहायता पर आश्रित थे। वस्तुतः वे अकेले फ्रांस का विरोध नहीं कर सकते थे। सप्तवर्षीय युद्ध में इंगलैंड को सफलता मिली तथा फ्रांस की घोर पराजय हुई। उसके अमेरिकी उपनिवेशों पर इंगलैंड का अधिकार हो गया। इस प्रकार उत्तरी अमेरिकी से फ्रांस का भय पूर्णतया समाप्त हो गया। वे अब इंगलैंड के विरूद्ध युद्ध करने को तैयार हो गये, दूसरे सप्तवर्षीय युद्ध संचालन के लिए बहुत-सी चीजों की मांग बढ़ गई। इससे किसान और मजदूर भी लाभान्वित हुए। उपनिवेशों की आर्थिक व्यवस्था में दृढ़ता आई किन्तु युद्ध का अन्त होते ही कारोबार में मन्दी आ गयी। इसके कारण लोगों में निराशा और असंतोष की आग भड़क उठी। उधर इंगलैण्ड ने उन पर टैक्स लगाने का प्रयत्न किया। परिणामतः उपनिवेशवासियों की क्रोधाग्नि भड़क उठी।

17. नेपोलियन बोनापार्ट

 

सन् 1799 ई० से 1814 ई० तक यूरोप का इतिहास फ्रांस का इतिहास है और इस काल का फ्रांसीसी इतिहास एक व्यक्ति की जीवनी है। वह व्यक्ति है “नेपोलियन बोनापार्ट।” लगभग 15 वर्षों तक यूरोप के इतिहास पर नेपोलियन का प्रभाव इतना प्रवल रहा कि इस युग को ‘नेपोलियन का युग’ कहा जाता है।

 

15 अगस्त 1769 को कोशिका द्वीप में नेपोलियन बोनापार्ट का जन्म हुआ। उसके माता-पिता इटालियन जाति के थे। कार्लो बोनापार्ट, उसके पिता एवं वकील थे। दस वर्ष की अवस्था में उसे फ्रांस के एक सैनिक स्कूल में प्रवेश दिया गया। फ्रांस से उसने फ्रांसीसी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। इस स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने वाले अधिकांश विद्यार्थी उच्च एवं कुलीन परिवारों के थे और वे प्रायः नेपोलियन की निर्धनता की हँसी उड़ाते थे जिसके कारण वह दुखी रहा करता था। उसने किसी प्रकार वहाँ अपनी शिक्षा समाप्त कर ली, परन्तु अब उसके सम्मुख एक और समस्या थी। उसे ज्ञात था कि उस समय उसकी योग्यता का कोई मूल्य नहीं। सभी स्थानों एवं उच्च पदों पर कुलीन एवं उच्च वर्ग के लड़कों की नियुक्ति की जाती थी और योग्यता का कोई ध्यान नहीं रखा जाता था।

 

क्रांति के काल में वह जैकोवियन दल का सदस्य बन गया अतः शनैः शनैः उसकी सैनिक प्रतिभा का प्रदर्शन होने लगा। डाइरेक्टरी के काल में ही उसकी वास्तविक उन्नति संभव हो सकी।

 

उसने जिस योग्यता तथा कठोरता से विद्रोहियों का दमन किया उसने उसके विरोधियों को भी आश्चर्यचकित कर दिया। जिस समय पेरिस की अनियंत्रित भीड़ ने कन्वेन्शन पर आक्रमण किया तो बोदां ने कन्वेन्शन का भार नेपोलियन को सौंपा और उसने निर्दयता के साथ भीड़ (Mob) की शक्ति को समाप्त कर दिया। उसकी सैनिक योग्यता की दृष्टि में रखते हुए उसके कार्यों से प्रसन्न होकर उसे फ्रांस की सम्पूर्ण आन्तरिक सेना (Army of the Interior) का सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया। नेपोलियन ने इस प्रकार अपनी वीरता तथा योग्यता का परिचय देते हुए अपनी सेना का हृदयेश्वर बन गया।

 

18. क्या फ्रांस की क्रान्ति अनिवार्य श्री ?

 

हमारी सम्मति में फ्रांस की राज्य क्रान्ति अनिवार्य न थी। उसे टाला जा सकता था, यदि लुई सोलहवां योग्य होता। वह एक अयोग्य शासक था। उसमें उन सभी गुणों का अभाव था. जो एक योग्य शासक में होने चाहिए। प्रो० रॉवर्टसन के मतानुसार, “लुई आलसी, मन्दबुद्धि वाला स्वार्थी तथा मनोरंजन में लगा रहने वाला फ्रांस का अन्तिम राजा था।”

 

आर्थिक दशा विशेष रूप से खराब हो चुकी थी, जिससे फ्रांस का दिवाला निकल गय था। ऐसी अवस्था के कारण पूर्ण फ्रांस में असन्तोष की भावना जागृत होने लगी, उस समा यदि लुई सोलहवां हिम्मत से काम लेता और सब पर समान रूप से करों का भार डाल देता सम्भव था कि फ्रांस की बिगडी हई आर्थिक दशा सुधर जाती और राजा को भी जनता सहानुभूति प्राप्त हो जाती, फ्रांस की आर्थिक दशा सुधर जाने से क्रान्ति की सम्भावना समा हो सकती थी।

