Music MJC 1 Viral Question | BA 1st Sem Music MJC 1 Exam 2024-28 | Download PDF
BA 1st Sem Music MJC 1 Exam 2024-28 | Download PDF
BA 1st Semester Exam Details
Exam Date | 17 January |
Shift Name | 2nd Shift |
Timing | 2; 00 – 5 बजे शाम तक |
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परीक्षा में बैठने से पहले इसे जरूर देखें
साथियों परीक्षा में जाने से पहले दी गई कुछ जानकारी को आप जरूर अच्छी तरह से समझ लें|
आज से शुरू हो रहे LNMU UG 1st सेमेस्टर का परीक्षा में सम्मिलित होने वाले सभी छात्र छात्रों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
👉Be Positive 👍😍
👉Best of Luck 🤞ग्रुप एडमिन आपके साथ है
👉परीक्षा हॉल में सकारात्मक मानसिकता के साथ प्रवेश करें और अच्छा प्रदर्शन करें। हमें विश्वास है कि आप अच्छे अंकों के साथ सफल होंगे..
👉कृपया निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें:
1.👉 परीक्षा केंद्र पर एक घंटे पहले पहुंचें
2. 👉मूल आधार कार्ड या अन्य आईडी प्रूफ, एक पासपोर्ट साइज फोटो और प्रवेश पत्र लाएं
3. 👉पानी की बोतल और स्टेशनरी जैसे परीक्षा पैड, पेन, पेंसिल, स्केल, आदि ला सकते हैं
4. एक साधारण घड़ी भी ला सकते हैं
5. स्मार्टफोन और चीट शीट (गेस पेपर) परीक्षा केंद्र पर न लाएं, अन्यथा आपको जिम्मेदार माना जाएगा।
6. 👉चूंकि अभी ठंडी का मौसम है, अपने आप को गर्म कपड़े पहनकर परीक्षा केंद्र पर जाएंगे
7. 👉तेज ठंडी से बचने के लिए मफलर, टोपी इत्यादि से अपने सिर और कान को ढक कर रखें….
प्रश्न-1. संगीत की उत्पत्ति एवं परिभाषा देते हुए विस्तृत व्याख्या करें।
उत्तर- संगीत के जन्म के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार विभिन्न विचार व्यक्त किए हैं। संगीत की उत्पत्ति सर्वप्रथम वेदों के निर्माता ब्रह्मा द्वारा हुई, ब्रह्मा ने यह कला शिव को दी और शिव द्वारा सरस्वती को प्राप्त हुई। सरस्वती से संगीत कला का ज्ञान नारद को प्राप्त हुआ। नारद ने स्वर्ग के गन्धर्व, किन्नर तथा अप्सराओं को संगीत शिक्षा दी, वहां से ही भरत, हनुमान आदि ऋषि इस कला में पारंगत होकर भूलोक में संगीत के प्रचारार्थ अवतरित हुए। पण्डित अहोबल के अनुसार, “ब्रह्मा ने भरत को संगीत की शिक्षा दी तथा पण्डित दामोदर ने भी संगीत का आरम्भ ब्रह्मा को ही माना है।
एक ग्रन्थकार के अनुसार “नारद ने अनेक वर्षों तक योग साधना की, तब शिव ने उन्हें प्रसन्न होकर संगीत कला प्रदान की। पार्वती की शयन मुद्रा को देखकर शिव ने उनके अंग-प्रत्यंगों के आधार पर रूद्रवीणा बनाई और अपने पाँच मुखों से पाँच रागों की उत्पत्ति की। तत्पश्चात् छठा राग पार्वती के मुख द्वारा उत्पन्न हुआ। शिव के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और आकाशोन्मुख होने से क्रमशः भैरव, हिण्डोल, मेघ, दीपक और श्रीराग प्रकट हुए तथा पार्वती द्वारा कौशिक राग की उत्पत्ति हुई।
