BA 3rd Sem Exam 2023-27 | political science MJC 3 viral question Paper |lnmu ,ug 3rd Sem Political Science MJC/MIC/MDC-3 Guess Question Pepper
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UG 3rd Sem Political Science MJC/MIC/MDC-3 Guess Question Pepper
Subjective Questions Papper
1. स्वतन्त्रता से आशय
स्वतन्त्रता मनुष्य की सबसे प्रिय वस्तु है। प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्रता चाहता है। यही कारण है कि राजनीति विज्ञान में स्वतन्त्रता का तथा अधिकारों की व्यवस्था में स्वतन्त्रता का बहुत महत्व है। जिस प्रकार अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं उसी प्रकार स्वतन्त्रता भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है, क्योंकि अधिकारों का उपयोग स्वतन्त्रता के वातावरण में ही सम्भव है।
स्वतन्त्रता शब्द अंग्रेजी भाषा के Liberty शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। ‘लिबर्टी’ शब्द लेटिन भाषा के Liber (लिबर) शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है-बन्धनों का न होना।
इस प्रकार शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर स्वतन्त्रता का अर्थ है-बन्धनों का न होना (Absence of Restraints)। अर्थात् मनुष्य की इच्छा और कार्य पर किसी प्रकार की रुकावट व मर्यादा त हो। परन्तु यह स्वतन्त्रता का गलत अर्थ है। बार्कर के शब्दों में, “जिस प्रकार बदसूरती का न होना सुन्दरता नहीं है, उसी प्रकार बन्धनों का न होना स्वतन्त्रता नहीं है। “इसलिए स्वतन्त्रता का अर्थ मनुष्य को जंगली पशुओं की भाँति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए शक्ति के द्वारा मनमानी .. करने का अधिकार नहीं बल्कि मनुष्य अपने अधिकारों का इस तरह उपयोग करे कि सामाजिक नियम, राज्य के कानून और दूसरों के अधिकार बने रहें। लास्की के शब्दों में, “स्वतन्त्रता का > अर्थ उस वातावरण की स्थापना से है जिसमें मनुष्य को अपने पूर्ण विकास के लिए अवसर प्राप्त होते हैं।” स्वतन्त्रता की परिभाषा के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं-
मैकेंजी के शब्दों में, “स्वतन्त्रता सब प्रकार के प्रतिबन्धों के अभाव को नहीं कहते, अपितु अनुचित प्रतिबन्धों के स्थान पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था है।”
टी. एच. ग्रीन के अनुसार, “स्वतन्त्रता उन कार्यों को करने अथवा उन वस्तुओं के उपयोग करने की शक्ति है जो करने तथा उपभोग करने योग्य हैं।”
सीले के अनुसार, “स्वतन्त्रता अतिशासन की विरोधी है।”
जी. डी. एच. कोल के अनुसार, “बिना किसी बाधा के अपने व्यक्तित्व को प्रकट करने के अधिकार का नाम स्वतन्त्रता है।”
सी. डी. बर्न्स के शब्दों में, “स्वतन्त्रता अपने व्यक्तित्व और योग्यताओं का पूरा विकास है।”
महात्मा गाँधी के अनुसार, “स्वतन्त्रता का अर्थ नियन्त्रण का अभाव नहीं वरन् व्यक्तित्व के विकास की अवस्थाओं की प्राप्ति है।”
डॉ. आशीर्वादम् के शब्दों में, “आत्म-विकास के लिए वास्तविक अवसर का ही नाम स्वतन्त्रता है।”
2. सविनय अवज्ञा का आशय
सविनय अवज्ञा की आधुनिक संकल्पना का उद्गम थॉकस हॉब्बस जैसे अनुभववादियों के लेखों में पाया जाता है। सत्रवहीं शताब्दी में इंग्लैण्ड की राजनीतिक स्थिति ने हॉब्बस को बाध्य किया कि वह मौलिक नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को सरकार के आज्ञापालन हेतु आधार रूप में अंगीकार करे। उसने स्वीकार किया कि लोगो को अधिकारों की गारण्टी देने के लिए, राज्य को एक नागरिक शान्ति का माहौल सुनिश्चित करना चाहिए। वह राज्य में लोगों का असम्मत होने का अधिकार देने को तैयार नहीं थे। वह एकमात्र स्थिति जिसके तहत लोग असम्मत होने का अधिकार रखने के हकदार थे, तब थी जब वह राज्य व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने
और समाज में नागरिक शान्ति सुनिश्चित करने में पर्याप्त रूप से सबल न हो। सविनय अवज्ञा का अधिकार वस्तुतः हॉब्बस की विशिष्ट शर्तबन्दी में अन्तर्निहित था।
जॉन लॉक का मत था कि लोगों को “अपनी मूल स्वतंत्रता को फिर से प्राप्त करने और एक नई सरकार स्थापित करने का अधिकार” प्राप्त है। यदि वह राज्य के प्राधिकरणो के विरोध – न्यायसांगत्य के विषय में इतना सटीक और स्पष्ट न भी हो, वह स्वीकार करते थे कि लोगों को स्वतंत्रताएँ, अधिकार व सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने हेतु अहिंसात्मक व हिंसात्मक दोनों प्रकार की सविनय अवज्ञा चेष्टाएँ करने का अधिकार प्राप्त है।
विरोधार्थ अधिकार संकल्पना निर्धारित करने हेतु अनुभवजन्य उपयोगितावादी उपगम्य का विश्लेषण करते समय, हैनरी डेविड थोरो ने एक आदर्शवादी अराजकतावादी दृष्टिकोण अपनाया। उनका दृढ़ विश्वास था कि ऐसे किसी भी नागरिक कानून को विद्यमान रहने का नैतिक समर्थन प्राप्त नहीं है, जो नैतिक कानून के क्षेत्रों का अतिक्रमण करने का प्रयास करे। 1948 की सार्वभौम मानावधिकार घोषणा, जिसने मनुष्य के मूल अधिकारों हेतु मानवीय आधारों पर जोर दिया, थोरो के दावे का समर्थन करती है। अपने ‘ट्रिटाइज ऑफ ह्यूमन नेचर’ में, डैविड ह्यूम ने सविनय अवज्ञा की एक इच्छास्वातंत्र्यवादी संकल्पना प्रस्तुत की है।
जैरेमी बैन्थम ने दृढ़ता के साथ कहा कि सद्विवेकी नागरिकों को “कर्त्तव्यों के साथ-साथ हित की भी विषयवस्तु के रूप में विरोध-उपयों को अंग बनाना पड़ता है।” जेम्स मिल ने सविनय अवज्ञा अवधारणा की ओर एक विरोधाभासी रवैया अपनाया। उसने सीमित सविनय अवज्ञा के समर्थन अधिकार का विरोध करते हुए हिंसात्मक क्रांति के अधिकार का समर्थन किया। महात्मा गाँधी ने भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सविनय अवज्ञा आन्दोलन के जरिये ब्रिटिश हुकूमत से अपना विरोध प्रदर्शित किया।
3. स्वतन्त्रता के संरक्षण (Safeguards of Liberty)
स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए कुछ विशेष संरक्षण आवश्यक हैं जिनमें कुछ निम्नांकित हैं-
(1) नागरिकों की जागरूकता : “सतत् जागरूकता स्वतन्त्रता का मूल्य है।” नागरिकों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहना चाहिए, उन्हें अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने, कर्तव्य पूरा करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। लास्की के शब्दों में, “अराजकता का भय शासन सत्ता के दुरुपयोग के विरुद्ध एक रक्षा कवच है।” लास्की ने एक अन्य स्थान पर लिखा है कि, “नागरिकों की महान् भावना, न कि कानून की शब्दावली स्वतन्त्रता की वास्तविक सुरक्षा है।” थॉमस जैफरसन ने भी कहा है कि, “कोई भी देश तब तक अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा नहीं कर सकता जब तक कि समय-समय पर वहाँ की जनता अपनी विरोध भावना का प्रदर्शन करके अपने शासकों को सजग न करती रहे।” इसलिए यह सत्य ही है कि, “सतत् जागरूकता स्वतन्त्रता का मूल्य है।”
(2) वैधानिक प्रभु और राजनीतिक प्रभु में सहयोग: वैध प्रभु सरकार और राजनीतिक प्रभु जनता में सहयोग आवश्यक है। वैध प्रभु को राजनीतिक प्रभु की इच्छानुसार कार्य करना चाहिए, तभी प्रजातन्त्र प्रणाली सफलता से चल सकती है।