 

यद्यपि लई सोलहवां देश में सुधार करना तथा शासन के दोषों को दूर करना चाहता परन्तु अस्थिर स्वभाव का होने के नाते वह शीघ्र ही दसरों के कहने में आकर अपनी नीति देता था। हर समय उसके पास कृपा पात्रों की भीड लगी रहती थी|

19. मान्टेस्क्यू (Montesquieu)

 

मान्टेस्क्यू एक प्रसिद्ध वकील था। वह इतिहास का विद्वान और समाज-शास्त्र का गम्भीर विद्वान था। उसकी लेखन शैली तीखी और चुभने वाली थी। उसके लेख काल्पनिक नहीं अपितु गम्भीर विचारों के परिणाम थे। उसके लेख नम्र भाषा में होते थे। उसने एक दार्शनिकता का आन्दोलन चलाया और आलोचना की सहायता लेकर प्राचीन शासन प्रणाली पर इतनी तीव्रता से प्रहार किया कि शासन की नींव हिल गई।

 

मान्टेस्क्यू ने बीस साल के परिश्रम के बाद सन् 1748 में अपनी पुस्तक प्रकाशित कराई जिसका नाम ‘कानून की आत्मा’ (The Spirit of Laws) रखा। इस पुस्तक में मान्टेस्क्यू ने राजा के दैवी अधिकारों का विरोध किया और जनता को सूचित किया कि राजा ईश्वर का बनाया हुआ नहीं है। उसे तो जनता ने ही चुन कर राज सिंहासन पर बैठाया है। अतः राजा का प्रमुख कर्त्तव्य अपनी जनता की सेवा करना होना चाहिए। उसने जनता को यह भी बताया कि शासन शक्ति तीन विभागों में विभाजित की जानी चाहिये; व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। राज्य की समस्त शक्ति एक ही व्यक्ति के हाथ में रहने से जनता सदा कष्टों में पड़ी रहती है इसलिए राज्य की सम्पूर्ण शक्ति को तीन विभागों में बांटकर शक्तियों का संचालन विभिन्न व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए। उसने फ्रांस में वैध राज सत्ता स्थापित करने पर जोर दिया।

 

20. रूसो (Rousseau)

 

रूसो ने अपनी पुस्तक “सामाजिक समझौता” (Social Contract) में लिखा है कि “मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र पैदा हुआ है परन्तु वह दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। कुछ व्यक्तियों ने अपनी शक्ति द्वारा स्वयं को

 

मालिक और शेष को दास समझ लिया है।” रूसो ने इन बुराइयों को दूर करने के उपाय बतलाते हुए लिखा है कि यह समस्या दूर हो सकती है जब जन साधारण की इच्छा को सर्वोपरि समझा जाये और देश के समस्त नियम जनता की इच्छाओं के अनुसार ही बने। यदि राजा अयोग्य, अत्याचारी और जनता की इच्छाओं को अम्वीकृत करने वाला हो तो जनता को चाहिये कि वह उसे हटाकर किसी अन्य व्यक्ति को राजा बनाये।

 

21. वाल्टेलर (Voltaire)

 

अनाचार की आलोचना तीसरा महापुरुष वाल्टेयर था। उसने गद्य, पद्य, इतिहास, नाटकों तथा उपन्यासों के द्वारा देश के अत्याचारों की आलोचना की। उसने बताया कि नवयुग की स्थापना प्राचीन राजतन्त्र तथा उससे सम्बन्धित विषय संस्थाओं पर ही रखी जा सकती है। उसने धार्मिक प्रणालियों की कठोर आलोचना की और पादरियों के बिलासिता. से भरे हुए जीवन का भण्डा फोड़ किया। इस प्रकार फ्रांसीसी दार्शनिकों ने अपने नवीन विचारों से सोती हुई जनता को जगाया और उसके मन में शताब्दियों का जमा हुआ सामन्तों, कुलीनों तथा उच्च पादरियों का प्रभाव समाप्त किया। जनता राज्य के हर काम में भाग लेने लगी तथा आलोचना करने लगी।

24. मानवतावाद

 

मानवतावाद प्रबोधन युग की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। इस काल में मानव के सम्मान, स्वतंत्रता एवं बेहतर भविष्य आदि पर विशेष रूप से बल दिया गया। रूसो ने सामाजिक सुधार पर बल दिया। उसकी प्रसिद्ध उक्ति थी, “मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न हुआ है परन्तु हर कहीं वह जंजीरों में जकड़ा हुआ है” अमेरिका का थामस जेफरसन ने घोषणा की कि “मैंने ईश्वर की वेदी पर शपथ खायी है कि मानव मस्तिष्क पर किसी भी प्रकार के उत्पीड़न का अंतिम दम तक विरोध करूँगा।” एडम स्मिथ ने मानव की गतिविधियों में सरकार की अहस्तक्षेप की नीति का समर्थन किया। लॉक ने मनुष्य के जीवन, स्वतंत्रता एवं निजी सम्पत्ति आदि अधिकारों की वकालत की। बेथम ने वैधानिक सुधार तथा काण्ट ने नैतिक प्रगति पर बल दिया। विचारकों का कहना था कि सुधारों के फलस्वरूप ही मनुष्य सम्पन्नता एवं पूर्णता प्राप्त करेगा तथा पृथ्वी पर स्वर्ग खड़ा होगा। प्रबोधन-युग में न केवल मनुष्य बल्कि प्रकृति के अन्य प्राणियों के प्रति भी संवेदनशीलता बढ़ी। दास-प्रथा की निंदा की गयी तथा अपराधियों के साथ मानवीय व्यवहार अपनाने को कहा गया। 1774 ई० में अमेरिका के फिलाडेल्फिया में दास प्रथा विरोधी समिति कायम की गयी। निर्धन बच्चों की शिक्षा के लिए अनेक विद्यालय खोले गये।