कुछ विद्वान् संगीत का उद्भव ‘ओउम’ शब्द से मानते हैं, यह एकाक्षर ओउम अपने अन्दर तीन शक्तिों को समाहित किए हुए है अ, उ, म यह तीनों ही शक्ति का प्रतीक है। ‘अ’ शब्द जन्म व उत्पत्ति का प्रतीक है। ‘उ’ धारक पालक व रक्षा का प्रतीक व ‘म’ शब्द विलय शक्ति का प्रतीक है। अतः ओउम वेदों का बीज मन्त्र है इसी बीज मन्त्र से सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई है और इसी से नाद की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार शब्द और स्वर दोनों की उत्पत्ति ओउम से ही मानी गई है। मनु का कथन है कि ऋग्वेद, सामवेद व यजुर्वेद में अ, उ, म में तीन अक्षर मिलकर प्रणव बना, श्रुतिस्मृति के अनुसार यह प्रणव ही परमात्मा का अति सुन्दर नाम है।
ओउम ही संगीत के जन्म का मुख्य आधार है, यह सत्य तो पाश्चात्य विद्वान भी मानते हैं, “इन्होंने ओउम शब्द को एक विशेष शक्ति के रूप में माना है एवं इस शब्द के बोलने से शरीर में एक विशेष प्रकार का स्पन्दन होता है। ओउम की साधना से संगीत का समस्त ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि इसमें स्वर, लय, ताल तीनों का समावेश है। एकमात्र शब्दमय साक्षात् शब्द ब्रह्म ओउम ही है।
ब्रह्म स्वर व शब्द दोनों का ही उद्भव ओउम के गर्भ से हुआ है। सर्वप्रथम स्वर निकले तत्पश्चात् शब्द निकले, सत्यता यही मानी जा सकती है कि यह ओउम शब्द ही संगीत के जन्म का कारण है। आध्यात्मिक विद्वानों के मत से जिस प्रकार ब्रह्मा जी के बिना सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती है उसी प्रकार वैज्ञानिकों के मतानुसार नाद के बिना सृष्टि की कल्पना करना असम्भव है। अतः सम्पूर्ण सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में संगीत की अखण्ड धारा सदियों से प्रवाहित है और सदैव रहेगी।
‘संगीत’ शब्द सम और गीत के मिलने से उत्पन्न है। आध्यात्मिक विवेचन के अन्तर्गत ‘सम’ का तात्पर्य समता अथवा साम्यावस्था से है। इस प्रकार संगीत वह है जो गीत गाने अथवा सुनने वाले को साम्यावस्था को प्राप्त करा दे जहाँ हर्ष, विषाद, खुशी, चिन्ता कुछ भी न रह जाय। ‘सम’ शब्द ही समता या साम्य का बोध करानेवाला है, और यही साम्य शब्द ‘साम’ में रूपान्तरित हो जाता है |
Q 2.लोक-संगीत और शास्त्रीय संगीत की तुलना करे |
लोक संगीत (चित्रपट संगीत)
(i) लोक संगीत स्तर, ताल और लय की दृष्टि से सरल होता है।
(ii) लोक संगीत में प्रचलित गीतों को समाज में उसी रूप में गाया जाता है, जो परिपाटी विभिन्न-रीति- रिवाजों के अनुसार सैकड़ों वर्षों से चली आती रही हो।
(iii) लोक संगीत में हृदय को छूने वाली धुने रहती हैं।
(iv) लोक संगीत धरती और उस पर रहने वाले विभिन्न सम्प्रदाय, धर्म तथा रीति-रिवाजों से जुड़ा होता है।
शास्त्रीय संगीत
(i) शास्त्रीय संगीत स्वर, ताल और लय की दृष्टि से कठिन होता है।
(ii) शास्त्रीय संगीत में गायक या वादक कलाकार अपनी योग्यता के आधार पर उसके स्वरूप में परिवर्तन कर सकते हैं।
(iii) शास्त्रीय संगीत में मस्तिष्क को प्रभावित करने वाली कला का प्रदर्शन अधिक रहता है।
(iv) शास्त्रीय संगीत पूर्वजों द्वारा बताए गए शास्त्रीय सिद्धान्तों पर अडिग रहता है।
Q 3. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का परिचय |