(3) नागरिक अधिकारों की सुव्यवस्था नागरिक अधिकारों की समुचित व्यवस्था भी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अनिवार्य है। संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन इसीलिए किया जाता है। लास्की के शब्दों में, “स्वतन्त्रता तब तक वास्तविक नहीं हो सकती जब तक सरकार को उत्तरदायी न ठहराया जाए और जब वह अधिकारों का अतिक्रमण करती है, उस समय अवश्य ही उससे जवाब तलब किया जाए।”
(4) कानून का अस्तित्व कानून स्वतन्त्रता का मित्र है। कानून और व्यवस्था ही स्वतन्त्रता केः वास्तविक आधार हैं। लेकिन कानून आदर्श होना चाहिए। कानून निष्पक्ष और सभी पर समान रूप से लागू होने वाला होना चाहिए।
4. आर्थिक समानता तथा राजनीतिक स्वतन्त्रता
राजनीतिक स्वतन्त्रता: राजनीतिक स्वतन्त्रता का अर्थ राज्य के कार्यों में नागरिकों द्वारा सक्रिय रूप से भाग लेना है। अर्थात् राजनीतिक स्वतन्त्रता उस अवस्था को कहा जाता है। जिसमें नागरिक अपने नागरिकता के अधिकारों का उपभोग कर सकें। नागरिक को अपने प्रतिनिधियों को चुनने और स्वयं प्रतिनिधि बनने का अधिकार हो। इस प्रकार राजनीतिक स्वतन्त्रता शासन कार्यों में भाग लेने की शक्ति है। लास्की के शब्दों में, “राज्य के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेने के अधिकार को राजनीतिक स्वतन्त्रता कहते हैं।”
आर्थिक समानता : आर्थिक समानता से तात्पर्य है कि समाज में व्यक्ति को अपनी मूलभूत
आवश्यकताओं की पूर्ति की चिन्ता न हो। उसके भोजन, वस्त्र और आवास की सुविधा हो। समाज में आर्थिक असमानता अधिक न हो। सभी को रोजगार और व्यवसाय की सुविधा के समान अवसर हों। व्यक्ति को अपना पेट भरने के लिए किसी के सामने अपना हाथ न फैलाना पड़े। उद्योग में प्रजातन्त्र हो अर्थात् मजदूरों का उद्योगों के प्रबन्ध में भी हिस्सा हो।
5. राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा आर्थिक समानता में संबंध
समाज में राजनीतिक स्वतन्त्रता का वास्तव में प्रयोग तभी किया जा सकता है जबकि समाज में आर्थिक समानता विद्यमान हो। कोल के शब्दों में, “आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता एक कल्पित वस्तु है।” आर्थिक स्वतन्त्रता ही वह वातावरण तैयार करती है जिसमें राजनीतिक स्वतन्त्रता को फलने-फूलने का अवसर मिले। राजनीतिक स्वतन्त्रता और आर्थिक समानता में निम्न सम्बन्ध पाए जाते हैं-
1. आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में लोगों में मन्दी और बेकारी आ जाती है जिससे विश्वव्यापीं संकट भी आ सकता है। ऐसी स्थिति में बहुसंख्यक जनता अपना मानसिक सन्तुलन और शक्ति गँवा बैठती है जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक स्वतन्त्रता एक कल्पित आदर्श लगती है। ऐसी स्थिति में जनता की राजनीतिक स्वतन्त्रता निरंकुश शासकों के हाथों में चली जाती है; जैसे-1930-32 की भीषण आर्थिक मंदी के चक्र से निकालने के लिए हिटलर ने जर्मनी की सत्ता. अपने हाथों में ले ली।
2. आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में समाज में निरन्तर शोषण चक्र चलता है जिसके फलस्वरूप समाज में गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक शोषण, विश्रृंखलता आदि विकसित होते हैं। जो जनतन्त्र के विनाश के कारण होते हैं और जनतन्त्र के विनाश से राजनीतिक स्वतन्त्रता समाप्त होती है।
3. आर्थिक समानता के अभाव में समाज में धनी तथा निर्धन वर्ग पैदा होते हैं जो शोषक और शोषित के रूप में उभरते हैं। धनी वर्ग धन के आधार पर राजनीतिक स्वतन्त्रता को स्वार्थ पूर्ति का साधन मानता है।
6. समानता से आशय
साधारणतया लोग समझते हैं कि प्रकृति ने मनुष्य समान बनाए हैं। सभी समान पैदा हुए हैं। सभी समान हैं। सभी की आय, कार्य, सुविधाएँ बराबर हैं। सभी के पास सम्पत्ति समान मात्रा में हो। ये धारणा भ्रात्मक है। वास्तव में एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के समान नहीं। प्रकृति ने भी मानव-मानव में भेद किया है। रंग, रूप, आकृति, कद, आकार, ऊँचाई, सुन्दरता, बुद्धि आदि के आधार पर एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है। इतनी बड़ी दुनिया में ऐसे दो व्यक्ति खोजना कठिन ही नहीं असम्भव है कि जो हर प्रकार से एक समान हों। यहाँ तक कि दो सगे भाई या जुड़वाँ भाई भी स्वभाव, शरीर की रचना, बुद्धि आदि के आधार पर एक समान नहीं होते हैं। अप्पादोराय के शब्दों में, “यह कहना कि सब मनुष्य समान हैं, ऐसे ही गलत है जैसे यह कहना कि पृथ्वी समतल है।”
समानता का सही अर्थ यह है कि सभी व्यक्तियों को बिना किसी जाति, धर्म, भाषा, रंग, सम्पत्ति, वंश, लिंग, व्यवसाय आदि के भेदभाव के सभी व्यक्तियों को अपने विकास के समान अवसर मिल सकें। सभी नागरिकों को अधिकार समान रूप से बिना किसी भेदभाव के मिलें। सभी को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए शिक्षा, आवास, भोजन, वस्त्र और अन्य आवश्यक सुविधाएँ प्राप्त हों। समानता के नकारात्मक रूप में उन सभी विशेषाधिकारों का अन्त हो जो जन्म, सम्पत्ति, धर्म, रंग, भाषा, जाति आदि के आधार पर कुछ वर्गों के लोगों को मिले हों तथा समानता के सकारात्मक रूप में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेद-भाव के विकास के लिए समान अवसर मिलें। समानता की परिभाषा करते हुए लास्की ने कहा है कि, “सर्वप्रथम समानता का अर्थ यह है कि समाज में कोई विशेष हित न हो, द्वितीय, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता और शक्ति के पूर्ण उपयोग का अवसर प्राप्त हो।”
7. समानता के प्रकार (Kinds of Equality)
समानता के निम्न प्रकार हैं-
(1) सामाजिक समानता (Social Equality): सामाजिक समानता का तात्पर्य है कि व्यक्ति को समाज का सदस्य होने के नाते सभी को समान समझा जाए। जाति, धर्म, भाषा, रंग, नस्ल, लिंग, व्यवसाय, धन, वंश, वर्ग, वर्ण आदि के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में अन्तर न किया जाए। व्यक्ति को सामाजिक उत्थान के समान अवसर मिलें।
8. अधिकार के आवश्यक तत्व या लक्षण
अधिकार के आवश्यक तत्व निम्न प्रकार हैं-
(1) अधिकार व्यक्ति या व्यक्ति समूह की माँग है अधिकार व्यक्तिगत या सामूहिक माँग या दावा है जो समाज से की जाती है।
(2) अधिकार का आधार सामाजिक मान्यता अधिकार की माँग, जब तक समाज द्वारा स्वीकार न कर ली जाए, माँग ही रहती है, अधिकार नहीं हो पाती।
(3) अधिकार के लिए समानता आवश्यक अधिकार समाज में सभी को दिए जाते हैं, या मिलते हैं।
(4) अधिकार नैतिकता तथा सामाजिक सदाचार पर टिके रहते हैं व्यक्ति की सिर्फ वे माँगें ही अधिकार का रूप धारण कर सकती हैं जिनका आधार तर्क और नैतिकता हो अर्थात् वे माँगें व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन के लिए उचित और आवश्यक हों।
(5) अधिकार सामाजिक हित के लिए बनाए जाते हैं न होकर सभी के कल्याण के लिए होते हैं। अधिकार स्वार्थपूर्ति का साधन
(6) राज्य अधिकारों को मान्यता देता है, जन्म नहीं अधिकारों का जन्मदाता राज्य नहीं है, वह तो समाज की स्वीकृत माँगों को केवल वैधानिक मान्यता प्रदान करता है।