 

25. मध्ययुगीन यूरोप में वाणिज्यीकरण

 

प्रारंभिक मध्यकालीन यूरोप में व्यापार एवं वाणिज्य साप्ताहिक बाजारों (मेला) के माध्यम से होता था। इन मेलों में ग्राहकों और छोटे दुकानदारों को लुभाने के लिए दिन भर की उपभोक्ता वस्तुओं की पूरी रेंज रखी गई थी।

 

प्रमुख संपत्ति मालिकों, शहर के अधिकारियों और कुछ चचर्चों और मठों द्वारा बाजारों और मेलों का आयोजन किया गया, जिनका उद्देश्य स्टॉलधारक शुल्क से नकदी एकत्र करना और ग्राहकों को सहायक सेवाओं का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करके स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना था।

 

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार रोमन काल से अस्तित्व में था, लेकिन 9वीं शताब्दी ई०पू० से परिवहन और वित्त में प्रगति के साथ-साथ उत्तरी यूरोप की आर्थिक समृद्धि ने तेजी से उत्पादन किया। क्रुसेड्स के कारण विनीशियन ने बीजान्टिन साम्राज्य और लेवांत में अपने व्यापारिक हितों

 

का विस्तार किया, और नए वित्तीय तंत्र उभरे जिसने मामूली निवेशकों को भी समुद्र और जमीन से यूरोप को पार करने वाले व्यापार अभियानों को निधि (धन) देने की अनुमति दी।

 

26. नेपोलियन का उत्कर्ष

 

कोर्सिका द्वीप के एक मामूली परिवार में उत्पन्न नेपोलियन बोनापार्ट का फ्रांस की राजनीति में उत्कर्ष यूरोपीय इतिहास की एक बहुत बड़ी घटना थी।

 

Original question paper 

क. 1. यूरोप में सामन्तवाद के पतन के क्या कारण थे? (व्हाट वर द कॉज्स ऑफ़ डिक्लाइन ऑफ़ फेउदलिज्म इन यूरोप ?)

 

अंस. 13वीं शताब्दी में यूरोप में मध्यकाल को चरमोत्कर्ष माना जाता है, किन्तु इसी शताब्दी के अंतिम वर्षों में कुछ ऐसी नवीन प्रगतिशील शक्तियों का उदय हो रहा था जो मध्यकालीन व्यवस्था के पतन और एक नए युग के आगमन का संकेत दे रही थी। 14वीं और 15वीं शताब्दी अंशतः मध्यकालीन और अंशतः आधुनिक साबित हुई। हम इन दोनों शताब्दियों में कुछ विशिष्ट मध्यकालीन संस्थाओं, जैसे बड़े-बड़े साम्राज्य, विश्वव्यापी धर्म, गिल्डों के एकाधिकार, मैनोरियल व्यवस्था और रूढ़िवाद को पतन के गर्त में गिरते देखते है। लगभग हर स्थिति में मध्यकालीन संस्थाएँ नवजाग्रत प्रगतिशील शक्तियों को नियंत्रित करने या रोकने में सफल नहीं रही। मध्यकालीन व्यवस्था के केन्द्र में सामंतवादी व्यवस्था थी और इसका पतन संपूर्ण मध्यकालीन व्यवस्था के पतन की व्याख्या करता है।

 

1. सामंतों का आपसी संघर्ष सामंत प्रथा की एक बड़ी कमजोरी यह थी कि सामंत बराबर आपस में लड़ते रहते थे। इस कारण उनका धन-जन का स्वाहा होता चला गया। दो सौ वर्षों के धर्मयुद्ध में बहुत सारे सामंत मारे गए। इस युद्ध का अंत होते-होते इंगलैंड और फ्रांस के सामंतों के बीच लड़ाई छिड़ गई, जो एक सौ वर्षों के लंबे अरसे तक चली। इसमें भी अनेक सामंत मारे गए। फिर 15वीं सदी में इंगलैंड के ‘गुलाबों के युद्ध’ से भी वहाँ के सामंत वर्ग को बड़ी क्षति पहुँची। यह बड़ा भीषण युद्ध था, क्योंकि इसके द्वारा प्रतिद्वन्द्वी सामंतों के दल इंगलैंड के शासन-तंत्र को अपनी-अपनी मुठ्ठी में लाना चाहते थे। एक ओर आपस में लड़ कर उन्होंने अपनी शक्ति बर्बाद की तो दूसरी ओर उन्होंने राजाओं को सामंती मामलों में हस्तक्षेप करने का मौका दिया। इस सामंती युद्धों के कारण यूरोप में हिंसा, अव्यवस्था और उपद्रव का वातावरण पैदा हुआ। फलतः सामान्य लोगों में सामंतों के प्रति घृणा और ऊब की भावना पैदा हुई। इसी परिवेश में कानून और व्यवस्था के संस्थापक के रूप में शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। फलतः राष्ट्रीय राज्य के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ।

