BA 3rd Sem Psychology MJC 3 Original Question paper 2023-27 | CBCS UG 3rd Sem Psychology MJC/MDC/MIC 3 Guess Question Pepper 2025
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Original question paper
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CBCS UG 3rd Sem Psychology MJC/MDC/MIC 3 Guess Question Pepper 2025
UG 3rd Sem SEC 3 Communication in Professional life Original Questions Papper 2025
Confirm Subjective Questions Papper By Madhav sir
By Madhav sir प्रश्न 1. जीवन की शुरूआत कैसे होती है?
(How Life Begins.)
उत्तर-जीवन की शुरूआत गर्भाधान के समय होती है जब नारी की प्रजनन कोशिक अंडाणु (Ovum) एक पुरुष प्रजनन कोशिका शुक्राणु (spermatozoa) से मिल जाती है। ऐसा अवसर जन्म के ठीक 280 दिनों पूर्व आता है। जीवन की शुरूआत होने के पूर्व स्त्री एवं पुरुष दोनों की प्रजनन कोशकाएँ विभिन्न तैयारियाँ करती हैं। नारी प्रजनन कोशिका के संदर्भ में क्रियाएँ होती हैं-परिपक्वन, अंडाणु का बाहर आना तथा निषेचन जबकि पुरुष की प्रजनन कोशिकाएँ दो चरणों से गुजरती हैं-परिपक्वन एवं निषेचन, इन दोनों के मिलने से नये जीवन की शुरूआत एवं विकास का अध्ययन करने की अवस्था के पूर्व हमें स्त्री एवं पुरुष कोशिका के विषय में ज्ञान प्राप्त कर लेना अत्यावश्यक है-
अंडाणु की उत्पत्ति स्त्रियों के अंडाशय में होती है और वहीं इसका विकास होता है। सबसे बड़े अंडाणु की परिधि करीब 0.1 मिली मीटर की होती है। यह गोलाकार होता है। इसमें पीले रंग का पदार्थ (volk) होता है जो गर्भाधान के बाद उसका पोषण करता है। इसकी अपनी कोई गति नहीं होती बल्कि यह आस-पास के उत्तकों के क्रमाकुंचन के कारण कुछ गतिशील होता है अर्थात् उसकी गति उत्तकों के क्रमाकुंचन पर निर्भर करती है। अंडाशय में करीब 100 से कई हजार अंडे रहते हैं। सामान्यतया इसमें से कोई एक अंडाणु प्रायः 28 दिनों की अवधि में परिपक्व होकर मासिक चक्र के साथ ही बाहर निकल जाता है। प्रत्येक परिपक्व अंडाणु में 23 जोड़े क्रोमोजोम्स होते हैं।
“इसी प्रकार पुरुष प्रजनन कोशिका (spermatozoa) की अपनी अलग रचना होती है जिसका विकास (Testes) में होता है। ये अत्यंत सूक्ष्म होते हैं और इनका व्यास करीब 0.05 मिलीमीटर होता है। एक बहुत बढ़िया पूंछ जैसी रचना इनसे जुड़ी होती है। यह बाल के समान सूक्ष्म होती है। इसमें ल्वसा नहीं होता। ये बाल के समान पूँछ के सहारे घूमते रहते हैं। प्रत्येक चार एवं पाँच दिनों के अन्तराल में असंख्य शुक्राणुओं की वृद्धि होती है। प्रत्येक परिपक्व शुक्राणु में भी 23 जोड़े क्रोमोजोमस होते हैं जिसमें 22 जोड़े एक समान एवं एक जोड़ा विपरीत होता है।
प्रश्न 2. निषेचन से आप क्या सपड़ाते हैं?
(What do you understand by Fertilization?)
उत्तर-सामान्य रूप से निषेचन में एक अंडाणु जो पूरी तरह परिपक्व होता है, अंडवाहिणो नलिका द्वारा अंडाशय से गर्भाशय में ले जाया जाता है। संभोग के पश्चात शुक्राणु काफी बड़ो संख्या में गर्भाशय के मुँह पर पहुँच जाते हैं और अंडवाहिनी नलिका की ओर बढ़ने लगते हैं। तत्पश्चात् अंडाणु से निकलने वाले हार्मोन्स के आकर्षण के कारण शुक्राणु अंडाणु की तरफ खिचने लगते हैं। जब एक शुक्राणु अंडाणु में प्रविष्ट हो जाता है तो अंडाणु के उभार इस प्रकार बदल जाते हैं| जिससे दूसरे किसी शुक्राणु का प्रवेश उसमें नहीं हो पाता। इस प्रकार निषेचन को प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। जब शुक्राणु अंडाणु की सतह में अपना स्थान बना लेते हैं तव दोनों कोशिकाओं के न्युक्लिआई (nuclei) आपस में मिल जाते हैं ये न्यूक्लिआई (nuclei) एक प्रकार के शल्क (membrane) से घिरे होते हैं। मिलन के समय ये शल्क टूट जाते हैं और दोनों कोशिकाओं के न्युक्लिआई (nuclei) एक-दूसरे से मिल जाते हैं। नई कोशिका में इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष कोशिकाओं से आए 23 जोड़े क्रोमोजोम्स होते हैं।
बच्चे माता-पिता से इस प्रक्रिया के दौरान नयी आनुवंशिकता प्राप्त करते हैं। जीस के मिलने (gene combination) के दौरान वच्चा माता-पिता दोनों तरफ से आने वाले दादा-दादो या दूसरे तरफ की पिछली पीढ़ी से आ सकता है। अतः संभव है कि बच्चा अपने माता-पिता को तरह का न होकर दादा-दादी की तरह का पैदा होगा।
By Madhav sir प्रश्न 3. निषेचन के महत्त्व की विवेचना करें। (Discuss the importance of fertilization.)
उत्तर-मानत्र जीवन में निषेगन का बड़ा महत्व है। इसका कारण है इसके दौरान सम्पन्न होने चाली चार कियाएँ। कियाएँ बस्ने के भावी जीवन के विकास को प्रभावित करती हैं। बच्चे की आनुवंशिकता इसी क्रिया के दौरान अंडाणु एवं शुक्राणु के मिलने के समय निर्धारित होती है। बच्चे का यौन विभेद भी निषेमन के पश्मात् हो होता है। निषेचन के दौरान ही इस बात का निर्धारण होता है कि एक बार में कितने बच्चे होंगे। गर्भाधान के दौरान ही बच्चे के जन्म का कम निध रित होता है और इसका प्रभाव जीवन पर्यन्त उराकं व्यवहार एवं व्यक्तित्व पर पड़ता है। इन्हीं सारे कारण से निषेचन (fertilization) की क्रिया प्रत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है।
By Madhav sir प्रश्न 4. गर्भस्थ शिशु विकास की अवस्थाओं की विवेचना करें । (Discuss the periods in pre& natal develoment.)