9. राजनीतिक दायित्व (Political Obligation)
प्रत्येक देश के संविधान में कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं जिससे कि नागरिक उनका उपभोग कर अपना विकास कर सके। साथ ही साथ नागरिकों से कुछ अपेक्षाएँ भी की गई हैं जिससे राज्य की व्यवस्था ठीक प्रकार संचालित होती रहे। इन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए नागरिकों को कुछ कर्तव्य दिए गए हैं। संविधान में ऐसे कर्तव्यों को राजनीतिक दायित्व का नाम दिया गया है। यदि कोई नागरिक राजनीतिक दायित्वों का पालन नहीं करता है तो उसको राज्य के कानूनों के अनुसार दण्ड की व्यवस्था होती है। इस प्रकार मौलिक अधिकारों के बदले नागरिक राज्य के प्रति जिन कर्तव्यों को करने के लिए उत्तरदायी हैं वे राजनीतिक दायित्व हैं। इनमें करों का चुकाना, मताधिकार का सदुपयोग करना, संविधान के प्रति श्रद्धा रखना, सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा करना आदि आते हैं। भारत के संविधान में दस राजनीतिक दायित्व नागरिकों के लिए गिनाए गए हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
1. संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रीय गान का आदर करें।
2. स्वतन्त्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों का हृदय में संजोये रखें और उनका पालन करें।
3. भारत की प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करें और अक्षुण्ण रखें।
4. देश की रक्षा करें और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करें।
5. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित भेद-भाव से दूर हों। ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं।
6. हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझे और उनका परिरक्षण करें।
7. प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव भी हैं, रक्षा करें और उनका संवर्धन करें तथा प्राणिमात्र के प्रति दया भाव रखें।
8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावनाओं का विकास करें।
9. सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें।
10. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् – प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धियों की नई ऊंचाइयों को छू ले।
11. प्रत्येक माता-पिता का दायितव है कि वह 14 वर्ष तक के बच्चे को शिक्षा दिलायें।
11. सत्ता के कार्य (Functions of Authority)
सत्ता के मुख्य कार्य निम्न हैं-
(1) समन्वय की स्थापना (Establishment of Co-ordination): सत्ता का मुख्य
कार्य किसी भी संगठन में समन्वय की स्थापना करना है। समन्वय के माध्यम से आदेश व योजनाएँ निम्न अधिकारियों के पास जाती हैं।
(2) उत्तरदायित्व (Responsibility): किसी भी संगठन या संस्था में सत्ताधारी व्यक्ति का उत्तरदायित्व समाज द्वारा निर्धारित आदर्शों में एकरूपता प्रदान करना है। यदि सत्ता का प्रयोग किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है तो उसके लिए स्वीकृति का होना आवश्यक है।
(3) विशेषज्ञ की सलाह का प्रयोग (Use of the Advice of Specialist) सत्ता का
प्रयोग करते समय सत्ताधारी व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि विशेषज्ञ की सलाह पर निर्णय करे क्योंकि इससे शासन में कार्य कुशलता रहती है।
(4) अन्य कार्य (Other Functions): इनके अतिरिक्त सत्ता द्वारा नियन्त्रण, प्रत्यायोजन, अनुशासन इत्यादि को प्राप्त किया जा सकता है। सत्ताधारी इन सभी कार्यों को विनिश्चय निर्माण-प्रक्रियाओं द्वारा करते हैं।
12. सत्ता पालन का आधार
सत्ता का पालन अनेक कारणों से किया जाता है। कुछ प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं-
(1) विश्वास तथा मूल्य (Faith and Value): सत्ता पालन का आधार विश्वास तथा मूल्य है जिसके आधार पर व्यक्ति उन आज्ञाओं को ही स्वीकार कर पाते हैं जिनके मूल्य और विश्वास व्यक्ति के मूल्य और विश्वासों से मेल खाते हैं। यदि आज्ञा के मूल्य और विश्वास व्यक्ति के मूल्य और विश्वास से भिन्न होते हैं तो आज्ञा की अवहेलना हो जाती है।
(2) सामाजिक दबाव (Social Pressure) अनेक आज्ञाओं का पालन समाज के भय
से किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति आज्ञा नहीं मानता है तो समाज उसकी निन्दा करता है। समाज के इस दबाव के कारण भी आज्ञाओं को मानना पड़ता है।
(3) मनोवैज्ञानिक दबाव (Psychological Pressure): अधीनस्थ कर्मचारी वरिष्ठ अधिकारी से मनोवैज्ञानिक रूप से अपने आपको निम्न स्तर का पाता है, इसलिए वरिष्ठ अधिकारी की बात मान लेता है।
(4) उद्देश्य प्राप्त करना (To achieve the goal): संगठन के उद्देश्य तभी प्राप्त ह सकते हैं जबकि समस्त पदाधिकारी अपने-अपने क्षेत्र में सक्रिय और सजग रहकर आदेश का और निम्न कर्मचारी उनकी आज्ञा मानते हुए संगठन का कार्य पूरा करें।
(5) आर्थिक लाभ के लिए (For economic gain) अधीनस्थ कर्मचारी उच्च पदाधिकारियों की आज्ञा पालन आर्थिक लाभ को ध्यान में रखकर भी कर लेते हैं जैसे-पुरस्कार या धन कमाना।
(6) व्यक्तिगत गुण (Personal quality): कुछ पदाधिकारी अपनी योग्यता और व्यक्तित्व के कारण भी दूसरों से अपनी आज्ञापालन करा लेते हैं।
सत्ता की सीमाएँ (Limitations of Power) सत्ता का प्रयोग अबाध रूप से नहीं किया जा सकता है। उसकी भी कुछ सीमाएँ होती हैं।
13. शक्ति एवं प्रभाव (Power & Influence)
शक्ति एवं प्रभाव राजनीतिक समाजशास्त्र की अत्यन्त महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं एवं इनका उद्देश्य व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को प्रभावित करने से दोनों में बहुत निकटता भी है एवं दूरी भी है। यह ज्ञात करना कठिन हो जाता है कि अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों के अनुपालन में प्रभाव अधिक महत्वपूर्ण है या शक्ति।
शक्ति और प्रभाव में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-
1: शक्ति की अपेक्षा प्रभाव अधिक व्यापक है। कौन किस प्रकार का है, उसके बारे में विद्वानों में मतभेद है। अधिकतर विद्वान स्वीकार करते हैं कि शक्ति प्रभाव का ही एक विशिष्ट प्रकार है जिसमें अनुपालन के लिए दण्ड और भय का प्रयोग किया जाता है।
2. शक्ति बाह्यकारी होती है जबकि प्रभाव स्वेच्छाचारी एवं मनोवैज्ञानिक होता है। जब शक्ति का प्रयोग किया जाता है तब इससे प्रभावित व्यक्ति या समूह के पास इसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता। प्रभाव में प्रभावित होने वाले व्यक्ति के पास सदैव उसके अनुपालन के विषय में अनेक विकल्प होते हैं।
3. शक्ति का प्रयोग लोगों की इच्छा के विरुद्ध एवं प्रतिरोध के रहते हुए भी किया जाता हैं जबकि प्रभाव व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर होता है।
4. दण्ड-भय की धमकी या वास्तविक बल प्रयोग द्वारा अनुपालन कराने के कारण शक्ति को अप्रजातन्त्रीय माना जाता है, जबकि प्रभाव प्रजातन्त्रीय है क्योंकि इसका अनुपालन स्वच्छापूर्वक किया जाता है।
5. शक्ति प्रयोग के समय प्रभाव समाप्त हो जाता है। प्रभाव के पश्चात् शक्ति अनावश्यक हो जाती है। अतः शक्ति की अपेक्षा प्रभाव असीम है और अर्जित कर लेने पर इसका लाभ उठाया जा सकता है।