 

2. किसान विद्रोह- सामंतवाद के पतन का एक प्रमुख कारण किसानों का विद्रोह था। सामंती शोषण के कारण किसानों में भयंकर असंतोष था और जब-तब कम्पनियों के विद्रोह होते रहते थे। किन्तु, चौदहवीं सदी में इन विद्रोहों ने बड़ा भयंकर रूप धारण किया। 1348 ई० के करीब यूरोप में भीषण महामारी फैली। यह महामारी रूस और एशिया माइनर से लेकर इंगलैंड तक फैल गयी। मिस्त्र, उत्तरी अफ्रीका और मध्य एशिया में भी यह महामारी पैली और वहाँ से पूरब की तरु बढ़ गयी। इसको ‘काली मौत’ कहते हैं। यूरोप में लाखों लोग इससे मर गए। इसके कारण फ्रांस, हालैण्ड, बेलजियम तथा जर्मनी की संख्या का एक तिहाई भाग से लेकर आधा भाग तक खत्म हो गया। जमीन जोतने के लिए काफी आदमी नहीं रह गए और जन-बल की कमी के कारण, खासकर इंगलैंड में, किसानों की मजदूरी बढ़ने लगी। किन्तु इंगलैंड की सरकार अब भी सामंतों के हाथ में थी, इसलिए उन्होंने ‘मजदूर कानून’ के अनुसार उनकी मजदूरी निश्चित कर दी और अब वे उससे ज्यादा नहीं भाँग सकते थे। इसके खिलाफ 1381 ई० में वाट टाइलर नेतृत्व में किसानों का बहुत बड़ा विद्रोह हुआ। उनकी प्रमुख आर्थिक मांगे थी

 

Q. 3. पुनर्जागरण से आप क्या समझते हैं ? यूरोप में पुनर्जागरण की प्रकृति एवं कारणों का वर्णन करें।

 

(What do you mean by Renaissance? Discuss its nature and causes.)

 

Ans. पुनर्जागरण आधुनिक यूरोपीय इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है। पुनर्जागरण का शब्दिक अर्थ है “फिर से जागना”। पुनर्जागरण की लहर मनुष्य के वैयक्तिक-सामाजिक सम्पूर्ण क्षेत्र में परिष्कार और नवसंस्कार का अग्रदूत बनकर आई। इससे व्यक्ति को नवज्ञान, नवचेतना, जीवन को सौन्दर्यमय एवं कलात्मक बनाने की प्रेरणा प्राप्त हुई। मनुष्य के बौद्धिक जीवन ने पुनः एक बार जीवन को उस स्वर्णिम कल्पना की ओर बंध जाना चाहा जिसे यूनानियों और रोम वालों पेरिक्लीज और आगस्तस के स्वर्णिम युग में बिताया था। इतिहासकार स्वेन (Swain) के शब्दों “पुनर्जागरण एक समुच्चय शब्द है जो उन सारे बौद्धिक परिवर्तनों को इंगित करता है जो त्र्य युग के अंत और आधुनिक युग के आगमन के समय परिलक्षित होते हैं।”

 

पुनर्जागरण के निम्नांकित कारण प्रमुख थे –

 

1. सामन्तवाद का ह्रास : किसानों, कलाकारों, व्यापारियों तथा साधारण जनता को मध्य

 

में सामन्ती प्रथा के कारण स्वतंत्र चिंतन का अवसर नहीं था। सामन्ती युद्धों के कारण वरण सदैव विषाक्त रहता था। परन्तु सामन्ती प्रथा के हास-स्वरूप सामान्य जन जीवन लित हो गया।

Q. 6. यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन के परिणामों (प्रभावों) का परीक्षण करें। (Examine the effects of Reformation Movement in Europe.)

 

Ans. यूरोप पर धर्म सुधार आन्दोलन ने स्थायी और सुदूरगामी प्रभाव डाले। धर्म सुधार आन्दोलन ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन को काफी प्रभावित किया। संक्षेप में, धर्म सुधार आन्दोलन के निम्नांकित परिणाम उल्लेखनीय हैं :

 

1. सामाजिक परिणाम कैथोलिकों एवं प्रोटेस्टेण्टों में श्रेष्ठता प्रमाणित करने की होड़

 