उत्तर-किसी बच्चे का जन्म स्त्री और पुरुष के सम्भोग (Sexual intercourse) से होता है। पुरुष एवं स्त्री दोनों में एक प्रकार की कोशिका (cell) पायी जाती है और जब ये कोशिकाएँ आपस में मिलती हैं तो बच्चे का जन्म एक कोशिका के रूप में शुरू होता है। पुरुष में पाई जानेवालो कोशिका को शुक्राणु या चमतउंजव्रवद कहते हैं। स्त्री में पाई जाने वाली कोशिका को अंडाणु या Ovum कहते हैं। अंडाणु शुरू में बहुत ही छोटा एक आलपीन के सिर (head of a pin) के बरावर का होता है जिसमें एक न्यूक्लियस होता है जो चारों तरफ साइटोप्लाज्म नामक द्रव्य से घिरा रहता है। इस न्यूक्लियस में कुछ ऐसे आकार पाए जाते हैं जिन्हें क्रोमोजोम्स कहते हैं। क्रोमोजोम्स में पाए जानेवाले जीन बच्चे के वंशानुक्रम के भागी होते हैं। इसी जीन के द्वारा बच्चे माता-पिता या अपने पूर्वजों के गुण को प्राप्त करते हैं। प्रत्येक मनुष्य के न्युक्लियस में 48 कोमोजोम्स होते हैं जिसमें वह 24 अपनी माता से एवं 24 पिता से प्राप्त करता है। ये क्रोमोजोम्स सदा जोड़े में होते हैं। स्त्रियों में सिर्फ X क्रोमोजोम्स पाए जाते हैं एवं पुरुषों में XY दोनों क्रोमोजोम्स पाए जाते हैं। स्त्री एवं पुरुष के क्रोमोजोम्स के मिलने से लड़की तथा XY क्रोमोजोम्स के मिलने पर लड़का पैदा होता है। अतः भावी संतान के सेक्स निर्धारण में पुरुष की भूमिका होती है न कि स्त्री की।
स्त्री-पुरुष के शुक्राणु एवं अंडाणु के मिलने पर नया शिशु उत्पन्न होता है और तत्पश्चात् दच्चे के विकास की क्रिया प्रारंभ होती है। विकास शुरू होने की प्रथम अवस्था उत्पत्तिकाल (fertilization) है। इस उत्पत्ति काल से लेकर दो सप्ताह तक ही अवस्था को बोजावस्था (germinal period) कहते हैं। इस समय शिशु अंडे के आकार (egg like) के समान होता है। इस समय इसे बाहर से कोई पोषाहार नहीं मिलता तथापि इसकी आंतरिक बनावट में काफी अंतर आता है एवं कोशिकाओं का विभाजन (cell division). हांता रहता है। इस समय वह माँ के गर्भसे सटा नहीं बल्कि उसमें तैरता रहता है। उत्पत्ति काल (fertilization) के पन्द्रह दिनों के दौरान यह माँ के गर्भावस्था (uterus) की दीवारों से सट जाता है और पराश्रित होकर माँ द्वारा पोषण पाने लगता है।
आंतरिक विकास की दूसरी अवस्था भ्रूणावस्था (जैम मउइतलवदपय चमतपवक) है जो दूसरे सप्ताह के अंत से लेकर दो महीने तक चलती है। इस समय यद्यपि यह माता के रक्त से सम्बन्धित नहीं होता तथापि माँ द्वारा ही पोषण करता है। इस समय अत्यंत तीव्र गति से विकास होता है और इस दौरान भ्रूण (embryo) एक छोटे व्यक्ति का आकार ले लेता है। इस अवस्था में कोश समूह (cell mass) तीन परतों में पैंट जाती है। बाहरी परत (Ectoderm) से बाहरी त्वचा, बाल, नाखून, दाँत, ज्ञानात्मक कोष (मदेवतल वतहंदे वत बमससे) तथा सम्पूर्ण स्न्ययुमंडल (whole nervous system) का विकास होता है। बीच वालो परत को मेसोडर्म कहते हैं, जो चिया की भीतरी परत माँसपेशियाँ, परिचालन अंग एवं उत्सर्जन अंग के विकास के लिए उत्तरदायी है। सबसे भीतरी परत एंडोडर्म कहलाती है।
By Madhav sir प्रश्न 5. वृद्धि और विकास से आप क्या समझते हैं? (What do you understand by growth and development?)
उत्तर-वर्धन का अर्थ शारीरिक विकास है। व्यक्ति के शरीर के आकार, लम्बाई तथा वजन में होने वाले परिवर्तन को वर्धन कहते हैं। दास (Dash, 1998) के अनुसार, “प्राणी में होने वाले ऐसे जैविक परिवर्तन को वर्धन कहते हैं जिसका निरीक्षण किया जा सकता है तथा जिसको मात्रात्मक रूप में मापा जा सकता है।”
वर्धन का गहरा सम्बन्ध परिपक्वता (maturation) से है। सच तो यह है कि दोनों पर्यायवाची शब्द (synonymous terms) हैं। अनुवांशिकता (heredity) के प्रभाव के कारण प्राणी में जो जैविक परिवर्तन होता है, वही परिपक्वता या वर्धन कहलाता है। उदाहरण के लिए एक बालक के जैविक परिवर्तन पर ध्यान दिया जा सकता है। जैसे-जैसे बालक की उम्र बढ़ती जाती है, उसके शरीर की लम्बाई, उसके आकार तथा उसके वजन में वर्धन होता जाता है।
विकास एक काफी व्यापक शब्द है। इस शब्द से एक ओर प्राणी के ऐसे परिवर्तनों का बोध होता है जिनका मात्रात्मक मापन सम्भव होता है और दूसरी ओर ऐसे परिवर्तनों का भी बोध होता है जिनका मात्रात्मक मापन सम्भव नहीं होता। रेबर (Reber, 1995) के अनुसार, “किसी प्राणी के पूर्ण जीवन विस्तार में होनेवाले परिवर्तनों के क्रम को विकास कहते हैं।”
इसी तरह पीयरी लण्डन (Peary London) के अनुसार, “विकास का अर्थ है गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक जीवन के पूर्ण अनुक्रम है।”
इस अर्थ में गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों की गणना विकास के अन्तर्गत की जाती है। शारीरिक विकास, मानसिक विकास, सामाजिक विकास, नैतिक विकास आदि के अनुक्रमों का अध्ययन विकास के क्षेत्र में किया जाता है। सभी प्राणियों में विकास का अनुक्रम समान नहीं होता है। जैसे दूध देने वाले पशुओं में अन्य पशुओं की अपेक्षा विकास की रफ्तार मन्द होती है। इसी तरह मानव में विकास की रफ्तार सबसे अधिक मन्द होती है। इसी तरह पशुओं की अपेक्षा मानव बच्चों में विकास की अवधि सबसे अधिक लम्बी होती है। संस्कृति भिन्नता (cultural difference) के कारण विकास का अनुक्रम (sequence) में भिन्नता उत्पन्न हो सकती है।
प्रश्न 6. गर्भावस्था की विशेषताओं की विवेचना करें । (Discuss the Characteristics of Prenatal development.)
उत्तर-गर्भावस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं जिनका अध्ययन गर्भावस्था में होने वाले विकास एवं परिवर्तनों को जानने के लिए अत्यंत जरूरी है-
1. हेरिडिटरी इन्डोवमेंट (Hereditary Endowment) गर्भावस्था में ही (Hereditary endowment) हेरिडीटरी इन्डोवमेंट निश्चित हो जाता है। न सिर्फ शारीरिक एवं मानसिक अभिवृत्तियाँ बल्कि साथ-साथ वच्चे का यौन विभेद भी नियत हो जाता है।
2. तीव्र प्रौढ़ता एवं विकास (Rapid Growth and Development)- जीवन को किसी अवस्था की अपेक्षा इस अवस्था में अत्यंत तीव्र गति से विकास होता है। गर्भावस्था के 9 महीने के अंतराल में शिशु एक सूक्ष्म कोशिका से बढ़कर वजन में 7 पाउंड एवं लम्बाई में 20″ का हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस अवधि में शिशु का वजन ।। मीलियन गुना बढ़ जाता है।
प्रश्न 7. गर्भावस्था के वैज्ञानिक पक्ष की विवेचना करें। (Discuss the scientific aspects of prenatal development.)
उत्तर-गर्भावस्था के विषय में विभिन्न अनुमान लगाए जाते रहे हैं। इतिहास से पूर्व एवं प्रारंभिक इतिहास में ऐसा माना जाता रहा है कि संभोग (sexual intercourse) का बच्चे के जन्म से सम्बन्ध नहीं है। इसके फलस्वरूप बच्चे के जन्म की व्याख्या करने के लिए विविध सिद्धान्तों की उत्पत्ति हुई ।
दूसरी ओर ग्रीक के दार्शनिकों एवं चिकित्सा शास्त्रियों का कहना था कि संभोग को परिणति बच्चे के जन्म में होती है। यद्यपि वास्तव में यह कहना कठिन है कि नई जिंदगी का प्रारम्भ कैसे होता है। उन्होंने अंत में यह निष्कर्ष दिया कि औरत धरती के समान है जिसमें पुरुष बीज डालता है। सत्रहवीं शताब्दी तक निषेचन (fertilization) में औरत की भूमिका को महत्त्व नहीं दिया जाता था। बाद में डच के चिकित्सक ने बताया कि औरत निषेचन के लिए एक अंडाणु की उत्पत्ति करती है। कुछ वर्षों के बाद वान ल्युवेनहॉक (Van Luvenhock) ने बताया कि एक छोटा जीव जिसे हम शुक्राणु कहते हैं, पुरुष के वीर्य में पाया जाता है। धीरे-धीरे नये जीवन के विकास के सम्बन्ध में लोगों ने रूचि लेनी शुरू की और नये क्षेत्रों में खोज शुरू हुई। इन क्षेत्रों में प्रथम क्षेत्र था कि बच्चे के भविष्य के विषय में वातावरण का क्या महत्त्व है, दूसरे गर्भावस्था की स्थितियों का विकास पर किस तरह प्रभाव पड़ता है और तीसरा कि बच्चे का यौन विभेद कैसे और किसके द्वारा नियंत्रित होता है। चौथे अध्ययन में यह बात सोची गई कि एक से ज्यादा जन्म लेने वाले बच्चों का विकास कैसे होता है। किस प्रकार प्रभावशाली व्यक्तियों की अभिवृत्तियाँ बाल-विकास को प्रभावित करती है और बच्चे का व्यक्तिगत एवं सामाजिक अभियोजन को वे कैसे प्रभावित करते हैं। इन विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों के बावजूद जन्मपूर्व होने वाले विकास के विषय में सम्पूर्ण जानकारी का दावा नहीं किया जा सकता। जन्मपूर्व विकास को प्रभावित करने वाले कारकों के विषय में चिकित्सा विज्ञान पूरी जानकारी अभी नहीं दे पाया है। माताओं द्वारा गभांवस्था के दौरान की गई नशीली दवाओं का बच्चे के विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है, अभी भी इस विषय पर गहन अध्ययन करने की जरूरत है।
By Madhav sir प्रश्न 8. गर्भस्थ शिशु के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना करें। (Discuss the factors influencing pre-natal development.)