Ans- विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ग्वालियर घराने के मुख्य प्रतिनिधि स्वर्गीय पं० विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का जन्म सन् 1872 के 18 अगस्त श्रावण मास की पूर्णिमा को कुरुम्दवाड़ रियासत के बेलगाँव नामक स्थान में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम पं० दिगम्बर गोपाल और माता का नाम श्रीमती गंगा देवी था। पिता एक अच्छे कीर्तनकार थे और यह उनका वंश परम्परागत व्यवसाय था। उन्होंने पडित जी को अंग्रेजी शिक्षा दिलानी शुरू की, किन्तु दुर्भाग्यवश दीपावली के दिन आतिशबाजी से खेलते समय उनकी आँखों की ज्योति क्षीण हो गई। परिणामस्वरूप अध्ययन बन्द कर देना पड़ा। आँखों के बिना कोई उचित धन्धा न मिलने के कारण विवश होकर उन्हें संगीत की शरण लेनी पड़ी। उन्हें मिरिज के संगीतज्ञ स्व० पं० बालकृष्ण बुआ इचलकर जी के पास संगीत-शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज दिया गया। मिरिज रियासत के तत्कालीन महाराजा ने उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर, उन्हें राजाश्रय दे दिया और उनके लिए प्रत्येक प्रकार की व्यवस्था करा दी।
सन् 1869 में राजाश्रय के सुखों को छोड़कर अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देशाटन के लिए निकल पड़े। सर्वप्रथम वे सतारा गये जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ और संगीत कार्यक्रम बहुत सफल रहा। इस प्रकार वहाँ के लोगों में संगीत और संगीतज्ञों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न की। इसके बाद उन्होंने भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया और वहाँ गायन का प्रदर्शन किया।
संगीत का प्रचार-प्रसार करने के लिए विष्णु दिगम्बर जी ने यह अनुभव किया कि सर्वप्रथम गीत से श्रृंगार रस के भद्दे शब्दों को निकालकर भक्ति रस के सुन्दर शब्दों को रखा जाय और संगीत के कुछ विद्यालय स्थापित किये जायें, जहाँ संगीत की समुचित शिक्षा दी जा सके। अतः उन्होंने बहुत-से गीत के शब्दों में परिवर्तन किया और 5 मई, सन् 1901 को लाहौर में प्रथम संगीत-विद्यालय, गांधर्व महाविद्यालय की स्थापना की। संस्था को ठीक प्रकार से चलाने के लिए उन्हें बीच-बीच में आर्थिक संकटों का सामना भी करना पड़ा। आरम्भ में कई दिनों तक विद्यालय में कोई व्यक्ति प्रवेश के लिए नहीं गया, किन्तु पंडित जी निराश न हुए। स्कूल के समय वे स्वयं तानपुरा लेकर अभ्यास करते। कुछ दिनों के बाद विद्यार्थियों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती गई। इसी बीच उन्हें अपने पिता की मृत्यु का दुखद समाचार प्राप्त हुआ। वे विद्यालय के कार्यों में इतने व्यस्त रहे कि ऐसे समय पर भी घर नहीं जा सके।
सन् 1908 में पंडितजी ने बम्बई में गांधर्व महाविद्यालय की एक शाखा खोली। वहाँ पर उन्हें लाहौर की तुलना में अधिक सफलता मिली तथा विद्यार्थियों की संख्या काफी बढ़ती गई। इस प्रकार लगभग 15 वर्षों तक विद्यालय का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा। विद्यालय का भवन खरीदने में विद्यालय को काफी कर्ज लेना पड़ा।
Q.4. राग (Ragn) क्या है? राग के लक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-स्वरों तथा वर्णों की वह अनुपम रचना, जिसे सुनकर आनन्द की प्राप्ति हो, राग कहलाता है।