6. शक्ति का प्रयोग निश्चित, सीमित और विशिष्ट रूप से किया जाता है, जबकि प्रभाव व्यक्ति, अमूर्त, अस्पष्ट एवं व्यापक होता है। कर्मशक्ति, समय, धन एवं प्रतिक्रिया की दृष्टि से प्रभाव में शक्ति की अपेक्षा अधिक मितव्ययिता पाई जाती है।
14. औचित्यपूर्णता की विशेषताएँ (Characteristics of Legitimacy)
औचित्यपूर्णता की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
1. औचित्यपूर्णता शक्ति को सत्ता में परिवर्तन करने का साधन वैध शक्ति ही सत्ता होती है। सामान्य शब्दों में, जब लोगों के द्वारा शक्ति को उचित माना जाता है तो वह शक्ति सत्ता होती है परन्तु यदि शक्ति लोगों की विवेकयुक्त कसौटी पर खरी नहीं उतरती तो उसे सत्ता नहीं कहा जा सकता है। इसका अभिप्राय यह है कि वैधता ही एक ऐसा गुण है जो शक्ति को सत्ता में परिवर्तित करता है।
2. किसी भी व्यवस्था का औचित्य सम्बन्धित लोगों के मूल्यों पर निर्भर करता है: किसी भी व्यवस्था का औचित्य इस बात पर निर्भर करता है कि व्यवस्था कुछ नेताओं के विश्वासों पर आधारित नहीं है|
अपितु राजनीतिक व्यवस्था का उन लोगों के विश्वासों के अनुसार होना आवश्यक है जिन लोगों पर वह व्यवस्था प्रयुक्त की जाती है।
3. औचित्य की धारणा के साथ प्रभाव की धारणा सम्बद्ध है प्रो. लिपसेट के अनुसार, किसी भी राजनीतिक व्यवस्था की स्थिरता उसकी वैधता और उसकी प्रभावकारिता पर निर्भर है। किसी व्यवस्था को औचित्यपूर्णता उसी समय प्राप्त हो सकती है जब उसने कुछ सीमा तक प्रभावकारिता प्राप्त कर ली हो।
15. औचित्यपूर्णता के आधार (Basis of Legitimacy)
1. सुरक्षा तथा सार्वजनिक कल्याण (Security and Public Welfare) : राज्य का महत्वपूर्ण कार्य अपनी जनता को सुरक्षा प्रदान करना और लोक कल्याण करना है। यदि राज्य की सरकार इन कार्यों को करेगी तो जनता उसे औचित्यपूर्ण मानेगी अन्यथा उसके विरुद्ध विद्रोह एवं असन्तोष की भावनाएँ पैदा होंगी।
2. राजनीतिक विचारधारा से लगाव (Attachment of Political Ideology): जनता जिस राजनीतिक विचारधारा से लगाव रखती है और सरकार उसी विचारधारा के आधार पर चलती है तो जनता औचित्यपूर्णता के आधार पर उसे बहुत समय तक चलने देगी परन्तु यदि सरकार जन- विचारधारा को बदलकर दूसरी विचारधारा लायेगी तो जनता उसका विरोध करेगी।
3. राष्ट्रवाद की भावना (Feeling of Nationalism) : औचित्यपूर्णता का आधार
राष्ट्रवाद की भावना भी है। जो सरकार राष्ट्रवाद को बढ़ावा देती है, जनता उसी को स्वीकार करती है अन्यथा राष्ट्रीय हित की विरोधी राजनीतिक व्यवस्था का विरोध किया जाता है; जैसे-भारत में स्वतन्त्रता से पूर्व ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध ।
4. अन्य आधार (Other Basis) : राजनीतिक प्रणाली अपने कार्यों और व्यवहार से जनता के मन में यह धारणा पैदा करे कि यह प्रणाली हमारे हित में है।
16. कानून से तात्पर्य
हिन्दी भाषा का शब्द कानून अंग्रेजी भाषा के शब्द लॉ (Law) का पर्यायवाची है जो अंग्रेजी शब्द लैग (Lag) से बना है, जिसका अर्थ है-ऐसी वस्तु जो सदैव स्थिर, स्थायी और निश्चित या सभी परिस्थितियों में समान रूप से रहे (That which is uniform) हैं। जब प्रकृति, मनुष्य या किसी वस्तु के कार्यक्रम या आचरण में स्थिरता या एकरूपता (Uniformity) आती है तब इस स्थिरता को विधि या कानून कहते हैं।
कानून की निम्नलिखित परिभाषाएँ हैं-
वुडरो विल्सन के अनुसार, “कानून स्थिति, विचार तथा स्वभाव का वह अंग है, जिसे शासन की शक्ति लागू करती है।”
पाउण्ड के शब्दों में, “न्याय के प्रशासन में जनता तथा नियमित न्यायालयों द्वारा मान्यता प्राप्त या लागू किए गए सिद्धान्तों को कानून कहते हैं।”
सालमण्ड के अनुसार, “कानून नियमों का वह समूह है जिसे राज्य मान्यता देता है और न्याय व्यवस्था के प्रशासन में लागू करता है।”
कानून के कुछ तत्व निम्न प्रकार हैं-
(1) कानून एक सामान्य नियम कानून सामान्य नियम इस अर्थ में हांता है कि यह समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर समान स्थिति में समान रूप से लागू होता है। अर्थात् कानून की निगाह में कोई भेदभाव नहीं होता है। यह सभी पर समान स्थिति में एक समान लागू होता है। एक राज्य में एक ही कानून संहिता लागू होती. है।
(2) कानून लागू होने के लिए नागरिक समाज आवश्यक : मानवीय समाज के समुचित संचालन के लिए समाज के कुछ नियमों का पालन आवश्यक है। समाज के नियमों से ही सामाजिक जीवन सुव्यवस्थित और सुखी हो सकता है। कानून लागू होने के लिए नागरिक समाज आवश्यक है क्योंकि कानून नागरिक समाज में ही लागू हो सकते हैं।
(3) कानून का निर्माण और उसको लागू कराने का कार्य सम्प्रभु का होता है : सम्प्रभु शक्ति ही राज्य के लिए कानूनों का निर्माण कर सकती है। मैकाइवर के शब्दों में, “राज्य कानून का पिता और पुत्र दोनों है।” कानून सम्प्रभु की आज्ञा के अतिरिक्त कभी-कभी कुछ समाज की वे परम्पराएँ, प्रथाएँ, विचारधाराएँ भी कानून का रूप धारण कर लेती हैं जिन्हें सम्प्रभु स्वीकार कर उनका पालन करता है। अतः राज्य अपने नागरिकों के लिए जो आचार संहिता तैयार करता है, उसे कानून कहते हैं।
(4) कानून का पालन आवश्यक : सम्प्रभुता कानून को लागू करती है और उसको उल्लंघन करने वालों को दण्डित करती है। कानून निश्चित और अन्तिम होता है। कानूनों के निर्णय के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती है। सम्प्रभु अपनी इस सत्ता का प्रयोग सरकार के माध्यम से कराती है।
(5) कानून मनुष्य के बाह्य आचरण से सम्बन्धित होता है : कानून व्यक्ति के बाहरी
क्रिया-कलापों को ही प्रभावित कर सकता है उसकी आन्तरिक भावना पर प्रभावी नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, यदि कोई राज्य यह कानून बनाए कि समस्त व्यक्ति मन्दिरों में जाकर मन से पूजा करेंगे तो यह कानून पूर्ण रूप से उचित नहीं है, क्योंकि व्यक्ति मन्दिर में तो चले जायेंगे, यदि नहीं जायेंगे तो उन्हें मन्दिर में पुलिस आदि के द्वारा पहुँचा दिया जाएगा। लेकिन यदि वे मन से पूजा न करें तो राज्य उन्हें बाध्य नहीं कर सकता है। यह आन्तरिक भावना कानून द्वारा प्रभावित -नहीं होती है।
(6) कानून का ज्ञान सभी के लिए आवश्यक है: सामान्यतः कानून का ज्ञान सभी के लिए अनिवार्य है, क्योंकि कानून के उल्लंघन से दण्ड मिलता है। कोई भी व्यक्ति कानून न जानने का बहाना करके दण्ड से अपने आपको नहीं बचा सकता है। (Ignorance of law is no excuse.)
(7) कानून का उद्देश्य सार्वजनिक हित है कानून बिना किसी पक्षपात के समस्त
प्राणियों पर लागू होने के लिए, समस्त समाज की भलाई के लिए बनाया जाता है। कानून किसी वर्ग, जाति, समूह, क्षेत्र, धर्म, भाषा आदि के लिए न होकर समस्त नागरिकों की भलाई के लिए बनाया जाता है।
17. अच्छे कानून के लक्षण
कानून का अन्तिम लक्ष्य जनता का जीवन सुखमय बनाना होता है। राज्य का उद्देश्य भी जनता को सुखी और समुन्नत बनाना है। राज्य अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए कानूनों का निर्माण करता है |
18. हम कानूनों का पालन क्यों करते हैं?