उत्तर-गर्भस्थ शिशु के विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-
1. भोजन (Food)- गर्भावस्था में बच्चे का विकास अत्यंत तीव्र गति से होता है। इस अवस्था में बच्चा भोजन हेतु पूर्णरूपेण माता पर निर्भर होता है। अंतः गर्भावस्था में माता का भोजन संतुलित एवं पौष्टिक होना चाहिए। गर्भस्थ शिशु को कोशिका निर्माण एवं वृद्धि हेतु प्रोटीन (Protein), शक्ति के लिए कार्बोहाइड्रेट, वसा और जीवन रक्षक कार्यों के लिए विटामिन एवं लवण की जरूरत होती है। माता के भोजन में यदि इन सबकी कमी होती है, तो बच्चे का समुचित विकास नहीं हो पाता। कालान्तर में यह कई तरह की बीमारियों का शिकार हो जाता है। अतः बच्चे के सम्पूर्ण विकास के लिए माता को अपने आहार पर काफी ध्यान देना जरूरी है।
2. यीमारी (Diseases)- माता का स्वास्थ्य भी गर्भस्थ शिशु को प्रभावित करने वाला एक कारक है। विशेष तौर पर संसर्गजनित एवं यौन रोग गर्भ को बहुत प्रभावित करते हैं।
By Madhav sir प्रश्न 9. नवजात शिशु के संवेदनात्मक विकास की विवेचना करें।
(Discuss the Sensory development of the neonate.)
उत्तर-जय बच्चा उत्पन्न होता है, तो उसमें उसे समय शक्ति और क्रियाओं की संख्या सीमित रहती है। यद्यपि अनेक मनोवैज्ञानिकों ने यह माना है कि गर्भस्थ शिशु में भी कई प्रकार की क्रियाओं की संख्या में वृद्धि होती है। गर्भ में बच्चा सीमित वातावरण में रहता है किन्तु जन्म के बाद उसे असीमित वातावरण में आकर अनेक क्रियाएँ सीखनी पड़ती है। जन्म के समय वह विल्कुल असहाय एवं अपनी प्रत्येक जरूरत के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। जैसे-जैसे उसकी उम्र में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे वह आत्मनिर्भर होता चला जाता है।
नवजात शिशुओं की विभिन्न शक्तियों के विषय में मनोवैज्ञानिकों की अनेक विचार-धाराएं हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है शिशु एवं बड़े एक समान होते हैं क्योंकि शिशु बड़े व्यक्ति की परछाई होता है। उसमें यड़ों की सभी प्रतिक्रियाएँ अपूर्ण रूप से विद्यमान होती है किन्तु यह विचारधारा कई कारणों से अमान्य है। दूसरी विचार-धारा के अनुसार नवजात शिशु सहज क्रियाओं (Reflex actions) का पुंजमात्र है। अतः उसमें सरल एवं जटिल क्रियाओं को करने की क्षमता रहती है। परन्तु व्यवहारवादियों को यह मत अमान्य है। तीसरे पक्ष का कहना है कि शिशु पहले सामान्य क्रियाएँ करना सीखते हैं और बाद में विशिष्ट क्रियाएँ। यही सिद्धान्त बहुसंख्यकों के लिए मान्य है।
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने नवजात शिशु की ज्ञानात्मक क्षमता की परीक्षा की है किन्तु सबमें मतैक्य नहीं है और कौन-कौन सी ज्ञानात्मक क्षमताएँ है, उनका पता लगाना भी कठिन है। संवेदना सम्बन्धी अध्ययन अन्तर्निरीक्षण विधि (introspective method) द्वारा होता है, जिसका प्रयोग शिशुओं पर नहीं किया जा सकता। इसके विषय में जितने भी प्रयोग किए गए है, उनमें शिशुओं की संवेदनशीलता (Sensitiveness) का पता उनकी ज्ञानेन्द्रिया के उत्तेजित किए जाने पर उनके द्वारा की गई शारीरिक प्रतिक्रिया (motor response) के आधार पर ही लगाया जाता है। अर्थात् उपयुक्त उत्तेजना से ज्ञानेन्द्रिय-विशेष को उत्तेजित किए जाने पर जव शिशु में कोई शारीरिक क्रिया होती है तो पता चलता है कि शिशु में उस उत्तेजना विशेष को ग्रहण करने की क्षमता है या नहीं। शिशु की ज्ञानेन्द्रियाँ जन्म या उसके थोड़े समय के बाद कार्य करने लगती हैं किन्तु वे वयस्कों के समान नहीं होती। अन्य उत्तेजनाओं की अपेक्षा स्पर्श उत्तेजना के प्रति बच्चा ज्यादा सक्रिय प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है। पिटर्सन एवं रेनी (Peterson and Rainey) ने अपने अध्ययन में बताया है कि 7 महीने के बाद जन्म लेनेवाले बच्चे विभिन्न ज्ञानात्मक उत्तेजनाओं के प्रति 9 महीने के बाद जन्म लेनेवालों बच्चों के समान ही प्रतिक्रिया काते हैं। पाइयर (Peiper) ने भी इस बात की संघर्षर किया है कि बरने में जन्म के पूर्व ही संवेदनशीलता वर्तमान रहती है।
प्रश्न 10. नवजात शिशु के क्रियात्मक विकास की विवेचना करें। (Discuss the motor development of neonate.)