राग से विभिन्न रसों की अनुभूति होती है। अतः इसी रसानुभूति से ही सुनने वालों का चीत प्रसन्न व आकर्षित होता है।
प्राचीन काल में राग के दस लक्षण या नियम माने जाते थे-ग्रह, अंश, न्यास, अपन्यास, औडव, षाडव, अल्पत्व, बहुत्व, मन्द्र, तार।
आधुनिक समय में राग के लक्षण या नियम निम्न हैं-
(अ) राग को किसी थाट से उत्पन्न होना चाहिए।
(ब) इसमें कम से कम पाँच स्वर होना आवश्यक है।
(स) राग में आरोह तथा अवरोह दोनों आवश्यक है।
(द) राग में किसी रस की अभिव्यक्ति होनी चाहिए।
(त) राग में संवादी व वादी स्वरों का होना आवश्यक है।
(थ) राग में कभी षड्ज स्वर बर्जित नहीं हो सकता है।
प्रश्न-5. शुद्ध रे-ध वाले रागों को कब गाया जाता है ? सोदाहरण लिखें।
उत्तर- रे-ध शुद्ध वाले राग-रे कोमल, ग शुद्ध वाले रागों के पश्चात् रे-ध, शुद्ध वाले रागों के गाने की बारी आती है। इसमें बिलावल, खमाज और कल्याण थाट के राग आते हैं, जैसे-बिलावल, भूपाली, खमाज, कल्याण, केदार आदि। इस वर्ग के रागों में एक विशेषता यह पायी जाती है कि इनमें सदैव शुद्ध गंधार प्रयोग किया जाता है।
इस वर्ग के रागों का समय 7 से 10 बजे तक सुबह तथा 7 से 10 बजे तक रात्रि माना गया है। कुछ विद्वान इस वर्ग की अवधि 7 से 12 बजे तक मानते हैं। परन्तु पहला मत ही ठीक मालूम पड़ता है।
रे ग शुद्ध वाले राग़ों के वर्ग में म का स्थान कुछ कम नहीं है। 7 से 10 बजे तक सुबह गाए जाने वाले रागों में तीव्र मध्यम की प्रधानता मानी गई है।
7 से 10 बजे तक सुबह में गाए जाने वाले रागों में वादी स्वर सप्तक के. उत्तरांग से व संवादी पूर्वांग से होता है।
प्रश्न-6. औडव जाति के राग में कुल कितने स्वर प्रयोग किये जाते हैं ?
उत्तर-पाँच स्वर में गाया जाने वाला राग औडव जाति का राग कहलाता है। इनके तीन उप-जातियाँ हैं-
(अ) औडव-औडव आरोह-अवरोह दोनों में पाँच-पाँच स्वर
(ब) औडव-षाडव आरोह में पाँच स्वर, अवरोह में छह स्वर
( स) औडव-सम्पूर्ण आरोह में पाँच स्वर अवरोह में सात स्वर
प्रश्न 7. राग की जाति से क्या समझते हैं? उसके प्रकारों का उल्लेख करें।
उत्तर- जिससे राग में प्रयोग किये जाने वाले स्वरों की संख्या का बोध हो, उसे राग की जाति कहते हैं। नियमानुसार राग में कम-से-कम पाँच और अधिक-से-अधिक सात स्वर लगते हैं। राग की तीन जातियाँ होती हैं-
Q 8. ध्रुपद तथा धमार में अन्तर समझाइये।
उत्तर- ध्रुपद- ध्रुपद गायन-शैली गम्भीर प्रकृति की है। इसकी अधिकांश रचनायें ब्रजभाषा तथा हिन्दी में है। इसके चार भाग होते हैं- स्थायी, अन्तरा, संचारी एवं आभोग। सामान्यतः यह पखाबज के तालों में गाया जाता है। इसमें नोम-तोम के आलाप के साथ स्वर-विस्तार किया जाता है।
धमार- “धमार” गायन शैली भक्ति प्रधान श्रृंगार रस से ओत-प्रोत होता है। इसके अन्तर्गत ब्रज में राधा-कृष्ण, गोप, गोपिकाओं द्वारा रचाये गए रास तथा होली का वर्णन रहता है। आजकल धमार की अधिकांश रचनाओं में केवल स्थायी अन्तरा ही रहता है। “धमार” का गायन ‘धमार’ ताल में ही होता है।
प्रश्न-9. गमक क्या है ? इसकी विशेषता लिखें।