थी। इसलिए दोनों सम्प्रदायों में आचरण की शुद्धता और नैतिकता का प्रादुर्भाव हुआ। प्यूरिटनवाद नैतिक नियमों के पालन पर ही आधरित था। धर्मिक विधि-विधानों के बदले आचरण की पवित्रता पर जोर दिया जाने लगा। इससे अनेक अंध-विश्वास टूट गये। किन्तु, धर्मसुधार आन्दोलन का एक सामाजिक दुष्परिणाम यह हुआ कि अनेक देशों में गरीबी और बेकारी की समस्या उत्पन्न हो गयी। पहले बहुत से लोग गिरजों और मठों में जीवन निर्वाह करते थे। परन्तु अब यह सम्मव नहीं था। कठोर प्यूरिटनवाद के कारण वहुतों का जीवन नीरस वन गया था और घार्मिक छुट्टियों उत्सवों तथा तीर्थ यात्राओं पर प्रतिबंध लगने से सामाजिक विविधता में कमी आ गई थी।

 

2. धर्मिक परिणाम : यूरोप के ईसाई देशों की एकता धर्मसुधार आन्दोलन के फलस्वरूप नष्ट हो गई। सम्पूर्ण ईसाई जगत शब्द अर्थहीन हो गया। इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड, उत्तरी जर्मनी डेनमार्क, नावें, स्वीडेन, नीदरलैण्ड के कुछ भाग रोमन चर्च से अलग हो गए। पोप की सत्ता के स्थान पर बाइबिल की सत्ता कायम हुई। धर्मशास्त्र का अध्ययन किया जाने लगा। अब चर्च को आज्ञा के औचित्य पर विचार किया जाने लगा। फलस्वरूप, विचार-स्वतंत्र निर्णय को प्रोत्साहन मिला। धर्मिक सहिष्णुता और वैयक्तिक नैतिकता का उदय हुआ। ईसाई सम्प्रदाय कई भागों में बँट गया। लूथर ने जिस धर्म को चलाया, वह लूथेरयिन कहलायी। ज्विंगली ने ज्विंगली सम्प्रदाय एवं काल्विन ने प्रेसविटेरियन सम्पद्राय को जन्म दिया।

 

3. राजनीतिक परिणाम राष्ट्रीयता की भावना को धर्मसुधार आन्दोलन ने काफी आगे बढ़ाया। राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना जिन देशों में हुई थी, वहाँ यह प्रयुक्त किया गया कि राजे देश में सर्वभौम रहें। उनके राजनीतिक या धर्मिक मामलों में पोप दखल नहीं डाले। 1555 ई० की ऑग्सवर्ग-संधि द्वारा यह निर्णय हुआ कि राजा अपने इच्छानुकुल अपने राज्य में धर्म स्थापित कर सकते हैं। केवल फ्रांस और स्पेन को छोड़ कर यूरोप के अधिकांश देशों में प्रोटेस्टेण्ट धर्म की स्थापना हुई। कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट के बीच धर्म के नाम पर युद्ध हुआ जिसे तीस वर्षीय युद्ध (1618-48) कहते हैं। जर्मनी इस युद्ध का केन्द्र था।

 

4. आर्थिक परिणाम: यूरोप की अर्थव्यवस्था पर भी धर्म सुधार आन्दोलन ने अत्यधिक गहरा प्रभाव डाला। रोमन चर्च ने सूदखोरी को अधार्मिक और अनैतिक बताया था। फलतः पूंजी का संचय इससे नहीं हो पाता था। वाणिज्य-व्यवसाय तथा व्यापार को काफी धक्का इससे पहुंचता था। प्रोटेस्टेण्ट सम्प्रदाय ने इसे कानूनी घोषित किया। इससे पूंजीपतियों को अप्रत्याशित लाभ मिला

Q. 8. तीस वर्षीय युद्ध के कारण एवं परिणामों का विवेचन कीजिए।

 

(Describe the causes and effects of Thirty years of war.)

 

Ans. सन् 1618 से 1648 तक कैथोलिकों और प्रोटेस्टेटों के बीच युद्धों की जो श्रृंखला चली थी उसे ही साधारणतया तीस वर्षीय युद्ध कहा जाता है। इसका आरम्भ बोहेमिया के राज सिंहासन पर पैलेटाइन के इलेक्टर फ्रेडरिक के दावे से हुआ और अन्त वेस्टफेलिया की संधि से। धार्मिक युद्ध होते हुए भी राजनीतिक झगड़े उलझे हुए थे।

 

तीस वर्षीय युद्ध की शुरूआत बोहेमिया में 1618 ई० में हुई। धीरे-धीरे युद्ध सारे जर्मनी में फैल गया और 1648 ई० तक चला। सारे पश्चिमी यूरोप के शासक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसमें शामिल हो गए। कभी युद्ध का स्वरूप धार्मिक रहा तो कभी राजनीतिक, कभी दोनों विभिन्न देशों ने अलग-अलग समय पर विशेष रूप से युद्ध में हस्तक्षेप किया। इसीलिए इस युद्ध को चार कालों में विभाजित किया जाता है – बोहेमियन (1618-1625), डेनिस (1625-29), स्वेडिस (1630-35), और स्वेडिस-प्रफेंच (1635-48)1

 