Ans -नवजात शिशु में कुछ क्रियात्मक योग्यताएँ (Motor capacities) रहती है। प्रारम्भमें शिशु अपने सम्पूर्ण शरीर में किसी उत्तेजना के प्रति प्रतिक्रिया करता है। उस समय वह मात्र उतनी ही किया कर पाता है जितना कि जीवन रक्षा के लिए आवश्यक हैं। वह अपनी मारी जहारों के लिए दूसरों पर ही निर्भर रहता है। उसे जहाँ रखा जाय, वहीं रहता है क्योंकि उस समय इसके विभिन्न अंगों को माँसपेशियों का विकास नहीं हुआ रहता। वह सिर्फ सहज क्रियाएँ reflex actions ही कर पाता है। थोड़े शब्दों में हम यह कह गकते हैं कि किमी उत्तेजना में उत्तेजित होने पर उसके प्रतिकार के लिए जो तात्कालिक (immediate), स्नायविक (muscular) अथवा देशिक (glandular) प्रतिक्रिया होती है, उसे सहज क्रियाएँ या (reflex action) कहते हैं। इन्हें हम अपने अनुभव से नहीं सीखते, बल्कि इसकी योग्यता जन्मजात होती है। पलक गिराना, आँसू गिराना, खाँसना आदि सहज क्रियाएँ हैं। इन सबमें कुछ सहज क्रियाएँ बाह्य उतेजना के कारण होतो है और कुछ आंतरिक उत्तेजना (internal stimulus) के कारण होती है। सहज क्रियाएँ अत्यंत सरल स्वरूप को होती है। इसपर व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता क्योंकि जिस समय यह किया होती है, उस समय इसका ज्ञान जीव को नहीं होता। छींकने, खाँसने या खुतल्गने आदि की क्रिया का ज्ञान जोव को बाद में हो जाता है किन्तु पलकों के घटने बढ्ने आदि की क्रिया का ज्ञान जीन को बिल्कुल ही नहीं होता। बहुत-सी सहज क्रियाएँ जीवन भर बनी रहती है और कुछ शैशवावस्था में ही खत्म हो जाती है। ये क्रियाएँ सदैव एकरूप (uniform) होती है क्योंकि इनके होने का ढंग सदैव एक ही होता है एवं तत्काल प्रतिक्रिया होती है। जैसे आँख के आगे हाथ आने पर सहज ही आँखें बंद हो जाती हैं और शीघ्र ही समाप्त भी हो जाती हैं। कोई चीज नाक में पड़ने पर छींकने के माथ ही यह क्रिया भी तुरन्त हो सम्पन्न हो जाती है। इस कार्य हेतु कोई विशेष अंग ही क्रियाशील होता है, पूरा अंग नहीं। अतः मनोवैज्ञानिकों ने इस स्थानीय (local) भी कहा है।
प्रश्न 11. सहज क्रियाओं के प्रकार की विवेचना करें। (Discuss the types of reflexation.) उत्तर-नवजात शिशु में कई प्रकार की सहज कियाएँ स्वतः होती हैं-
1. पलक प्रत्यावर्तन (Pupilary Reflex)- सभी सामान्य मनुष्यों में पलक-प्रत्यावर्तन को क्रिया होती है। अपनी इसी क्रिया द्वारा व्यक्ति अंधकार एवं प्रकाश में अपनी आँखों को पुतली को अभियांजित कर पाता है। कम प्रकाश में पुतलियाँ नड़ी एवं अधिक प्रकाश में छोटी हो कम प्रकाश को पुतलियों एवं रेटिना पर पड़ने देती हैं। यद्यपि नवजात शिशुओं में इसका परीक्षण अत्यंत कठिन होता है। शेरभन का कहना है कि जन्म के समय शिशु में यह सहज क्रिया नहीं पाई जाती पर पांच-छः घंटे बाद यह क्रिया विकसित हो जाती है। तैतीस (33) घंटों के बच्चों में यह प्रतिक्रिया निश्चित और स्पष्ट दिखती है।
2. स्नायु प्रत्यावर्तन (Tendon Reflex) मांसपेशियों से आवद्ध स्नायुओं के थपथपाने से माँसपेशी में जो संकुचन होता है, उसे स्नायु सहज क्रिया (tendon reflex) काहते हैं। जैसे घुटना झटकारने की उत्तेजना घुटने की चक्की के ठीक नीचे उससे आबद्ध स्नायु के थपथपाने के कारण होती है। यह प्रतिक्रिया जांघ के सामने वालो माँसपेशों के संकुचन के कारण होती है। यदि किसी तरह की रूकावट न हो, तो इस समय पैर झटकारने को क्रिया स्वतः होती है। स्नायु प्रत्यावर्तन क्रिया का एक दूसरा उदाहरण है एचिल स्नायु सहज क्रिया (achilles reflex) जिसकी उत्पनि पैर की एड़ी के टोक ऊपर स्थित एचिल स्नायु के थपथपाने से होती है। इसी प्रकार द्विमूल (hcep-reflex) तथा त्रिमूल (Tricep Reflex) सहज क्रियाएँ भी होती है जो द्विमुख (biceps) तथा त्रिमूल पेशियों के संकुचन के कारण होतो है।
प्रश्न 12. क्रियात्पक विकास की विशेषताओं की विवेचना करें । (Discuss the charcterestics of motor development.)
उत्तर-बच्चों के क्रियात्मक विकास की विशेषता है इसका क्रमानुसार होना। जन्म के सम बच्चे पराश्रित रहते हैं किन्तु कालक्रम में अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ उनमें तरह-तरह व ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक (sensory and motor) शक्तियों का आर्विभाव एवं विकास होता जिससे बाद में वे आत्मनिर्भर हो जाते हैं। इसी के द्वारा उनका बौद्धिक एवं सामाजिक विकास हो। है। प्रत्येक व्यक्ति कार्य करने में सक्षम हो पाता है। यह एक निश्चित प्रणाली (definite pattem का अनुसरण करता है जो सभी बच्चों में करीब-करीब एक ही उम्र में होता है। यह विकास-क दो तरह की विधियों का अनुसरण करता है-
(i) मस्तकाधोमुखी विकास-क्रम (Cephalocandal development) इसे सिर से पै की दिशा में होने वाला विकास क्रम भी कह सकते है। यह विकासात्मक दिशा का नियम (Lav of developmental direction) है जिसके अनुसार विकास सबसे पहले ऊपरी भाग यानि सि के भाग (Head region) में होता है, तब बाँहों और हाथों में (arms and hands), फिर घा (trunk) और सबसे अंत में पैरों (legs) का विकास होता है।
(ii) निकट दूर का विकास क्रम (Proximo-distal development) – मस्तकाधोमुखं विकास क्रम के बाद विकास का दूसरा क्रम निकट दूर का विकास क्रम (proximo-dista sequence) होता है, अर्थात् शिशु का क्रियात्गक विकास (motor development) उन अंगे में पहले होता है जो केन्द्र (Bodyaxis) के निकट रहते हैं और बाद में इससे दूर के अंगों व विकास होता है। उदाहरणस्वरूप विकास पहले पेट के आंतरिक अंगों में होता है। बाँह में विका होने के बाद ही हाथों एवं अंगुलियों का विकास होता है। जांघों का विकास होने के पश्चात् पै के ऊपरी हिस्सों एवं पैर के निचले हिस्से तथा अंगुलियों का विकास होता है।
प्रश्न 13. भय से क्या तात्पर्य है?
(What do you mean by Fear.)
उत्ता-भय को उत्पन्न करने वाली परिस्थिति शुरू से ही बदलती रहती है। शैशवाअवस्थ तथा प्रारंभिक बाल्यावस्था में अनोखी परिस्थिति के कारण भय के संवेग की उत्पत्ति होती है। अजनयी व्यक्ति एकाएक (Suddenly) बालक के समाने उपस्थित हो जाता है तो बालक के गंभीर भय का अनुभव होता है। वह जब कुछ बड़ा होता है तो वह अंधकार, अकेलापन, शारीरिक पीड़ा आदि के कारण उसमें भय का संवेग उत्पन्न होने लगता है।
भय के संवेग के विकास में परिपक्वता (manturation) के साथ-साथ अनुकूलन का भं हाथ होता है। इसके अलावा कई अन्य कारकों का प्रभाव भी भय के विकास पर पड़ता है। बच्चे अनुकरण के आधार पर भी किसी चीज से डरना सीख लेते हैं। स्मरण तथा कल्पना का हाथ भी भय के विकास में होता है। इसी तरह, भय यो विकास पर बच्चे के संज्ञान (cognitions) का प्रभाव पड़ता है। हेय (1949) ने भय के संवेग के विकास से सम्बन्धित अध्ययन वनमानुष पा किया और देखा कि भय की उत्पत्ति में संज्ञान का हाथ होता है।
प्रश्न 14. क्रोध से क्या आशय है? (What do you mean by anger.)
उत्तर-क्रोध (Anger) बच्चों में क्रोध की उत्पत्ति अक्सर कुण्ठा (frustration) उत्पन्न करने वाली परिस्थिति यः व्यवहार से होती है। यदि किसी बच्चे से खिलौना छीन लिया जाए तो वह कोध का अनुभव करता है। अध्ययनों से पता चलता है कि जब बच्चों की स्वतंत्रता में बाध । डाली जाती है तो उन्हें क्रोध का अनुभव होता है (फ्रान्स, 1959)। एनस्टैसी आदि (Anastasi et al: 1967) के अनुसार स्त्रियों को योजनाओं में बाधा पहुँचने पर उनमें क्रोध का संवेग उत्पन्न होता है। स्त्री तथा पुरुष की आत्म-अभिव्यक्ति (मर्सा मञ्चतमेपवद) में बाधा पहुँचने पर प्रायः उन्हें क्रोध की अनुभूति होती है। डीन (Dean, 1962) के अनुसार उम्र बढ़ने के साथ-साथ क्रोध की प्रवृत्ति घटती है।
कभी-कभी क्रोध की तीव्रता इतनी अधिक हो जाती है कि व्यक्ति मानो अंधा बन जाता है, और आक्रमणकारी व्यवहार (aggressive behaviour) करने लगता है। ऐसी अवस्था में कुछ समय के लिए कॉर्टेक्स (Cortex) का नियंत्रण ढीला पड़ जाता है। एस्कॉट (Scott, 1958) के अनुसार कॉर्टेक्स के नियंत्रण में क्षत्ति उत्पन्न होने पर व्यक्ति में विवेकहीनता (irrationality) तथा युद्धकारिता (belligerence) देखे जाते हैं।
By Madhav sir प्रश्न 15. प्रेम से क्या आशय है?
(What do you mean by love?)