मानव जीवन में कानून का बहुत महत्व है। कानून के अभाव में एक सुसंगठित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। कानून मानव आचरण को नियमित करता है। हम कानून का पालन क्यों करते हैं? इसके बारे में कुछ विचार निम्न प्रकार हैं-
(1) भंय (Fear) : प्लेटो, काण्ट, बोदां, हॉब्स, एक्वीनास, बेन्थम, ऑस्टिन, हॉलैण्ड, विलोबी आदि इसके समर्थक हैं। उनका कहना है कि व्यक्ति दण्ड के भय से कानूनों का पालन करता है। यदि कानूनों का पालन न करें तो दण्ड मिलेगा। यह इस सिद्धान्त का आधार है जो उचित नहीं है क्योंकि हम केवल दण्ड के भय से ही कानूनों का पालन नहीं करते हैं।
(2) स्वभाव (Nature): आज्ञापालन करना परिवार में बच्चे को शुरू से ही सिखाया जाता है, यही आदत बड़े होने पर राज्य के कानूनों के पालन करने में सहयोगी होती है।
(3) सुरक्षा (Protection): कानून द्वारा लोगों के जीवन, सम्पत्ति, प्रतिष्ठा आदि की रक्षा होती है। यह सुरक्षा की भावना भी कानून पालन में सहयोगी है।
(4) उपयोगिता (Utility): प्रो. लास्की के अनुसार, कानून मानव जीवन की अनेक दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं यही उपयोगिता कानून पालन में प्रभावी है।
(5) अधिकारों की रक्षा (Protection of Rights) : कानून के कारण ही मनुष्यों के
अधिकारों की रक्षा हो पाती है तथा व्यक्ति अपने अधिकारों का उपयोग करते हैं जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास सम्भव होता है।
(6) कर्तव्य पालन की भावना (Sense of dutyfulness) : कानूनों का पालन कर्तव्य
पालन में सम्भव है। अतः कर्तव्य पालन की भावना कानूनों का उल्लंघन नहीं करने देती है।
(7) विवेक पर आधारित कानून (Laws are based on wisdom) : कुछ व्यक्ति कानून का पालन इसलिए करते हैं क्योंकि वे सोच-विचार कर बनाए जाते हैं उनका आधार बुद्धि और विवेक होता है।
(8) सहमति (Consent): प्रजातन्त्र में जनता की सहमति से ही कानूनों का निर्माण होता है, अतः जनता यह सोचकर कानूनों का पालन करती है कि ये उसकी इच्छा, सहमति और सहयोग से ही निर्मित हुए हैं।
19. भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व
कार्यात्मक लोकतंत्र का एक मूल तत्व सभी नागरिकों को देश की राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में भाग लेने की अनुमति देना है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में सभी रूपों (मौखिक, लिखित, प्रसारण, आदि) में भाषण, विचार और अभिव्यक्ति की पर्याप्त स्वतंत्रता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी न केवल भारतीय संविधान द्वारा दी गई है, बल्कि मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (10 दिसंबर 1948 को घोषित) नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय संधि, मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता पर यूरोपीय कन्वेंशन जैसे अंतर्राष्ट्रीय कानूनों द्वारा भी दी गई है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण है क्योंकि लोकतंत्र तभी अच्छा काम करता है जब लोगों को सरकार के बारे में अपनी राय व्यक्त करने और जरूरत पड़ने पर उसकी आलोचना करने का अधिकार हो।
लोगों की आवाज सुनी जानी चाहिए और उनकी शिकायतों का समाधान किया जाना चाहिए।
न केवल राजनीतिक क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जैसे अन्य क्षेत्रों में भी, सच्चे लोकतंत्र में लोगों की आवाज सुनी जानी चाहिए।
उपरोक्त स्वतंत्रताओं के अभाव में लोकतंत्र खतरे में है। सरकार अत्यधिक शक्तिशाली हो जाएगी और आम जनता के बजाय कुछ लोगों के हितों की सेवा करना शुरू कर देगी।
• स्वतंत्र भाषण और स्वतंत्र प्रेस के अधिकार पर भारी दबाव एक भय-कारक पैदा करेगा जिसके तहत लोग चुपचाप अत्याचार सहेंगे। ऐसें परिदृश्य में, लोग दबा हुआ महसूस करेंगे और
अपनी राय व्यक्त करने के बजाय कष्ट सहना पसंद करेंगे। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी एक महत्वपूर्ण कारक है।
भारत के दूसरे मुख्य न्यायाधीश, एम पतंजलि शास्त्री ने कहा है, “भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता सभी लोकतांत्रिक संगठनों की नींव में है, क्योंकि स्वतंत्र राजनीतिक चर्चा के बिना कोई सार्वजनिक शिक्षा नहीं है, जो सरकार की प्रक्रिया के उचित कामकाज के लिए बहुत आवश्यक है।”, संभव है।”
भारतीय संदर्भ में इस स्वतंत्रता के महत्व को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि प्रस्तावना ही सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है।
उदारवादी लोकतंत्रों में, विशेष रूप से पश्चिम में, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बहुत व्यापक व्याख्या है। लोगों को स्वतंत्र रूप से असहमति व्यक्त करने की बहुत सारी छूट है।
हालाँकि, अधिकांश देशों (उदार लोकतंत्रों सहित) में किसी न किसी प्रकार की सेंसरशिप. लगा है, जिनमें से अधिकांश मानहानि, घृणास्पद भाषण आदि से संबंधित हैं।
सेंसरशिप के पीछे का विचार आम तौर पर देश में कानून और व्यवस्था के मुद्दों को रोकना है।
20. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की आवश्यकता एवं प्रतिबंध
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चार औचित्य हैं। वे हैं:
1. खुली चर्चा द्वारा सत्य की खोज के लिए।
2. यह आत्म-संतुष्टि और विकास का एक पहलू है।
22. संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (ए)
संविधान का अनुच्छेद 19(1) (ए) के अनुसार सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा।
इसका तात्पर्य यह है कि सभी नागरिकों को अपने विचार और राय स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का अधिकार है।
इसमें न केवल मौखिक शब्द शामिल हैं, बल्कि लेखन, चित्र, फिल्में, बैनर आदि के माध्यम से भाषण भी शामिल है।
बोलने के अधिकार में न बोलने का अधिकार भी शामिल है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि खेलों में भाग लेना स्वयं की स्वतंत्रता का एक रूप है।
2004 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रीय ध्वज फहराना भी इसी आजादी का एक रूप है
इस अनुच्छेद के तहत प्रेस की स्वतंत्रता एक अनुमानित स्वतंत्रता है।
इस अधिकार में सूचना तक पहुंच का अधिकार भी शामिल है क्योंकि जब दूसरों को जानने/सुनने से रोका जाता है तो यह अधिकार निरर्थक है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विधि आयोग से चुनाव आयोग को “घृणास्पद भाषण” की समस्या को प्रतिबंधित करने के लिए सशक्त बनाने के लिए संसद को सिफारिश करने के लिए कहा था, चाहे वह कभी भी किया जाए। लेकिन विधि आयोग ने सिफारिश की कि किसी भाषण को प्रतिबंधित करने से पहले कई कारकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए, जैसे भाषण का संदर्भ, भाषण देने वाले की स्थिति, पीड़ित की स्थिति और भाषण की भेदभाव पैदा करने की क्षमता और विघटनकारी परिस्थितियाँ।
कला के संबंध में, अदालत ने माना है कि “कला इतनी प्रबल होनी चाहिए कि अश्लीलता को छाया में डाल दे या अश्लीलता इतनी तुच्छ और महत्वहीन हो कि उसका कोई प्रभाव न पड़े और उसे अनदेखा किया जा सके।”..
सिनेमाघरों में क्या दिखाया जा सकता है, इस पर प्रतिबंध हैं और यह सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 द्वारा शासित है।
भारत का संविधान अपने सभी नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, हालांकि, ये स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 19 (2) इस स्वतंत्रता को एक सुरक्षा प्रदान करता है जिसके तहत इस अधिकार के प्रयोग पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (2) राज्य को ऐसे कानून बनाने की अनुमति देता है। जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तब तक प्रतिबंधित करते हैं जब तक वे इन पर कोई प्रतिबंध लगाते हैं।
21. संयुक्त राष्ट्र संघ तथा मानव अधिकार