तीस वर्षीय युद्ध का तात्कालिक कारण था – पवित्र रोमन सम्राट मैथियस द्वारा बोहेमिया में अपनी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास किया। हैप्सबर्ग वंश लगभग एक शताब्दी से बोहेमिया का अधिपति था, लेकिन बोहेमिया के चेक निवासी अभी तक अपने राजा द्वारा ही शासित हो रहे थे। 1618 ई० में जब बोहेमिया की गद्दी खाली हुई तो मैथियस ने अपने एक सम्बन्धी स्टीरिया के ड्यूक फर्डीनेन्ड को यहाँ का राजा बनाने का षडयंत्र किया। उसने बोहेमियन डायट को फर्डीनेन्ड का राजा बनाने के लिए बाध्य किया। चेक नेताओं ने इसका विरोध किये। बोहेमिया में लूथरवाद की स्थापना हो चुकी थी। सम्राट फर्डीनेंड ने जब प्रोटेस्टेंट लोगों की सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया तो उन्होंने खुला विद्रोह करने का निर्णय कर लिया।

Q. 10. 16वीं सदी के दौरान यूरोप में राष्ट्रीय राज्यों के उदय का विवरण दीजिए। (Describe the rise of Nation states in Europe during the 16th Century.) अथवा, यूरोपीय पुरानी राजव्यवस्था की क्या खामियाँ थीं ?

 

(What were the shortcomings of European old political systems?)

 

Ans. यूरोपीय राष्ट्रीय राज्यों का उदय (उत्थान) तथा विकास 16वीं शताब्दी के प्रारम्म में हुआ जिसके निम्नांकित कारण प्रमुख माने जाते हैं :-

 

1. धर्मयुद्ध : इस्लाम और ईसाई धर्मावलम्बियों के मध्य लडे गए धर्मयुद्धों ने पश्चिम जगत को प्राचीन राजत्व के सिद्धान्तों से परिचित किया। व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन मिल के फलस्वरूप मध्यम वर्ग का जन्म हुआ जो राष्ट्रीय राजाओं को शक्तिशाली देखना चाहता धर्मयुद्धों ने पुरोहितों तथा सामन्तों का ध्यान घरेल समस्याओं से हटा कर लाभप्रद विदेशी व्याप की ओर आकृष्ट किया। इससे राष्ट्रीय राजाओं को युद्ध-प्रिय सामन्तों से छुटकारा मिला और अपने राज्य में शान्ति-व्यवस्था कायम रखने तथा व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहित करने में गए। धर्मयुद्धों में कुछ सामन्त मारे गए और कुछ निकट पर्व की ओर प्रस्थान कर गए।

Q. 13. इंग्लैंड में ट्यूडर राजाओं की निरंकुशता की समीक्षा कीजिए। (Review the absolute desposism of Tudor kings in England.)

 

Ans. अनियंत्रित निरंकुशता ट्यूडर राजतंत्र की एक बहुत बड़ी विशेषता है। प्रायः ट्यूडर वंश के सभी शासक निरंकुश थे। अतः उनका शासन निरंकुशता या अधिनायकतंत्र (Dictatorship) कहलाता है। 1485 ई. में जब इंग्लैण्ड में ट्यूडर वंश का राज्य शुरू हुआ तो उस समय सबल राजतंत्र की स्थापना को प्रोत्साहन मिला। ट्यूडर वंश की निरंकुशता के निम्नांकित कारण प्रमुख थे-

 

1. विरोधी पक्ष की कमजोरी मध्य युग में सामन्तवाद और चर्च दो शक्तिशाली संस्थाएँ थीं, राजतंत्र के साथ इनकी प्रतियोगिता थी। ये राज्य के अंदर राज्यस्वरूप थी। सामन्त और पादरी ही राजाओं का समय-समय पर विरोध करते रहते थे। परन्तु ट्यूडर वंश की स्थापना के समय तक इनके भी बुरे दिन आ गए थे और इनकी कमर टूटती जा रही थी। गुलाबों के युद्ध में बहुतेरे सामन्त मारे गए, बहुतेरे लड़ते-लड़ते थक गए और कितने अपनी जमीन जायदाद बेच कर गरीब वन गए। बचे हुए सामन्तों की शक्ति को कुचल देने के लिए हेनरी सप्तम ने कोई कसर उठा नहीं रखी। उन्हें निजी सैनिकों को रखने से रोक दिया और उससे न्याय के अधिकार छीन लिए।

 

2. वैधानिक प्रयोग की असफलता 15वीं सदी में लंकास्टर वंश के समय में वैधानिक शासन का प्रयोग किया गया था जिसके अन्तर्गत वास्तविक्र शक्ति राजा के हाथ से निकल कर संसद के हाथ आ गयी थी। यानी संसद बहुत शक्तिशाली थी और कार्यपालिका (राजा) कमजोर थी। परन्तु, इस वैधानिक प्रयोग का परिणाम बहुत ही बुरा हुआ। इसका अंत गृहयुद्ध और अराजकता में हुआ। शासन का अभाव हो गया। संसद के हाथ में शक्ति थी परन्तु, उत्तरदायित्व नहीं था। अतः वाणिज्य व्यापार चौपट होने लगा और नागरिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। अराजक स्थिति से निजात पाने हेतु एक शक्तिशाली कार्यपालिका की आवश्यकता थी। जब हेनरी सप्तम ने राज्य में शांति एवं स्थिरता लायी तो सभी लोगों ने उसका समर्थन किया। मैरियट के शब्दों में “देश की संकटपूर्ण व्यवस्था को सुधारने के लिए ट्यूडर शासकों के निरंकुश शासन के अलावा अन्य कोई उपाय सम्भव नहीं था।”