उत्तर- गम्भीरतापूर्वक स्वरों के उच्चारण को गमक कहते हैं। गायन में गमक निकालने के लिए हृदय पर जोर लगाते हैं। शारंगदेव ने ‘संगीत रत्नाकर’ में गमक की परिभाषा इस प्रकार दी है।
स्वरस्य कंपो गमकः श्रोतृ-चित-सुखावह।
अर्थात् स्वरों के ऐसे कंपन को गमक कहते हैं, जो सुनने वालों के चित्त को सुखदाई हो। प्राचीन काल में स्वरों के एक विशेष प्रकार के कंपन को जो सुनने में अच्छी लगे, गमक कहते थे। उस समय गमक के 15 प्रकार माने जाते थे, जैसे कंपित, स्फुटित, आंदोलन, लोन इत्यादि। आधुनिक समय में न तो गमक को प्राचीन अर्थ में और न गमक के प्राचीन प्रकारों के नाम प्रयोग किए जाते हैं। बल्कि गमक के 15 प्रकारों में से अधिकांश खटका, मुर्की, मींड, जमजमा आदि के नाम से प्रयोग किए जाते हैं।
प्रश्न-10. आलाप, जोड़ और झाला से आप क्या समझते हैं ? लिखें।
उत्तर- गायन अथवा तंत्र वादन में किसी राग का स्वर-विस्तार अथवा उसका प्रसार ही आलाप की संज्ञा से अभिहित होता है। तंत्र-वादन के क्रम में इसे आलापचारी भी कहा जाता है।
गायन या वादन के क्रम में राग में लगने वाले स्वरों एवं अपने दृष्टि-पथ में रखे उनके लक्षणों के अनुरूप द्रुत गति से गायक या वादक द्वारा स्वरों का विस्तार किया जाना ही जोड़ तान या तोड़ा कहलाता है। जब वादक जोड़ के अनेक प्रकारों को दर्शाते हुए पुनः लय को बढ़ाकर द्रुतगति में ही राग में लगने वाले स्वरों को कई-कई बार यथा सा सा सा सा, रे रे रे रे, गग गग करते हुए आरोहित अवरोहित करता है, झाला कहलाता है।
प्रश्न-11. आश्रय राग तथा जनक थाट के विषय में लिखें।
उत्तर- आश्रय राग वे हैं जिनसे उन थाटों को नाम का आश्रय प्राप्त हुआ है। वे नाम हैं बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, काफी, मारवा, आसावरी, पूर्वी, तोड़ी, तथा भैरवी।
थाट को ही जनक थाट कहा जाता है। राग उत्पन्न करने में सक्षम स्वरों के समूह अथवा मेल को थाट की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। थाटों से ही रागों की उत्पत्ति मानी गई है। आधुनिक विद्वानों ने सभी रागों को केवल दस थाटों में समाहित किया है जबकि बहुत से राग को उनकी परिधि से बाहर भी माना गया है।
प्रश्न-12, जनक थाट क्या है ? उदाहरण देकर बताएँ।
उत्तर- जनक थाट, थाट का ही दूसरा नाम है। राग उत्पन्न करने में सक्षम स्वर-समूह ही थाट या जनक थाट की संज्ञा से अभिहित होता है।
Q 13. सप्तक क्या है ? इसके कितने प्रकार हैं ?
उत्तर – संगीतान्तर्गत सप्त स्वरों सा, रे, ग, म, प, ध, नि के समूह को ही सप्तक की संज्ञा दी गयी है।
सप्तक के मुख्य तीन प्रकार मान्य हैं
(i)मंद्र सप्तक
(ii) मध्य सप्तक एवं
(iii) तार सप्तक ।
(i) मंद्र सप्तक
औसत आवाज से नीचे स्वरों वाले सप्तक को मंद्र सप्तक कहा जाता है, यथा- ध् नि, यहाँ स्वरों के नीचे लगे बिन्दु ही मंद्र सप्तक की पहचान कराते हैं।
(ii) मध्य सप्तक औसत आवाज वाले सप्तक को मध्य सप्तक कहा जाता है। इसमें कहीं भी बिन्दु का प्रयोग नहीं होता है। इसमें आवाज न अधिक ऊँची होती है और न अधिक नीची।
(iii) तार सप्तक – मध्य सप्तक से ऊँचे स्वरों वाली आवाज को तार सप्तक कहते हैं। स्वरों के ऊपर लगे बिन्दु-चिह्न इसकी पहचान है, यथा गं, मं।
प्रश्न-14. तबला कैसे मिलाया जाता है ?