1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के लिए एकत्रित अनेक प्रतिनिधियों ने चार्टर में ही मानव अधिकार सम्बन्धी विस्तृत घोषणा और तत्सम्बन्धी व्यवस्थाओं की माँग की। इसीलिए चार्टर में मानव अधिकारों से सम्बन्धित स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
(i) चार्टर की प्रस्तावना में, “मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरव तथा महत्व में तथा पुरुष एवं स्त्री के समान अधिकारों में” विश्वास प्रकट किया गया है।
(ii) अनुच्छेद 1 में कहा गया है “मानव अधिकारों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना तथा जाति, लिंग, भाषा या धर्म के बिना किसी भेदभाव के मूलभूत अधिकारों को बढ़ावा देना तथा प्रोत्साहित करना।”
(iii) अनुच्छेद 13 में महासभा के द्वारा, “जाति, लिंग, भाषा या धर्म के भेदभाव के बिना सभी को मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं की प्राप्ति में सहायता देना” की व्यवस्था है।
(iv) अनुच्छेद 55 में प्रावधान है कि संयुक्त राष्ट्र संघ “जाति, लिंग, भाषा अथवा धर्म के भेदभाव के बिना सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं को” बढ़ावा देगा।
(v) अनुच्छेद 56 में व्यवस्था है कि सभी सदस्य राज्य मानव अधिकारों तथा मानव स्वतन्त्रताओं की प्राप्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को अपना सहयोग देंगे।
(vi) अनुच्छेद 62 के अनुसार आर्थिक और सामाजिक परिषद् के द्वारा “सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के प्रति सम्मान की भावना बढ़ाने तथा उनके पालन के सम्बन्ध में सिफारिश करने” की व्यवस्था है।
मानव अधिकारों के लिए नियुक्त संयुक्त राष्ट्र संघ आयोग द्वारा मानव अधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा का मसविदा लगभग तीन वर्षों के प्रयासों के बाद तैयार किया गया, जिसे कुछ संशोधनों के साथ 10 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया। इसलिए प्राप्ति वर्ष 10 दिसम्बर को ‘मानवाधिकार दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। मानव अधिकार घोषणा-पत्र में प्रस्तावना सहित 30 अनुच्छेद हैं।
इस घोषणा-पत्र में नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, काम का अधिकार, समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार, ट्रेड यूनियनों, विश्राम, शिक्षा तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, सामाजिक भरण-पोषण का अधिकार, जीवन का अधिकार, विचार, धर्म, शान्तिपूर्ण सभाएँ करने तथा संगठन बनाने जैसे अधिकार सम्मिलित हैं।
22. अवसर की समानता
प्रत्येक व्यक्ति को अवसर की समानता प्राप्त होनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति अवसरों के समान अभाव के कारण किसी वस्तु को प्राप्त करने से वंचित नहीं रहना चाहिए। अवसर की समानता को निम्न रूप में बेहतर जाना जा सकता है-
1. विशेष अधिकारों का अभाव समानता की प्रथम विशेषता यह है कि समाज में किसी वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिए। किसी व्यक्ति को धर्म, लिंग, धन के आधार पर अवसर की सुविधा प्राप्त नहीं होनी चाहिए। जहाँ किसी वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं वहाँ अवसर की समानता का प्रश्न ही नहीं उठता।
2. प्राकृतिक असमानताओं का नाश अवसर की समानता की विशेषता यह होनी चाहिए कि समाज में प्राकृतिक असमानताओं को नष्ट कर देना चाहिए।
3. सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति अवसर की समानता की यह भी विशेषता है कि समाज के सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। सभी व्यक्तियों को समान वेतन तो नहीं दिया जा सकता परन्तु प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। एक तरफ लखपति-करोड़पति तथा दूसरी तरफ भूखे व्यक्ति नहीं होने चाहिए। काम के पश्चात् व्यक्ति को भूखा न रहना पड़े।
23. राजनीतिक समानता
राजनीतिक समानता का अर्थ यह है कि राजनीतिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने के अवसर सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त होने चाहिए। राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र या तानाशाही व्यवस्था राजनीतिक समानता के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करती। इन व्यवस्थाओं में जन्म या वंश के आध ार पर भेदभाव एक सामान्य स्थिति है, लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था राजनीतिक समानता क सिद्धान्त पर आधारित होती है। राजनीतिक समानता के अन्तर्गत सामान्य रूप से निम्नलिखित समानताएँ आती हैं:
1. मतदान का अधिकार मतदान का अधिकार राजनीतिक समानता की प्रथम स्थिति है। इसका आशय यह है कि धर्म, जाति, सम्पत्ति, शिक्षा या लिंग के आधार पर किसी भेदभाव के बिना सभी व्यक्तियों को मत देने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। अवयस्क व्यक्तियों, पागल, दिवालिये या संविधान द्वारा मान्य अन्य किसी आधार पर अवश्य ही किन्ही व्यक्तियों को मताधिकार से वंचित किया जा सकता है।
2. चुनाव में उम्मीदवार बनने का अधिकार नागरिकों को चुनाव में उम्मीदवार होने का अधिकार समान रूप से प्राप्त होना चाहिए। इसमें यह बात निहित है कि संविधान में उल्लिखित किन्हीं अयोग्यताओं से ग्रसित व्यक्तियों को उम्मीदवार होने के अयोग्य घोषित किया जा सकता है। भारत में ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951’ में ऐसी योग्यताओं का निर्धारण किया गया है। और यह राजनीतिक समानता के विरुद्ध नहीं हैं।
3. प्रार्थना-पत्र अधिकार नागरिकों को प्रार्थना-पत्र देने और इस माध्यम से अपनी शिकायतें सरकार तक पहुँचाने का अधिकार समान रूप से होना चाहिए।
4. राजकीय नियुक्तियाँ तथा सम्मान प्राप्त करने का अधिकार राजकीय नियुक्तियाँ तथा राजकीय सम्मान करने के लिए सभी को समान रूप से अधिकारी समझा जाना चाहिए। केवल शिक्षा सेवा या किसी विशेष योग्यता के आधार पर इस सम्बन्ध में भेदभाव किया जा सकता है।
5. विचारों की अभिव्यक्ति तथा दलीय संगठनों के निर्माण का अधिकार भी सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त होना चाहिए।
24. मानवाधिकार के विभिन्न रूप
मानवाधिकार शब्द से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस शब्द के विभिन्न रूप हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे कई रूपों में विभाजित भी किया है-
राजनीतिक मानवाधिकार राजनीतिक मानवाधिकार किसी भी लोकतान्त्रिक समाज का आधार होता है। राजनीतिक मानवाधिकार के अन्तर्गत राष्ट्रीयता एवं शरण पाने का अधिकार, शान्तिपूर्वक सभा व संघ गठित करने का अधिकार, सरकार में शामिल होने व सार्वजनिक आन्दोलन की स्वतन्त्रता एवं विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार शामिल किया जाता है।
नागरिक अधिकार: जीवन, स्वतन्त्रता एवं सम्पत्ति से सम्बन्धित ऐसे अधिकारे जो सभी व्यक्तियों और राष्ट्रों के जीवन के सभ्य तरीकों को बढ़ावा देने में सहायता करते हैं, नागरिक अधिकार के रूप में जाने जाते हैं। मानवाधिकारों की घोषणा में उन अधिकारों का उल्लेख है जिनके लिए सभी मनुष्य बिना किसी भेदभाव के हकदार हैं।
सामाजिक एवं आर्थिक मानवाधिकार सामाजिक एवं आर्थिक मानवाधिकार के अन्तर्गत सामाजिक सुरक्षा, कार्य करने, आराम करने व अवकाश प्राप्त करने एवं स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक मानव जीवन-स्तर बनाये रखने के अधिकार वर्णित हैं।
सांस्कृतिक मानवाधिकार विभिन्न देशों के लोगों में तथा देश के विभिन्न भागों के लोगों में विविध प्रकार की परम्पराएँ व रीति-रिवाज पाये जाते हैं। इन सभी को संरक्षित करने का अधिकार मानव को प्राप्त है तथा इस माध्यम से मानव अपनी संस्कृतियों को सुरक्षित रखता है।
Confirm Question
By Madhav sir
Q. 1. स्वतंत्रता की परिभाषा देते हुए इसके विभिन्न प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
(Define liberty and discuss its different kinds.)