उत्तर-प्रेम (Love) – प्रेम शब्द का व्यवहार व्यापक अर्थ में किया जाता है। किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान या क्रिया के प्रति जो हमारी पसन्द (liking) होती है, उसे प्रेम कहते हैं। इस अर्थ में प्रेम के बहुत से रूप होते हैं। मोटे तौर पर इसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:-
(i) अकामुक प्रेम (non-sexual love) तथा (ii) कामुक प्रेम (sexual love) 1 (i) अकामुक प्रेम के कई रूप हो सकते हैं। जैसे-माता-पिता का प्रेम अपने बच्चे से,
बच्चों का प्रेम अपने माता-पिता से, भाई-बहनों से, अपने मित्रों से, इत्यादि। इन सभी अकामुक प्रेमों के विकास का आधार परस्पर दया, उपकार, सहानुभूति, सहयोग, उदारता (generosity), आदि है। उम्र बढ़ने के साथ अन्य कारकों का प्रभाव भी पड़ने लगता है। मित्रों के बीच प्रेम के संवेग के विकास में अन्य कारकों के साथ-साथ समान क्रियाओं में भाग लेना तथा परस्पर कल्याण की भावना रखना भी शामिल है। यदि इस प्रकार की मित्रता लड़की तथा लड़के के बीच हो तो वह कामुक प्रेम में बदल सकता है, जैसा कि अक्सर हुआ करता है।
(ii) कामुक प्रेम में विपरीत लिंग (opposite sex) के सदस्यों में स्नेही व्यवहार पाया जाता है। सामान्यतः यह व्यवहार परस्पर (reciprocal) होता है। दोनों एक-दूसरे के प्रति स्नेह रखते हैं तथा प्रेम करते हैं। कामुक प्रेम विकास में उन सभी कारकों का हाथ होता है, जिनका जिक्र अकामुक प्रेम के सम्बन्ध में किया गया है। इनके अलावा आलिंगन (caressing), चुम्बन (kissing), आदि स्नेहपूर्ण व्यवहारों का भी बहुत बड़ा हाथ इस संवेग के विकास में रहता है। यंग (Young, 1943) के अनुसार, कामुक प्रेम का आधार शारीरिक तथा मानसिक आकर्षण है।. दूसरे शब्दों में यौन इच्छा (sex desire) का उत्तेजन (arousal) तथा यौन-क्रिया द्वारा उसकी
संतुष्टि कामुक प्रेम का वास्तविक आधार है।
प्रश्न 16. घृणा से आप क्या समझाते हैं?
(What do you mean by hate.)
उत्तर-घृणा (Hate) घृणा एक निषेधात्मक संवेग है। प्रेम-संवेग के विपरीत घृणा-संवेग होता है। साधारणतः नापसन्दगी (dislike) को घृणा कहते हैं। यदि कोई यह कहे कि उसे गाँस से नफरत है तो इसका अर्थ यह होगा कि वह मांस को नापसंद करता है। यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि नापमन्दगी वास्तव में पसन्द का अभाव नहीं है। पसन्द नहीं करना और नापसन्द करना, दोनों में अन्तर है। जहाँ तक घृणा के संवेग के विकास का प्रश्न है, |
प्रश्न 17. ईर्ष्या से क्या आशय है ? (What do you mean by Jealousy.)
उत्तर-डाह (Jealousy) – डाह या इंष्यां एक जटिल संवेग है, जिसमें चिन्ता तथा
आऊण की भावना रहती है। इसका आधार कामुक प्रेम या अकामुक प्रेरक हो सकता है। बच्चों में अकामुक प्रेरकों से डाह का संवेग उत्पन्न होता है। एक बच्चा दूसरे बच्चे के जन्म लेने पर डाह करने लगता है। बच्चा यह महसूस करता है कि माता-पिता का ध्यान या स्नेह जो पहले केवल उसी तक सीमित था अब दूसरे की ओर अधिक है। अब वह महसूस करने लगता है कि माता-पिता का प्यार छिनता जा रहा है और वे उसे उपेक्षा की नजर से देख रहे हैं। इसका कारण वह उसी नवजात शिशु (new born child) को मानता है और डाह के संवेग का अनुभव करने लगता है। इसी प्रकार छोटा बच्चा भी अपने बड़े भाई या वहन के प्रति ईष्यां का अनुभव करता है।
By Madhav sir प्रश्न 18. प्रथम वर्ष की सामाजिक प्रतिक्रियाओं की विवेचना करें । (Discuss the social responses in the first year of life.)
उत्तर-प्रथम वर्ष की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ (Social responses in the first year
of life) यों तो बच्चे की प्रारम्भिक प्रतिक्रियाओं का निश्चय रूप से वर्णन करना कठिन है किन्तु यह निश्चित है कि नवजात शिशु में कोई भी सामाजिक, प्रतिक्रिया नहीं होती। उस समय वह जो भी प्रतिक्रिया करते हैं, वे सहज प्रक्रियाएँ होती है, न कि सामाजिक। उस समय न तो उसकी ज्ञान-शक्ति विकसित होती है औन न ही शारीरिक शक्ति पर्याप्त मात्रा में होती है। उम्र में वृद्धि के साथ-साथ उसकी प्रतिक्रियाओं की संख्या में भी वृद्धि होती जाती है। उनकी उम्र के साथ-साथ उनके सम्पर्क का दायरा भी बढ़ता जाता है। वुहलर (Buhlar) ने बच्चों पर किए गए अपने प्रयोग में पाया कि वह जन्म के पहले, दूसरे महीने में अन्य बच्चों की अपेक्षा अपने खिलौनों में ही उलझा रहता है और यह अभिरूचि दो महीने के अंत तक बनी रहती है। जो लोग उसकी सेवा करते हैं, उन्हें यह पहचानता है। इस आयु में जब कोई बच्चे की ओर देखता है, तब वह मुस्कुरा देता है और स्पर्श पाकर बहुत शांत हो जाता है। दो से तीन महीने में बच्चा बड़ों को देखकर मुस्कुराने लगता है। जब उसको देखभाल करने वाले, जिन्हें वह पहचानने लगता है, उसके दूर जाने पर वह रोना शुरू कर देता है। जब उसके निकट कोई छाया होती है या कोई आवाज सुनता है, तो उसपर ध्यान लगकर सुनता है। वह क्रोधित आवाज एवं हंसी की आवाज में भेद नहीं कर सकता। कुछ बच्चे इसी कारण पुचकारने, डाँटने और हँसने आदि सभी की प्रतिक्रिया में हँसते हो हैं। किन्तु कुछ बच्चे भाव-भगिमा (facial expression) को समझते हैं। इसका कारण है कि वे
प्रत्येक बात को धनात्मक (positive) ही मानते हैं निषेधात्मक (negative) नहीं। बच्चे को देखकर खुश होता अब वह डाँटने हँसने एवं पुचकारने का अर्थ समझने लगता है। भीड उसे नहीं भाती। छः-साड महीने में बच्चा खेलने हेतु हाथों से मह को छिपाता है और एक ही खिलौने से बहुत देर तक खेलता है। आठ, नी या दस महीने का बच्चा शब्दों का उच्चारण करने लगता है और विभिन ध्वनियों का अनुकरण कर पाता है।
प्रश्न 19. पाठशालीय बच्चे के सामाजिक विकास की विवेचना करें। (Discuss the social development of child pre-school period.)
उत्तर-पूर्व पाठशालीय अवस्था को हम दो वर्ष से लेकर पाँच वर्ष तक मानते हैं, क्योंकि
इस समय बच्चा घर पर बढ़ता पलता है। किन्तु विदेशों में उसकी यह उम्र नर्सरी स्कूलों में बीतती है। दो साल की उम्र तक बच्चा आत्मकेन्द्रित होता है और सबका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता है। किन्तु 2-5 वर्ष की अवस्था में उसका सामाजिक विकास अत्यधिक तीव्र गति से होता है। मर्फी के अनुसार इस अवस्था में बच्चा समुदाय में रहकर अपने साथियों से सहानुभूति रखता है। किन्तु सभी बच्चों में इतनी उच्चकोटि के सामाजिक व्यवहार नहीं देखे जाते। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनमें तीन वर्ष की आयु में ही उन्नत सामाजिक विकास हो जाता है, अर्थात् सामाजिक विकास में भी वैयाक्तिक भिन्नताएँ होती हैं। इतना ही नहीं, सभी बच्चों के सामाजिक विकास की प्रगति एक समान नहीं होती। कभी-कभी उनका व्यवहार छोटे बच्चों के समान हो जाता है और उनमें गैर-सामाजिक व्यवहार विकसित हो जाते हैं। कुछ बच्चे दूसरों पर अपना प्रभुत्व (dominance) दिखाते हैं तो कुछ दूसरों की अधीनता आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु कुछ मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि यदि अधीनताप्रिय बच्चों को उचित प्रोत्साहन तथा निर्देशन दिया जाया, तो वे सामाजिक रूप से प्रभुत्व की प्रवृत्ति दिखा सकते हैं। मर्फी तथा न्यूकॉम्ब का विचार है कि 2 से 5 वर्षों के बीच बच्चे यड़े आज्ञाकारी हो जाते हैं। वे खेलने के लिए दूसरों का साथ चाहते हैं। किन्तु अधिक साथी नहीं चाहते। किसी एक साथी के ही संग वे खेलों में मग्न दिखते हैं। ढ़ाई से तीन वर्ष के बच्चे प्रायः अपने संरक्षकों की आज्ञा का उल्लंघन करते हैं और अपनी जिद्द पर अड़ जाते हैं। इस समय उसमें प्रतिरोध एवं निषेधात्मक प्रतिक्रियाओं (negative reactions) की अधि कता रहती है। जैसे-जैसे इसके अनुभवों में वृद्धि होती है, ऐसी प्रतिक्रियाओं में कमी आने लगती है एवं मैत्री तथा सामूहिक भावों (group feelings) की प्रधानता होती है। धीरे-धीरे सामाजिक उत्तरदायित्त्वों का ज्ञान हो जाता है और वह सही-गलत में विभेद करना जान जाता है। इस समय बच्चों की मैत्री बड़ी क्षणिक होती है। अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए वह होड़ लगा लेता है। अंतिम अवस्था में उनका आत्म-विश्वास बढ़ जाता है। किन्तु इसमें वैयक्तिक अंतर पाए जाते हैं और बाद में शिक्षा तथा वातावरण का उनके विकास पर प्रभाव पड़ता है।
प्रश्न 20. सामाजिक व्यवहार के रूप की विवेचना करें । (Discuss the forms of social behaviour.)