उत्तर- तबला, पखावज की तरह संगत-प्रधान वाद्ययन्त्र है। इसमें रांगों के अनुरूप स्वर में मिलाने की परम्परा है। इसे स्वर में मिलाने के लिए तबले पर चढ़े गुल्ली या गड्ढे को हथौड़ी से ऊपर-नीचे खिसका कर गजरे के ऊपर या नीचे से चारों ओर घुमाकर हथौड़े की ठोकर दी जाती है, जिससे तबला वांछित स्वर में मिल जाता है। अधिकांश तबले को आजकल षड़ज अथवा मध्य सप्तक के पंचम में मिलाया जाता है। आजकल सभी प्रकार के गायन के साथ तबले की संगति होती है। कुछेक को छोड़ सभी तबला वादक दाहिने हाथ से तबला तथा बायें हाथ से डुग्गा • बजाते हैं जिन्हें क्रमशः दायाँ और बायाँ कहा जाता है।
प्रश्न-15. तानपूरा कैसे मिलाया जाता है ?
उत्तर- तानपूरा भारत का प्राचीन वाद्ययन्त्र माना जाता है। इसमें चार तार लगे होते हैं जिनमें बीच के दो तार स्टील के होते हैं| जिन्हें जोड़ी का तार कहा जाता है उसे मध्य सप्तक के षड़ज में मिलाया जाता है तथा दोनों किनारे के दो तार पीतल के होते हैं जिनमें छेड़ने वाले के बाँयें तार को षड़ज का तार कहते हैं जिसे मन्द्र षड़ज में मिलाया जाता है तथा सबसे अन्तिम और दाहिने वाले पीतल के तार को राग में लगने वाले स्वरों के अनुरूप पंचम, मध्यम अथवा गन्धार में मिलाते हैं। इस प्रकार चार तारों पर स्वरों की स्थापना की जाती है। कुछ गायक छः तारों के तानपुरे का भी प्रयोग करते हैं।
प्रश्न-16. तोड़ा, मींड़ एवं गमक के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर- तोड़ा का अर्थ है तानना अथवा फैलाना अर्थात् गायन अथवा तन्त्र-वादन के क्रम में राग में लगने वाले स्वरों को उसके लक्षणानुसार जो फैलाव या विस्तार दिया जाता है उसे ही तान या तोड़ा कहते हैं। इसके अनेक प्रकार बताये गये हैं, यथा कूटवक्र, अलंकृत, मिश्रादि तान। मींड बिना टुट के एक स्वर से दूसरे स्वर तक पहुँचने की स्थिति को कहते हैं। मींड़ लेने
की क्रिया को ही ‘सूत’ या घसीट भी कहा जाता है। अनुलोम एवं विलोम इसके दो प्रकार हैं। कम्पायमान के साथ स्वरों की प्रस्तुति ही गमक कहलाती है जिससे श्रोता आनन्दित होते हैं।
प्रश्न-17. आलाप एवं तान में क्या अन्तर है? अपने विचार दें।
उत्तर- राग के स्वरों को विलंबित लय में विस्तार करने को अलाप कहते हैं। आलाप में कण, मीड़, खटका, मुर्की, गमक आदि का प्रयोग होता है। आलाप दो प्रकार से किया जाता है-प्रथम को आकार का आलाप और दूसरे को नोम-तोम का आलाप कहते हैं। आलाप का प्रयोग गीत के पहले और उसके बीच में होता है।
गीत के पहले किया गया आलाप बड़ा होता है और गीत के बीच में छोटा आलाप किया जाता है।
राग के स्वरों को द्रुत गति में विस्तार करने को तान कहते हैं। तान और आलाप में मुख्यतः गति का अन्तर होता है, नहीं तो दोनों लगभग एक से हैं। तान के कई प्रकार हैं, जैसे अलंकारिक तान, सपाट तान, छूट तान आदि। तान का प्रयोग गानों के बीच में होता है। वाद्य में प्रयोग किये जाने वाले तानों को तोड़े कहते हैं।