Ans. ‘स्वतन्त्रता’ शब्द की व्याख्या तथा अर्थ बहुत ही गलत समझा गया है | जिसका परिणाम यह हुआ है कि विभिन्न विचारकों ने इसकी विभिन्न व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। उदाहरण के लिए मानव के अधिकारों का फ्राँसीसी घोषणा-पत्र (French Declaration of Rights of Man) कहता है कि – “स्वतन्त्रता सब कुछ करने की शक्ति है जो दूसरे को क्षति नहीं पहुँचाती है।” लिबर (Liber) कहता कि ‘यह करने की शक्ति की इच्छा का वह तत्व है कि जो किसी अन्य स्त्रोत से प्रभावित हुए बिना अथवा उनके बिना स्वतः करने की इच्छा होती है।” लास्की (Laski) के अनुसार “स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्राय उन वर्त्तमान सामाजिक परिस्थितियों पर अवरोध का न होना है जो आधुनिक सभ्यता में व्यक्ति की प्रसन्नता के लिए आवश्यक गारन्टी हैं। शायद हरबर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) ने इस शब्द की सबसे उपयुक्त परिभाषा की है जब वह कहता है “प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुकूल कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है यदि उससे दूसरे की समान स्वतन्त्रता में बाधा नहीं पड़ती है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि स्वतन्त्रता वह सब कुछ करने तथा उपभोग करने की स्वतन्त्रता है जिसके पीछे समाज की स्वीकृत है तथा जो उपभोग करने योग्य है।
स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं।
1. प्राकृतिक स्वतंत्रता (Natural liberty): प्राकृतिक स्वतंत्रता का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। साधारण बोलचाल की भाषा में प्राकृतिक स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी करना है। अर्थात, उसके ऊपर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है, लेकिन ऐसी मनमानी स्वतंत्र समाज में संभव नहीं है; क्योंकि ऐसा होने से अराजकता का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा और सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाएगी। दूसरे संदर्भ में, प्राकृतिक स्वतंत्रता का अर्थ राज्य की उत्पत्ति से पहलेवाली प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) की स्वतंत्रता से है, जिसका वर्णन हॉब्स, लॉक और रूसो ने अपने दर्शन में किया है। रूसो ने कहा है- “मनुष्य स्वतंत्र रूप से जन्म लेता है, लेकिन सब जगह वह बंधनों में बंध जाता है।” उसके विचार में वास्तविक स्वतंत्रता का उपभोग तो मानव प्राकृतिक अवस्था में ही करता है। बाद में, समाज के अंतर्गत उसकी स्वतंत्रता सीमित हो गई है और उस पर अनेक प्रकार के बंधन लगा दिए गए। लेकिन, प्राकृतिक स्वतंत्रता की यह धारणा एक कोरी कल्पना है। आधुनिक विद्वानों के मतानुसार राज्य या समाज के निर्माण के पूर्व स्वतंत्रता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। प्राकृतिक स्वतत्रता तो अराजकता का द्योतक है। लेकिन, प्राकृतिक स्वतंत्रता की धारणा ने कल्पना की उड़ान के बावजूद आधुनिक राज्य के अधिकार को निरंकुश होने से बचाया है और इस मान्यता को महत्त्व दिया है कि ‘स्वतंत्रता मानव का जन्मसिद्ध अधिकार है।’।
2. वैयक्तिक स्वतंत्रता (Personal liberty): वैयक्तिक स्वतंत्रता का यह अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार अपने जीवन को नियोजित करने का अधिकार होना चाहिए, जिससे वह अपनी शक्तियों का उपभोग कर अपना विकास इच्छानुसार कर सके। लॉस्की ने वैयक्तिक स्वतंत्रता का अर्थ ऐसे अवसरों से लगाया है जिनका प्रयोग व्यक्ति स्वेच्छा से जीवन के उन क्षेत्रों में करता है जिनका प्रभाव उसी तक सीमित रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि हर व्यक्ति को इच्छानुसार एक विशिष्ट ढंग से अपना जीवन चलाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए; बशर्ते उससे सामाजिक शांति और सुरक्षा को कोई खतरा न पहुँचता हो। उदाहरण के लिए अपना रहन-सहन, खान-पान, शादी-विवाह इत्यादि |
Q. 2. स्वतंत्रता की परिभाषा देते हुए इसके सकारात्मक नकारात्मक स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
(Discuss the Positive and Negative concepts of Liberty.) अथवा, स्वतंत्रता की अवधारणा का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
Ans. स्वतन्त्रता एक ऐसा शब्द है जिसकी न केवल व्याख्या करने में संभ्रान्ति उत्पन्न हुई है अपितु इसको ‘बड़ा ही गलत समझा गया है। समाज के विभिन्न वर्गों तथा विभिन्न दार्शनिकों ने इस शब्द का अर्थ अपने-अपने हितों के अनुकूल समझा है। प्लेटो तथा अरस्तू दोनों के अनुसार स्वतन्त्रता का लाभ केवल नागरिकों को ही प्राप्त होना चाहिये। उनके अनुसार दास बिल्कुल स्वतन्त्र नहीं थे। मध्य युग में सामन्ती लार्डो ने स्वतन्त्रता की व्याख्या इस ढंग से की थी जिससे उनको निर्धन किसानों का शोषण करने में सहायता मिले। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ (Adam Smith) ने अपने अबन्ध नीति सिद्धान्त (Theory of the Laissez Faire) में ‘स्वतन्त्रता’ शब्द की व्याख्या सर्वथा भिन्न प्रकार से की थी।
आधुनिक काल में ‘स्वतन्त्रता’ शब्द की व्याख्या भिन्न प्रकार से की गई है। हम भौतिक – युग में रह रहे हैं जिसमें अमीर और गरीब में संघर्ष निरन्तर चल रहा है। ऐसे युग में अमीरों के लिए धन कमाने की स्वतन्त्रता ही वास्तविक धन स्वतन्त्रता है। दूसरी ओर गरीब शोषण से स्वतन्त्रता के रूप में ‘स्वतन्त्रता’ शब्द का अर्थ लगाते हैं।
स्वतन्त्रता की परिभाषा (Definition of Liberty) – ‘स्वतन्त्रता’ शब्द की व्याख्या तथा
अर्थ बहुत ही गलत समझा गया है जिसका परिणाम यह हुआ है कि विभिन्न विचारकों ने इसकी विभिन्न व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। उदाहरण के लिए मानव के अधिकारों का फ्राँसीसी घोषणा-पत्र (French Declaration of Rights of Man) कहता है कि “स्वतन्त्रता सब कुछ करने की शक्ति है जो दूसरे को क्षति नहीं पहुँचाती है।” लिबर कहता कि- ‘यह करने की शक्ति की इच्छा का वह तत्व है कि जो किसी अन्य स्रोत से प्रभावित हुए बिना अथवा उनके बिना स्वतः करने की इच्छा होती है।” लॉस्की (Laski) के अनुसार “स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्राय उन वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों पर अवरोध का न होना है जो आधुनिक सभ्यता में व्यक्ति की प्रसन्नता के लिए हो |
Q. 3. कानून क्या है? इसके प्रमुख स्त्रोतों की विवेचना कीजिए।
(What is Law? Discuss its main sources.) By Madhav sir
Ans. कानून की परिभाषा: कानून शब्द का साधारण अर्थ उन नियमों के लिए किया जाता है जो निश्चित अथवा एक जैसे हों परन्तु आजकल इसका प्रयोग विभिन्न लोगों तथा संस्थाओं द्वारा भिन्न-भिन्न अर्थों में होता है। रसायन तथा भौतिकी जैसे विज्ञानों में इसका अर्थ कारण तथा कार्य के अनुक्रम से लिया जाता है उदाहरण के लिए आँच के उपर लोहा फैलता है। सामाजिक विज्ञानों में इसका अर्थ उस वस्तु से है जिसका सम्बन्ध हमारी बाह्य क्रियाओं से है। यह उच्च सत्ता के आदेश के रूप में ही केवल समझा जाता है जिसको लागू करने के लिए सत्ता की स्वीकृति प्राप्त करनी होती है। समाज में यह हमारे आपसी आचरण को नियमित करता है। ये नैतिक उत्तरदायित्व हैं तथा इस लिए ये नैतिक कानून कहलाते हैं। ऐसे कानूनों के पीछे केवल समाज का बल होता है और आज्ञा पालन कराना समाज की अपनी शक्ति पर ही निर्भर करता है। सजग समाज में ऐसे कानून बड़ी दृढ़ता तथा सबलता से लागू किये जाते हैं जबकि अस्वस्थ तथा दुर्बल समाज में इनकी अवहेलना की जाती है। परन्तु यहाँ हमारा सम्बन्ध राजनैतिक अथवा निर्णयात्मक कानूनों से है जो राज्य द्वारा लागू किये जाते हैं तथा जिनका उल्लंघन न केवल दण्डनीय अपराध है अपितु असहनीय भी है। कानूनों के स्वरूप तथा गुणों के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं जो निम्नलिखित हैं
(1) विश्लेषणात्मक विचारधारा (The Analytical School): इस विचारधारा का
अगुआ जॉन अस्टिन है जिसने कहा था कि अधिकार प्राप्त बड़े व्यक्ति का अपने अधीनस्थ को आदेश है तथा कानून राज्य की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह लोगों से कानून मनवाता है। यह अधिकार प्राप्त बड़ा मनुष्य केवल एक व्यक्ति अथवा निगम निकाय हो सकता है परन्तु वह राजनैतिक समाज में प्रभुत्व सम्पन्न है। इस विचारधारा से मैक्यावली तथा बोदिन और बहुत हद तक हॉब्स भी सहमत हैं। यह इस बात को मानता था कि कानुन का स्त्रोत चाहे कुछ भी हो परन्तु उसको लागू करने के लिए राज्य की बल प्रयोग की शक्ति सदा रहती है। दूसरे शब्दों में इस सिद्धान्त के अनुसार यदि राज्य की शक्ति को हटा दिया जाये या वह समाप्त हो जाये तो कानून का कोई भी आदर नहीं करेगा।
(2) ऐतिहासिक विचारधारा (The Historical School) : सर हेनरी मेन इस विचारधारा से मुख्य रूप से सम्बन्धित है। उनका मत है कि यह आवश्यक नहीं है कि कानून अधिकार प्राप्त बड़े व्यक्ति का आदेश है अपितु यह विभिन्न रीति-रिवाजों परिपार्टियों तथा धार्मिक आदेशों आदि ‘की देन है। वे इस बात में कभी भी विश्वास नहीं रखते हैं कि बल ही केवल मात्र एक ऐसी सत्ता है जो क़ानूनों को नियमित करती है अपितु इसके अतिरिक्त मनुष्य की कानूनों को पालन करने की इच्छा जैसी कुछ अच्छी बातें हैं जो कानूनों की आज्ञा पालन कराने में सहायता करती हैं। उनके अनुसार कानून बिकासशील है तथा उसको समय की आवश्यकताओं के अनुसार अपने आप को ढालना चाहिए।
(3) सामाजिक विचारधारा (The Sociological School) : क्रैबे इस विचारधारा का सबसे बड़ा समर्थक है। उसके अनुसार कानून मनुष्यों द्वारा किये गये अनेक निर्णयों का ही फल तथा देन है। उसने आगे कहा है कि कानून बाह्य वैध सत्ता की वस्तु न होकर मानव के भीतर की वस्तु है।
Q.4. सत्ता से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न स्त्रोतों की व्याख्या करें। अथवा, सत्ता का अर्थ, स्त्रोत एवं प्रकारों का वर्णन करें।
(What is Authority? Discuss its sources and various kinds.)