उत्तर-बच्चों में निम्नलिखित सामाजिक व्यवहार पाए जाते हैं-
1. अनुकरण (Imitation)- बच्चों के सामाजिक व्यवहारों का अध्ययन करने पर यह पाया जाता है कि जब बच्चे की रूचि अन्य वच्चों में होने लगती है तब वह उनके शब्दों एवं कार्यों का अनुकरण करने लगता है। किस तरह दूसरे बच्चे हँसते हैं या रोते हैं तथा किस सांवेगिक स्थिति में कैसा व्यवहार करते हैं, यह भी सीखने लगता है। इस तरह बच्दा, समुदाय के अनुकूल अपनी सांवेगिक अभिव्यक्ति (identification) करता है तथा उनके साथ एकरूपता स्थापित करने की कोशिश करता है।
2. प्रतिद्वचिद्धता (Rivalry)- दूसरों से आगे बढ़ने की इच्छा को प्रतिद्वन्द्विता कहते हैं, जो लगभग तीन वर्ष की आयु में ही बच्चों में पाई जाती है। किन्तु इसका प्रदर्शन विनाशात्मक (distructive) रूप में होता है। प्रायः दूसरों द्वारा उकसाने पर यह भावना उत्पन्न होती है। पाँच वर्ष की आयु के लगभग यह अत्यंत प्रभावपूर्ण मनोवृत्ति (dominant attitude) के रूप मे होता है |
प्रश्न 21. सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व की विवेचना करें।
(Discuss the factors affecting social development.)
उत्तर-बालक के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्त्व निम्नलिखित हैं-
1. स्वास्थ्य एवं मनोरंजन (Health and recreation) सामाजिक विकास में स्वास्थ् एवं मनोरंजन का ज्यादा स्थान होता है।
2. पारिवारिक वातावरण (Family environment)- परिवार बच्चे को प्रारम्भिा पाठशाला है जहाँ बच्चों को समाजीकरण सिखाया जाता है। बच्चे परिवार में ही सर्वप्रथम माँ-ब एवं अन्य सदस्यों के सम्पर्क में आते हैं और उसके प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। बाद में उत्सव पहचान का दायरा मित्रों तक फैलता है किन्तु बीजारोपण परिवार में ही होता है। परिवार में बच्चे ए अभिभावक या माता-पिता का सम्बन्ध बच्चे के समाजीकरण की नींव है।
3. सामाजिक व्यवस्था (Social order) सामाजिक व्यवस्था जिस प्रकार की रहजे उसी प्रकार बच्चे का सामाजिक व्यवहार भी होता है। आरम्भ में इन प्रक्रियाओं का असर ज्या नहीं पड़ता किन्तु उम्र की वृद्धि के अनुसार इसका असर बढ़ता जाता है। समाज के रीति-रिव (customs), धर्म, माध्यम (standard), संस्कृति (culture) आदि के अनुरूप ही बच्चे। प्रतिक्रिया करने का अवसर मिलता है और इन प्रक्रियाओं का जीवन में विशेष महत्त्व रहत।
4. पाठशाला का वातावरण (Environment of School)- पाठशालीय वातावरण। भी बच्चे के सामाजिक विकास पर प्रभाव पड़ता है जिसका हमारे यहाँ अभाव है। न हो अध्यापक बाल मनोविज्ञान का ध्यान रखते हैं और न तो बच्चों के साथ उचित सामाजिक सम्ब रख पाने में सफल होते हैं। फलतः बच्चों का सांवेगिक एवं सामाजिक विकास नहीं हो पाहार प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था है, जैसे नर्सरी स्कूल में, बच्चों का सामाजिक विकास बड़ी तेज होता है। वे खुद खुश व किसी चीज के छिन जाने पर दुःखी नहीं होते।
प्रश्न 22. सामाजिक विकास में खेल के महत्व की विवेचना करें। (Discuss the role of play in social developement.)
उत्तर-खेल तथा आनंद के साधन भी सामाजिक विकास में सहायक होते हैं। छोटे बच्चे पहले अन्य बच्चों के प्रति रूचि नहीं दिखाते, बल्कि सिर्फ अपने खिलौने से खेलना पसंद करते हैं। आयु वृद्धि के साथ-साथ वे दूसरे बच्चों के साथ खेलना पसंद करने लगता है। खेल के दौरान वह सहानुभूति, सहयोग नेतृत्व आदि करने की प्रवृत्ति सीखता है। अन्य वच्चों के साथ सम्पर्क में आने पर वह व्यवहारिक हो जाता है तथा सामाजिक मान्यता के अनुसार उसका व्यवहार हो जाता है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति एवं सक्रियता खेल के दौरान उनमें देखी जाती है। तैरना, वयस्कों के साथ खेलना, नाटक-मेले आदि में रूचि बच्चों के सामाजिक व्यवहारों को वृद्धि में सहायक होते हैं।
प्रश्न 23. सामजिक नियम से आप क्या समझते हैं ? (What do you understand by social rules.)
उत्तर-सामाजिक नियम (Social rules)- समाज में प्रचलित नियमों एवं प्रतिमानों का
प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। समाज के किसी भी समुदाय की जो प्रचलित रीतियाँ तथा आदर्श हैं, उन्हों के अनुसार बच्चों का व्यवहार निर्देशित होता है। वे घर तथा समुदाय की परिपाटी का अनुसरण करना सीखते हैं ताकि वे सामाजिक मान्यता प्राप्त कर सकें। जिन व्यवहारों तथा विचारों से समाज सहमत नहीं होता, बच्चे भी उनका विरोध करते हैं क्योंकि अमान्य व्यवहारों को सामाजिक मान्यता नहीं मिल सकती। सामाजिक प्राणी होने के कारण बच्चों की जीवन-शैली (life style) समाज के अनुकूल होती है और इसी शैली का प्रभाव उनके खेल तथा अन्य व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध पर पड़ता है। खेल में परिलक्षित व्यवहार (सामाजिक) से पता चल जाता है कि बच्चे का लालन-पालन किस परिवेश में हुआ है। बच्चों की सामाजिक मनोवृत्ति (social attitude) भी समाजिक मान्यता (Social approval) के अनकूल ही विकसित होती है।
प्रश्न 24. सामाजिक व्यवहार के अध्ययन की विधियों की विवेचना करें। (Discuss the methods of studying social behaviour.)