प्रश्न-18. गमक और जमजमा के विषय में सोदाहरण लिखें।
उत्तर- प्राचीन संगीत शास्त्र में गमक को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि, “स्वरस्थ कम्पो गमकः श्रोतृ चित्त सुखावहः’ अर्थात् स्वरों को कम्पायमान के साथ प्रस्तुत करना ही गमक है जिससे श्रोताओं का चित्त प्रसन्नता प्राप्त करता है, यथा राग भैरव का ‘रे’ तथा ध स्वर।
प्राचीन काल में गमक के 15 प्रकार थे किन्तु आधुनिक युग में उन सबों के नाम रूप बदलकर उन्हें मीड़, जमजमा आदि नामों से जाना जाने लगा है।
जमजमा में चार या उससे अधिक स्वरों का वृत्त जैसा बनाते हुए उसे द्रुत गति से गाया या बजाया जाता है जिसका प्रयोग प्रायः तन्त्रवादन में होता है, यथा रे सा नि (सा), ग रे सा (रे)।
प्रश्न-19. अनुलोम एवं विलोम क्या है ?
उत्तर- अनुलोम एवं विलोम ये दोनों मींड़ के दो प्रकार हैं। जब दो आरोहित स्वरों के मध्य मींड़ लिया जाय तो वह अनुलोम मींड़ कहलाता है तथा जब अवरोहित स्वरों के बीच मींड़ का प्रयोग किया जाय तब वह विलोम मींड़ कहलाता है। उदाहरणार्थ अनुलोम मींड़ ‘सा म’ तथा विलोम मीड़ ‘प. ग’।
प्रश्न-20. तराना से आप क्या समझते हैं ? इसके दो प्रसिद्ध गायकों के नाम लिखें।
उत्तर- ‘तराना’ शब्द का प्रयोग गायन शैली के लिए किया जाता है। इसे जन्म देने का श्रेय अमीर खुसरो को है। कुछ विद्वानों का मानना है ,कि तानसेन ने इस शैली का नामकरण अपनी बेटी तराना के नाम पर किया है। जो भी हो, आधुनिक काल में तराना का प्रयोग गीत के प्रकारों में किया जाता है।
वर्तमान काल में तराना प्रायः हर राग में छोटा ख्याल के बाद तीन ताल, झपताल, एक ताल आदि में द्रुत लयों में प्रस्तुत कर उस राग के समापन की परपंरा चल गई है।
उस्ताद निसार हुसैन खाँ एवं नत्थू खाँ-तराना-गायन के लिए सुविख्यात हैं।
Q 21. राग-रागिनी पद्धति से आप क्या समझते हैं ? स्पष्ट करें।
अथवा, राग-रागिनी वर्गीकरण किस कालखण्ड में विकसित हुआ ? विभिन्न मतों का उल्लेख करें।
उत्तर- राग-रागिनी पद्धति की परम्परा आदि वैदिक काल से ही है। कुछ शास्त्रकारों ने इसे मध्यकाल की देन कहा है। अधिकांश शास्त्रों में इसका सर्वप्रथम पुण्डरिक विह्वल कृत ‘रागमाला’ के अन्तर्गत बतलाया है। अब तक चले आ रहे चार मतों-शिवमत, भरतमत, हनुमत तथा कृष्णमत में वर्णित है कि आर्य संस्कृति से संबंधित साहित्य और संगीत में उसका उल्लेख हुआ है। सामवेद हमारे साहित्य और संगीत का मूल आधार है जिसमें राग-रागिनी का उल्लेख हुआ है। वस्तुतः राग-रागनियों का सूत्रपात वैदिक संगीत से किया जा रहा है। वेद को ऋचाओं के साथ स्वरों, छन्दों, मात्राओं से यह स्पष्ट रूप में कहा जा सका है कि उन छन्दों को निर्दिष्ट राग, रागिनियों के अन्तर्गत ही गाया जाता है। इस तर्क से सिद्ध होता है कि पुण्डरिक की पुस्तक से पहले राग-रागिनी पर पूर्ण ध्यान दिया गया है।