Ans. सत्ता का अर्थ राजनीति विज्ञान में सत्ता को कई बातों से परिभाषित किया गया है। सत्ता का शक्ति तथा प्रभाव से गहरा सम्बन्ध है। वायर्सटेड के शब्दों में “सत्ता शक्ति के प्रयोग का संस्थापक अधिकार है, वह स्वयं शक्ति नहीं है।”
डियूविन के शब्दों में “सत्ता संगठित समूह स्थितियों में शक्ति का प्रकटीकरण है उसकी. वैज्ञानिकता को औचित्य के साथ मिलाया जाता है।” साइमाँ के अनुसार “सत्ता की स्थिति तब अनुसार तक मानी जाती है जब तक अधीनस्थ व्यक्ति विभिन्न विकल्पों में से चयन करने वाली अपनी मानसिक शक्तियों को स्थगित कर देते हैं।” इस प्रकार सत्ता औपचारिक आदेश की प्राप्ति को अपने चयन का मापदण्ड बना लेते हैं|
मेकाइवर के अनुसार “सत्ता शासन का जादू है।”
बीच के शब्दों में, “दूसरे के कार्य निष्पादन को प्रभावित या निर्देशित करने के औचित्यपूर्ण अधिकार को सत्ता कहते हैं।”.
रोबे के अनुसार “सत्ता व्यक्तियों तथा व्यक्ति समूहों को राजनैतिक विनिश्चयों के निर्माण तथा राजनैतिक को प्रभावित करने वाला अधिकार है।”
जेक्यूज मेरिटेन के शब्दों में “नेतृत्व एवं आदेश देने, दूसरों के द्वारा सुने जाने एवं अनुज्ञा पालन के अधिकार को हम सत्ता कहेंगे।”
लासवेल तथा कैटलिन के अनुसार “सत्ता अनौपचारिक शक्ति है।” सत्ता की उपरोक्त व्याख्याओं से स्पष्ट है कि सत्ता का वास्तविक आधार अधीनस्थ अथवा जिन्हें आदेश दिये जाते हैं की सहमति होती है। इस प्रकार सामान्य स्वीकृति के साथ शक्ति के प्रयोग को सत्ता कहा जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय समाज विज्ञान के शब्दकोष में सत्ता को किसी कार्यालय या पद या व्यक्ति विशेष की सम्पदा कहा गया है। 1955 में प्रकाशित यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार सत्ता वह शक्ति है जो कि स्वीकृति, सम्मानित ज्ञान एवं औचित्यपूर्णता होती है। लोक प्रशासन के विद्वानों के अनुसार सत्ता अधीनस्थों के व्यवहार को प्रत्यक्षतः प्रभावित करने का अधिकार है। सत्ता औचित्यपूर्णता पर आधारित होती है तथा सत्ता कानून द्वारा अनुमोदित होती है। हैमन सत्ता को प्रबन्धात्मक कार्यों तथा प्रत्यायोजना की कुंजी मानी है। सत्ता प्राधिकारी तथा अधीनस्थ के मध्य अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध स्थापित करने वाली होती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सत्ता का आधार अधीनस्थों की स्वीकृति है तथा सत्ता के पीछे व्यवस्था याः संगठन की औचित्यपूर्ण शक्ति होती है। इस शक्ति के ही कारण सत्ता को स्वीकार किया जाता है।
सत्ता के प्रकार एवं स्त्रोत (Forms/Kinds & Source of Authority): मैक्स बेवर ने सत्ता के तीन प्रकार (स्त्रोत) बतलाये हैं।
1. परम्परावाद, 2. बौद्धिक एवं कानूनी 3. करिश्मावाद।feso
1. परम्परावाद: जब अधीनस्थ अधिकारी या प्रजा या संगठन विशेष के सदस्य अफ्ने वरिष्ठ अधिकारी के आदेशों का पालन इस आधार पर करते हैं कि ऐसा हमेशा से होता आया है। यह एक परम्परा है तब हम उसे परंपरावादी सत्ता कहेंगे। राजतंत्र प्रणाली में राजा के आदेशों का पालन इसी आधार पर होता था। इस प्रकार सत्ता में आदेशों का पालन परम्परा का प्रतीक माना जाता है। touris
2. बौद्धिक एवं कानूनी : सत्ता एवं औचित्यपूर्णता का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जब अधीनस्थ किसी आदेश को इस आधार पर स्वीकार करते हैं कि वे आदेश किसी नियम से की सत्ता बौद्धिक आधार पर तथा कानूनों पर आधारित होती है। वर्तमान नौकरशाही इसी सत्ता सम्बन्धित हैं तथा औचित्यपूर्ण हैं तथा इसे बौद्धिक एवं कानूनी सत्ता समझा जाता है। इस प्रकार का स्वरूप है।
Q. 5. समाज में असमानता के क्या कारण हैं? असमानता को कैसे दूर किया जा सकता है?
(What are the reasons for ineqality in society? How can Inequality be removed.)
अथवा, असमानता, तर्कसंगत एवं सकारात्मक कारवाई से जुड़े विभिन्न पहलुओं का वर्णन करें।
(Or, Explain the concept of inequality, differential treatment (discrimination) and affirmative action.)
Ans. समता (या समानता) और विषमता (Equality and Inequality) की समस्या आदिकाल से ही राजनीतिक चिंतन की मुख्य समस्या रही है। उदाहरण के लिए, अरस्तु ने कहा था कि विषमता अनेक राज्यों में विद्रोह (Rebellion) का कारण सिद्ध होती है। परंतु समता और विषमता के मानदंड प्रत्येक युग में बदलते रहते हैं। आधुनिक युग में समानता के सिद्धांत की सबसे तर्कसंगत परिभाषा देने का प्रयत्न किया गया है। कुछ भी हो, समानता का विचार एक जटिल विचार है और कभी-कभी इसका विरोध करने वाले इसके ऐसे-ऐसे अर्थ लगाते हैं जो इसके समर्थकों के मन में नहीं होते। अतः शुरू-शुरू में इसके बारे में फैली हुई भ्रातियों को दूर करना जरूरी है।
प्रस्तुत अर्थ में समानता का विचार एक आधुनिक विचार है। अमरीकी क्रांति (1776) और फ्रांसीसी क्रांति (1789) वे पहले तक समाज में धन-संपदा, पद-प्रतिष्ठा और शक्ति की विषमताओं को स्वाभाविक और अटल व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया जाता था और प्रचलित विचारधारा के अंतर्गत उन्हें उचित और तर्कसंगत ठहराने का प्रयत्न किया जाता था। आधुनिक युग के आरंभ से इन विषमताओं पर प्रश्न चिह्न लगाकर यह पता लगाने की कोशिश की जाने लगी कि कौन-कौन-सी विषमताएँ सामाजिक व्यवस्था की उपज हैं; इनमें से कौन-कौन-सी विषमताएँ अनुचित हैं और ऐसी किन-किन विषमताओं को सामाजिक कार्रवाई के द्वारा दूर किया जा सकता है? मतलब यह कि मनुष्यों की समानता एक मान्य सिद्धांत है और सामाजिक जीवन में केवल उन्हीं विषमताओं को स्वीकार किया जा सकता है जिनका कोई तर्कसंगत आधार हो।
जे.जे. रूसो (1712-78) ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘ए डिस्कोर्स ऑन द ओरिजिन ऑफ इनिक्वैलिटी’ (विषमता की उत्पत्ति पर एक वार्ता) (1755) के अंतर्गत मनुष्यों में दो प्रकार की विषमताओं में अंतर किया है: प्राकृतिक विषमता (Natural Inequality) और परंपरागत विषमता (Conventional Inequality)। प्राकृतिक विषमता वस्तुस्थिति का विवरण देती है, जैसे कि मनुष्य-मनुष्य में आयु, स्वास्थ्य, सौंदर्य, बाहु-बल और बुद्धि-बल इत्यादि में पाई जाने वाली भिन्नताएँ। ये भिन्नताएँ प्राकृतिक व्यवस्था की देन हैं और ये प्रायः अटल या अपरिवर्तनीय (Unalterable) हैं; इन्हें मनुष्य ने न तो स्वयं बनाया है, न वह इनमें कोई फेर-बदल कर सकता. है। दूसरी ओर, परंपरागत विषमता धन-संपदा, पद-प्रतिष्ठा और शक्ति की भिन्नताओं (Disparities in Wealth, Prestige and Power) को सूचित करती है। इसके अंतर्गत कुछ गिने-चुने लोगों को ऐसे विशेषाधिकार (Privileges) प्राप्त होते हैं जिनसे जनसाधारण को वर्वाचित रखा जाता है।