उत्तर-बच्चा के सामाजिक व्यवहारों का अध्ययन करने की कई विधियाँ हैं, किन्तु जितनी विधियों का आर्विभाव हुआ है, उनमें से एक भी अच्छी नहीं। यदि एक साथ कई विधियों को मिलाकर अध्ययन किया जाय तो अध्ययन सफल हो सकता है-
1. विशिष्ट जीवन वर्णन विधि (Biographical Method) – यह बाल-मन के सामाजिक व्यवहारों का अध्ययन करने की विधि है जिसमें माता-पिता या अविभावक बच्चे के जीवन का क्रमवद्ध अध्ययन करते हैं। इसी आधार पर अध्ययनकर्त्ता इस जीवन वर्णन का अध्ययन करते हैं। यद्यपि यह विधि-पूर्णरूपेण सही नहीं किन्तु इसने बच्चों के भावों एवं प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने की एक जमीन जरूर तैयार कर दी है।
2. प्रयोगात्मक विधि (Eñperimental Method) बच्चों के सामाजिक व्यवहारों का अध्ययन करने के लिए अब प्रयोगात्मक विधि का सहारा लिया जाता है। इसमें नियंत्रित परिस्थितियों में बाल-व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। किसी कथन की सत्यता जानने के लिए इस विधि का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है।
3. परीक्षण विधि (Testing Method) बच्चों के सामाजिक व्यवहारों के अध्ययन एवं अभियोजन की पूर्ण जानकारी के लिए मनोवैज्ञानिकों ने कई परीक्षण विधियों का निर्माण किया है। रोजर का एक परीक्षण है, कि उन्होंने एक बच्चे से अपने क्लास के एक शैतान या उदंड या विनम्र विद्यार्थी के विषय में सोचने के लिए कहा और उसने जो भी उत्तर दिया, उसी के आधार पर अध्ययनकर्ता को बच्चे के गुण-दोष, ख्यालों, आकांक्षाओं का पता चल जाता है।
प्रश्न 25. बालक के संवेगात्मक विकास की विवेचना करें । (Discuss the emotional development of child.)
उत्तर-बच्चों की संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं को मनोवैज्ञानिकों ने बहुत महत्त्व दिया है। आनंद,
दुःख, भय, घृणा, क्रोध तथा अन्य संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ बच्चों के सामाजिक व्यवहार से सम्बद्ध है। संक्षिप्त रूप में संवेग की परिभाषा देना कठिन है, अतः हमलोग भय, आनंद आदि शब्द का प्रयोग करते हैं जिनसे खास संवेगों का अर्थ स्पष्ट होता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने संवेग पद का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया है। मन के तीन पहलू हैं, प्रज्ञात्मक (cognitive), भावात्मक (affective) और इच्छात्मक (conative)। संवेग का सम्बन्ध मन के भावात्मक पहलू से है। जब हम किसी प्रिय व्यक्ति को देखते हैं, तो प्रसन्नता और जब किसी अप्रिय व्यक्ति को देखते हैं तो अप्रसन्नता होती है। इस तरह के अनुभव को भाव कहते हैं। किन्तु भय, क्रोध, प्रेम, प्रसन्नता आदि के अनुभव संवेग कहलाते हैं। भाव का आर्विभाव किसी प्रकार की संवेदना या क्रिया से होता है किन्तु संवेग की उत्पत्ति किसी संवेदना से नहीं होती, अपितु किसी परिस्थिति विशेष के प्रत्यक्षीकरण (Perception) कल्पना (imagination) अथवा स्मरण (remembring) से होती है। यदि संवेग की परिभाषा देना चाहें तो हम कह सकते हैं, “संवेग एक जटिल (complex) भावात्मक (effective) अवस्था है जिसका आर्विभाव किसी परिस्थिति के प्रत्यक्षीकरण, स्मरण तथा कल्पना से होता है।” इससे हमारा कोई अंग विशेष प्रभावित नहीं होता, बल्कि सारा शरीर प्रभावित होता है क्योंकि इस समय आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं। यह जोव का व्यक्तिगत एवं सर्वव्यापक अनुभव है क्योंकि एक ही सी परिस्थिति में व्यक्तियों में विभिन्न संवेग आर्विभूत हो सकते हैं। प्रत्येक संवेग में सुखद अथव दुःखद भाव अवश्य होता है। प्रेम का सम्बन्ध सुखद भाव से तथा भय का सम्बन्ध दुखद भाव से होता है। इसके मूल में क्रियात्मक वृति (action tendency) भी रहती है, अर्थात् जब भी किसी तरह का संवेग होता है, उस समय जीव किसी-न-किसी प्रकार की क्रिया भी करता है। जैसे, बच्चा क्रुद्ध होता है तो उसमें हाथ-पैर पटकने, रोने-चिल्लाने जैसी क्रियाएँ देखी जाती है। इसी कारण मैकडुगल (McDougall) मूलप्रवृत्तियों (instincts) को संवेगों का प्राण माना है। स्काउट ने भी क्रियात्मक वृत्ति पर जोर डाला है।
प्रश्न 26. बच्चों के संवेग की विशेषताओं की विवेचना करें। (Discuss the characteristics of Children’s emotion.)
उत्तर-बच्चों के संवेग एवं वयस्कों के संवेगों में भिन्नता पाई जाती है। हरर्लाक (Herlock, 1950) ने अपने अध्ययन के आधार पर बच्चों के संवेगों की विशेषताओं को बडाय है कि ये अल्पकालीन होते हैं, उनमें तीव्रता का अभाव होता है। ये अस्थायी होते हैं तथा बार-बार प्रकट होते हैं। इन संवेगों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) बच्चों के संवेग केवल कुछ मिनट तक ही ठहरते हैं। इनकी अभिव्यक्ति कभी प्रत्यक्ष रूप में कभी मानक रूप में होती है। ज्यों-ज्यों बढ़ते जाते हैं.
By Madhav sir प्रश्न 27. संवेगात्मक विकास में सीखने के प्रभाव की विवेचना करें ।
(Discuss the impact of learning on einotional development.).
उत्तर-बच्चों के संवेगात्मक विकास पर उसके सीखने की क्रिया का क्या प्रभाव होता है, इसे जानने के लिए 1932 में हगमैन ने बच्चों तथा उनके माता-पिता के संवेगों का तुलनात्मक अध्ययन कर बताया कि माँ-वान की अभिव्यक्ति के अनुकूल ही बच्चों की समान उत्तेजनओं के प्रति भी अभिव्यक्ति होती है। हगमैन ने पूर्व पाटशालीय आयु के बच्चों तथा माताओं के भय की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया। तत्पश्चात् ये इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जिस तरह की परिस्थिति में माताओं को डर लगता है, उन्हीं परिस्थितियों में बच्चे भी डरना सीख जाते है। दैनिक जीवन में भी यह घटना घटती है कि प्रौढ़ व्यक्ति भी रात्रि के अंधकार में बाहर निकलने से डरते हैं। उसी प्रकार बच्चे भी अंधकार से डरने लगते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बच्चे अनुकरण के द्वारा डरना सीखते हैं। किसी समुदाय में संस्कृति के अनुकूल जिस प्रकार की संवेगात्मक अनुभूतियाँ होती हैं, अन्य व्यक्ति भी उसका अनुकरण करने लगते हैं। इससे उस समाज को संस्कृति की विशेषता व्यक्त होती है। बच्चे प्रायः परिवार में माँ-बाप या अन्य व्यक्तियों की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते है। क्रोध के संवेग के साथ भी यही बात होती है। बुक्स (Brooks) ने उल्लेख किया है कि शब्दों के प्रति भी व्यक्तियों में क्रोध की प्रतिक्रिया होती है। यद्यपि शब्द स्वतः निर्दोष तथा कोमल उत्तेजना (mild stimuli) के रूप में रहते हैं फिर भी यदि शब्द क्रोध की प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं तो उसका कारण है कि ये शब्द किन्हीं अन्य उत्तेजनाओं के साथ प्रकट होते हैं जिनमें क्रोध को उत्तेजित करने की अत्यधिक शक्ति रहती है। प्रायः यह अवस्था तव आती है , जब संवेग उत्पन्न करने वाली उत्तेजनाओं को यार-बार दुहराया जाता है और बच्चों को यह समझाया जाता है |
प्रश्न 28. सहभागी परीक्षण के गुणों की विवेचना करें । (Discuss the merits of participation observation Method.)