 

3. बारूद एवं बन्दूक पर अधिकार- बारूद, बन्दूक एवं तोपों पर राजाओं ने अपना

 

अधिकार कायम किया। इनके समक्ष सामन्तों के किले और अन्य अस्त्र-शस्त्र सभी बेकार सिद्ध हुए। लोग राजाओं से डरने लगे। इससे विद्रोह को दबाना भी सुगम हो गया। इस प्रकार, राजाओं की शक्ति में अपार वृद्धि हो गयी।

 

4.. पर्याप्त धन

 

ट्यूडर राजाओं ने अपने कोष को भरा रखने का भरपूर प्रयत्न किया। एतदर्थ उन्होंने उचित एवं अनुचित वैध एवं अवैध सभी उपायों को काम में लाया।

 

Q. 14. इंग्लैंड में हुए गृह युद्ध के कारण एवं परिणामों की विवेचना कीजिए। (Describe the causes and effects of Civil War in England.)

 

Ans. चार वर्षों (1642-46) तक इंगलैंड के राजा चार्ल्स प्रथम और उनके संसद के बीच चलने वाले झगड़े प्रथम गृह युद्ध के नाम से जाना जाता है। मध्यकालीन इंगलैंड के इतिहास में गृहयुद्ध का अत्यन्त व्यापक महत्त्व है, जिसे हम महान क्रांति की संज्ञा भी दे सकते हैं। गृह युद्ध ने इंगलैंड के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक वातावरण में एक व्यापक परिवर्तन ला दिया। वस्तुतः इंगलैंड का गृह युद्ध जनता की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए नहीं लड़ा गया था। इसका वास्तविक कारण चार्ल्स प्रथम द्वारा संसद के अधिकारों को नष्ट करके जनता की नागरिक स्वतंत्रता को पैरों तले कुचलना था। उसने इंगलैंड के संविधान के मौलिक सिद्धांतों की अवहेलना की। उसने प्रजा पर अत्याचार करने की भरपूर कोशिश भी की। अतः प्रजा अपनी स्वतंत्रता और धार्मिक विश्वासों की रक्षा के लिए राजा के विरुद्ध विद्रोह करने को विवश हो गई।

 

गृह युद्ध का तात्कालिक कारण चार्ल्स प्रथम द्वारा पिम व अन्य सहयोगियों को बन्दी बनाने का असफल प्रयत्न किया जाना और सैनिक कानून पास करना था। राजा द्वारा सैन्य नियंत्रण न छोड़े जाने के कारण दोनों पक्षों में शत्रुता बढ़ती चली गई जो अन्ततः गृह युद्ध का मूलभूत कारण सिद्ध हुआ। इसके अतिरिक्त पिम और चार्ल्स प्रथम दोनों के व्यक्तित्व भी गृह युद्ध के लिए उत्तरदायी थे। प्रत्येक पक्ष एक दूसरे को सदैव नीचा दिखाने एवं प्रहार करने के लिए तत्पर रही थे। ऐसी स्थिति में गृहयुद्ध अवश्यम्भावी हो गया था।

 

गृह युद्ध के कारण (Causes of the Civil war)

 

इतिहासकारों के मध्य गृह युद्ध के कारणों के प्रश्न पर मतैक्य नहीं है। कुछ इतिहासकार्य का मत है कि गृह युद्ध एक धार्मिक एवं राजनीतिक संघर्ष था। वस्तुतः यह धर्म की आड राजनीतिक और वैधानिक स्वतंत्रता का संघर्ष का मूल कारण सम्प्रभु शक्ति के अस्तित्व का था वास्तविक सम्प्रभुता राजा में निहित रहे या राजा और संसद दोनों में सम्मिलित रूप से रहे यह मूल प्रश्न था। इतिहासकार रास का मत है कि इंगलैंड का गृह युद्ध जनता की स्वतंत्रता की के लिए नहीं लड़ा गया था। यद्यपि राजा के विपक्ष में इंगलैंड का काफी प्रभावशाली वर्ग तथापि यह कहना अनुचित होगा कि इंगलैंड की प्रजा ने निरंकुश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किय था |

गृह युद्ध के परिणाम (Effects of Civil War)

 

गृह युद्ध में संसद की विजय हुई और चार्ल्स प्रथम को फाँसी के तख्ते पर झुलना पड़ा। चार्ल्स प्रथम की हत्या के बाद इंगलैंड में संवैधानिक विकास का मार्ग साफ हो गया। उसकी हत्या के साथ ही देश से निरंकुश राजतंत्र की इतिश्री हो गयी। लेकिन यह उल्लेखनीय है कि गृह युद्ध अपने सर्व प्रमुख उद्देश्य की पूर्ति में सफल न हो सका। गृह युद्ध के बाद भी इंगलैंड में शान्ति और सुरक्षा की व्यवस्था लागू न की जा सकी। राजा की हत्या का क्रॉमवेल ने ‘क्रूर आवश्यकता’ की संज्ञा दी। राजा की हत्या के बाद सैनिक अधिनायकवाद का नया दौर प्रारम्भहुआ और स्थानीय सरकार (Local Self Government) की समस्या उत्पन्न हो गयी। फलस्वरूप इंगलैंड में ‘Common wealth’ सरकार की स्थापना हुई। इस सरकार के अन्तर्गत लॉर्डस सभा तथा राजतंत्र को समाप्त कर उसकी जगह State Council नामक एक प्रशासनिक संस्था की स्थापना की गई। राजा की हत्या के कारण देश में राजा के प्रति लोगों की श्रद्धा बढी और बहुत से लोग राजतंत्र को समाप्त कर उसकी जगह State Council नामक एक प्रशासनिक संस्था की स्थापना की गई। राजा की हत्या के कारण देश में राजा के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ी और बहुत से लोग राजतंत्र के समर्थक हो गये। अतः 1660 ई० में इंगलैंड में राजतंत्र पुनः स्थापित हई।

 

15. 17वीं सदी में स्टुअर्ट राजाओं का उनकी संसद के साथ संघर्ष के कारणों का वर्णन करें।

 

(Discuss the causes of conflict between Stuart Kings and their Parliament in 17th Century.)

 

अथवा, जेम्स प्रथम का अपनी संसद के साथ सम्बन्धों का विवेचन करें। (Discuss the relation between Jems 1ª and his parliament.)

 

Ans. 1603 में ट्यूडर वंश की अंतिम शासिका एलिजाबेथ महान् जब मृत्युशय्या पर पड़ी हुई थी तब उसने अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्कॉटलैंड के जेम्स छठे की ओर इंगित किया। लेकिन ऐसा करने के समय वह यह जानती थी कि यह उत्तराधिकारी एक ऐसी शासन-व्यवस्था की शुरूआत करेगा जो इंगलैंड के संवैधानिक इतिहास में राजा और संसद के बीच संघर्ष के नाटक की पृष्ठभूमि तैयार करेगा।

 

जेम्स प्रथम एलिजाबेथ का उत्तराधिकारी हुआ। लेकिन जेम्स प्रथम को प्रारम्भ में ही एक ऐसे तूफान का सामना करना पड़ा जिसका अन्त बहुत ही लम्बे अर्से तक चलता रहा। चुनाव के प्रश्न को लेकर जेम्स और उसकी, संसद के बीच झगड़ा प्रारम्भ हो गया।

 

संसद द्वारा नये चुनाव की घोषणा के अनुसार बकिंघम शहर ने गोडविन नामक कानून को बहिष्कृत कर अपना प्रतिनिधि चुन लिया। परन्तु राजा ने इस चुनाव को रद्द किया तथा एक दूसरे व्यक्ति को उसकी जगह मनोनीत कर दिया। लेकिन इस समस्या का अंत यही नहीं हुआ। संसद ने इसका विरोध किया और जब उसकी बैठक शुरू हुई तो संसद ने गोडविन को संसद में बैठने की अनुमति दे दी। जेम्स ने इसका विरोध करते हुए यह घोषणा की कि संसद को जो भी अधिकार प्राप्त है उसका श्रोत चूँकि राजा है इसलिए उन अधिकारों के आधार पर राजा का विरोध नहीं होना चाहिये। उसकी इसी प्रतिक्रिया में संसदों ने लिखकर Form of Apology’ राजा के. समक्ष पेश किया कि हमलोगों की स्वतंत्रता एवं अधिकार हमारी जमीन और जायदाद की तरह जन्मसिद्ध अधिकार है। अतः जेम्स ने क्रूद्ध होकर संसद को शासन के प्रमुख कामों में दखल डालने से मना किया। लेकिन संसद भी डटी रही। अन्त में राजा को झुकना पड़ा। इस तरह राजा के एकाधिकार पर यह पहला कुठाराघात था। एक इतिहासकार ने बड़ा ही अच्छा लिखा है कि “इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद ने संसद के प्रथम चरण में ही विजय पा ली।”

 

चुनाव के प्रश्न के अतिरिक्त टैक्स लगाने के प्रश्न को लेकर भी स्टुअर्ट राजा और संसद का झगडा हो गया। वास्तव में उस समय देश की आर्थिक स्थिति ही कुछ ऐसी थी कि जेम्स की जगह कोई दूसरा भी राजा होता तो उसे भी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता।

 

प्रशासन में व्यापक विस्तार से राजा की आर्थिक स्थिति पहले से अधिक खराब हो रह थी। हालाँकि संसद ने राजा को टेनेज और ‘प्राउण्डेज’ को वसूल करने का अधिकार सौंप दिय लेकिन राजा का इससे काम चलने वाला नहीं था। अतएव दो तीन वर्षों के बाद ही चीजों निश्चित से अधिक ‘टेनेज’ और प्राउण्डेज’ वसूल किया गया। 1606 में ‘John Bet’ ने किसमि लगाये कर को देने से इन्कार कर दिया।

 

 

 

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