उत्तर-सहभागी प्रेक्षण विधि के गुण (Merits of Participant Observation Method) सहभागी प्रेक्षण विधि के निम्नलिखित गुण है-
1. स्वाभाविक अध्ययन (Natural study) सहभागी प्रेक्षण विधि का एक गुण यह है कि इसके द्वारा जो अध्ययन किया जाता है वह काफी स्वाभाविक होता है। कारण, इस विधि में अध्ययन-परिस्थिति को नियंत्रित नहीं किया जाता है, बल्कि जिस परिस्थिति में कोई व्यवहार होता है उसी स्वाभाविक परिस्थिति में उसका अध्ययन किया जाता है। दूसरी मुख्य बात यह है कि समूह के सदस्य प्रेक्षक को अपने ही समूह का सदस्य समझ कर स्वाभाविक रूप से व्यवहार करते हैं। यह गुण असहभागी प्रेक्षण (non-participant observation) में नहीं है।
2. उपयुक्त अध्ययन (Adequate study) – इस प्रकार के प्रेक्षण में उपयुक्त अध्ययन के सम्भव होता है। प्रेक्षक समूह के बहुत निकट होता है और इसके सदस्यों के साथ निकट सम्पर्क स्थापित कर लेता है। इस प्रकार उसे सदस्यों के व्यवहारों को समुचित रूप से अध्ययन करने का अवसर मिलता है। यह गुण असहभागी प्रेक्षण (non-participant observation) में नहीं है।
3. वास्तविक अध्ययन (Actual study)- इस प्रेक्षण विधि द्वारा जो अध्ययन किया जाता है, वह अधिक वास्तविक होता है। कारण, यहाँ अध्ययन स्वाभाविक परिस्थिति में होता है और प्रेक्षक बहुत नजदीक से सदस्यों के व्यवहारों का अध्ययन करता है। यह विशेषता असहभागी प्रेक्षण में नहीं है।
4. प्रेक्षण की सुविधा (convenience to the observed) – इस विधि में प्रेक्षण करते समय किसी समूह के सदस्यों को किसी तरह की असुविधा महसूस नहीं होती है। वे प्रेक्षक को अजनवी (stranger) नहीं बल्कि अपने ही समूह का सदस्य समझने लगते हैं। इस कारण उसकी उपस्थिति में भी अन्तवैयक्तिक व्यवहार करते समय किसी तरह का संकोच नहीं होता है। यह गुण असहभागी प्रेक्षण (non-participant observation) में नहीं है।
5. गहन एवं विस्तृत अध्ययन (Intensive and extensive study)- प्रेक्षक को गहन अध्ययन करने का अवसर मिलता है। वह समूह के सदस्यों के व्यवहारों तथा पारस्परिक प्रतिक्रियाओं (interactions) का अध्ययन बिल्कुल नजदीक से करता है।
प्रश्न 29, सहभागी परीक्षण के दोष का वर्णन करें। (Describe the demertis of participant observation method.)
उत्तर-सहभागी प्रेक्षण में निम्नलिखित दोष या अलाभ (disadvantages) पाये जाते हैं-
1. वस्तुनिष्ठता तथा तटस्थता का अभाव (Lack of objectivity and neutrality)-समूह के सदस्यों के साथ रहते-रहते प्रेक्षक में समूह के प्रति मोह माया (fascination) विकसित हो जा सकती है। ऐसी हालत में उसका दृष्टिकोण (outlook) वास्तव में तटस्थ (neutral) नहीं रह पाता है। फलतः उसका अध्ययन पक्षपाती (biased) हो जाता है। यह दोष असहभागी प्रेषण (non-participant observation) में नहीं है।
2. सीमित क्षेत्र (Limited scope)- कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं जहाँ व्यवहारों का अध्ययन सहभागी प्रेक्षण (participant observation) से सम्भव नहीं होता है। कारण उन परिस्थितियों में शामिल होने की अनुमति प्रेक्षक को नहीं मिलती है। डाकुओं के सामाजिक जीवन, वेश्याओं के अन्तवैयक्तिक व्यवहारों, बलात्कारों, परपीड़कों (sadists) तथा आत्म पीड़कों (masochists) की रंगीलियों का अध्ययन इस विधि से सम्भव नहीं है। परन्तु असहभागो प्रेक्षण विधि से इन सब का अध्ययन सम्भव है।
3. चूक का खतरा (Danger of overlooking) – समूह तथा समूह के सदस्यों के साथ घनिष्ट सम्बन्ध तथा अधिक परिचय (familiarity) होने के कारण कभी-कभी प्रेक्षक पी० वी० यंग (P.V. You..g. 2001) के अनुसार सहभागी प्रेक्षण में अधिक घनिष्ठता तथा नजदीकी के कारण इस बात का खतरा बना रहता है कि प्रेक्षक दलबन्दी का शिकार हो जाए। ऐसा इसलिए कि साथ रहने के कारण समूह तथा इसके सदस्यों के प्रति प्रेक्षक में मोहमाया (fascination) उत्पन्न हो सकती है। लेकिन, यह खतरा असहभागी प्रेक्षण में नहीं हैं।
5. प्रेक्षक की कठिनाई (Difficulty of the observer) – यहाँ प्रेक्षक भेष बदल कर किसी समूह के साथ रहता है और सदस्यों के व्यवहारों का अध्ययन करता है तथा उसे लिखता जाता है। यह एक कठिन कार्य है। एक ओर उसे समूह के सदस्य के रूप में और दूसरी ओर प्रेक्षक के रूप में भूमिका (roles) निभानी पड़ती है जो वस्तुतः कठिन है। यह कठिनाई असहभागी प्रेक्षण में नहीं है।
प्रश्न 30. असहभागी प्रेक्षण क्या है?
(What is Non-participant observation?)
उत्तर-असहभागी-प्रेक्षण में प्रेक्षक से अलग रह कर समूह के सदस्यों के व्यवहारों का अध्ययन करता है। समूह के सदस्यों को इस बात की जानकारी रहती है कि अमुक अनुसन्धानकर्ता या प्रेक्षक उनके व्यवहारों का अध्ययन करने के लिए आया है।
उदाहरण-एक मनोवैज्ञानिक आदिवासियों के व्यवहारों तथा पारस्परिक क्रियाओं (interactions) के अध्ययन के लिए आदिवासियों के समाज में जाता है, अपना परिचय देता है, अपने उद्देश्य को स्पष्ट कर देता है और उनके व्यवहारों का प्रेक्षण करता है। आवश्यकता के अनुसार वह कई बार उनके पास जाकर उनके व्यवहारों का अध्ययन करता है तथा आवश्यक सूचनाएँ (informations) हासिल कर लेता है।
प्रश्न 31. असहभागी-प्रेक्षण के गुणों की विवेचना करें।
(Discuss the merits of non-participant observation?)
उत्तर-असहभागी प्रेक्षण के निम्नलिखित गुण है-1. तटस्थ अध्ययन (Neutral study) -यहाँ प्रेक्षक उस समूह में शामिल नहीं होता है, जिसके सदस्यों के व्यवहारों का अध्ययन वह करता है। सदस्यों के साथ उसका कोई गहरा सम्पर्क नहीं रहता है। इसलिए, उसकी मनोवृत्ति या दृष्टिकोण उस समूह तथा उसके सदस्यों के प्रति तटस्थ (neutral) होता है।
प्रश्न 32. असहभागी प्रेक्षण के दोष की विवेचना करें ।
(Discuss the demerits of non-participant observation.)
उत्तर-असहभागी प्रेक्षण के निम्नलिखित दोष या अलाभ (disadvantages) हैं-
1. प्रेक्षक के प्रति संदेह (suspicion toward to the observer) असहभागी प्रेश् को समूह के सदस्य संदेह की नजर से देखते हैं। हालांकि प्रेक्षक अपना उद्देश्य सदस्यों को बह देता है, फिर भी वे उसके अभिप्राय (intention) पर संदेह करते हैं। इसलिए वे उसके स सहयोग नहीं करते हैं। यह दोष सहभागी प्रेक्षण में नहीं है।
2. अस्वाभाविक अध्ययन (Unnatural study) समूह के सदस्य प्रेक्षक को अज (stranger) तथा बाहरी (out-sider) समझते हैं। इसलिए वे जानबूझ कर उसके साम्रा अस्वाभाविक व्यवहार करते हैं। ऐसे व्यवहारों के अध्ययन से जो परिणाम प्राप्त होते हैं, विश्सनीय (reliable) नहीं होते हैं। लेकिन, यह दोष सहभागी प्रेक्षण में नहीं है।
3. अवास्तविक अध्ययन (Unreal study) समूह के सदस्य प्रेक्षक पर संदेह करते तथा उसकी उपस्थिति में वास्तविक व्यवहार नहीं करते हैं। वे अपनी असलियत को छिपाने हर सम्भव प्रयास करते हैं। उनके व्यवहार अस्वाभाविक तथा अवास्तविक बन जाते हैं, जिस कांग अध्ययन भी अवास्तविक बन जाता है और सही सूचना प्राप्त नहीं हो पाती है। लेकिन, यह अ सहभागी प्रेक्षण में नहीं है |
4. अनुपयुक्त अध्ययन (Inadequate study) समूह तथा असहभागी प्रेक्षक के काफी दूरी होती है। इसलिए, वह समूह के सदस्यों के व्यवहारों का पूरा-पूरा अध्ययन नहीं पाता है। अध्ययन न तो गहन (intensive) हो पाता है और न विस्तृत (extensive) ही। यह सहभागी प्रेक्षण में नहीं है।
5. प्रेक्षण को असुविधा (Inconvenience to the observed – इस प्रकार के प्रेक्ष उन लोगों को बड़ी असुविधा का अनुभव होता है |
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