सर्वप्रथम हमारी संस्कृति के आदि श्रष्टय ब्रह्मा और शिव ने कई हजार वर्ष पूर्व राग और रागिनी की चर्चा की है। उन्होंने छः राग तथा छः छः रागिनियाँ का उल्लेख किया है।
महर्षि भरत को ब्रह्मा तथा शिव से संगीत की शिक्षा मिली थी। अतः दोनों के विचार को उन्होंने नाट्यशास्त्र में उल्लेख किया जिसे भरत मत कहते हैं। उन्होंने भी छः राग रखे, परन्तु प्रत्येक की पाँच-पाँच रागिनियाँ रखी गई तथा उनके पुत्र और पुत्रवधुएँ भी थीं।
इसके बाद राम भक्त हनुमान द्वारा हनुमतमत प्रतिपादित किया गया। इसके अन्तर्गत भरतमत की तरह छः राग तथा उनकी पाँच-पाँच रागिनियाँ रखी गई तथा उनके पुत्र और पुत्रवधूएँ को भी स्वीकार किया।
सबसे अंत में कृष्ण का वल्लिनाथ मत का प्रतिपादन हुआ। कृष्ण का काल द्वापर का अन्त और कलियुग का प्रारम्भिक काल था जो आज से पाँच हजार सन्तानवे वर्ष पूर्व था। श्रीकृष्ण ने भी शिवमत की तरह छः राग छः रागिनियाँ तथा पुत्र-पुत्रवधु का उल्लेख किया है।
यह एक उल्लेखनीय बात है कि रागों की संख्या सबों ने छः ही स्वीकार किया, किन्तु पुत्र और पुत्र वधुओं में अन्तर आ गया। उन सबकों की संख्या 132 होता है। ब्रह्मा एवं शिव द्वारा व्यक्त राग-रागिनियों की तालिका क्रमबद्ध रूप में नीचे दी जाती है।
1. ब्रह्मा एवं शिव मत में छह राग और उनकी छह छह रागिनियाँ हैं-
(i) श्री राग : मालवी, त्रिवेणी, गौरी, केदारी, मधुमाधवी तथा पहाड़िका।
(ii) वसन्त: देसी देवगिरि, वराटी तोड़ी, ललिता तथा हिन्दोली।
(iii) पंचम : विभाष, भूपाली, कर्णाटी, बड़ासिका, मालकी।
(iv) मेघ: मल्लारी, सोरठी, सावेरी, कौसिकी, गांधारी, हर तथा पटमंजरी।
(v) भैरव : भैरवी, गुर्जरी, रामकिरी, गुणकिरी, सैन्धवी तथा बंगाली।
(vi) नदनारायण: कामोदी, अंभीरी, नाटिका, कल्याणी, सारंग तथा नटस्यवीर।
प्रश्न- 22. वादी और संवादी को उदाहरण के साथ विवेचना करें।
उत्तर- वादी स्वर राग में जिस स्वर का प्रयोग अन्य सभी स्वरों की अपेक्षा अधिक परिमाण में किया जाय, उसे राग का वादी स्वर कहते हैं।
पं. अहोवल ने वादी की परिभाषा इस प्रकार दी है “प्रयोगों बहुधा यस्य वादिनं तं अर्थात् जिसका प्रयोग बहुधा अधिकतम होता है, उस स्वर को वादी स्वर कहते हैं। स्वर जगुः”
हमें रागों को गाने बजाने के अनुभव से यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि राग में लगने वाले सभी स्वरों का प्रयोग समान परिमाण में नहीं होता। कुछ स्वरों का अधिक, कुछ स्वरों का सामान्य तथा कुछ स्वरों का अल्प परिमाण में प्रयोग होता है। संगीत शास्त्रकारों ने इन स्वरों का विवेचन किया, उन्हें वर्गीकृत किया तथा प्रत्येक का नामकरण कर दिया। इसी में सर्वाधिक परिमाण वाला स्वर वादी कहलाया।
Q 23. वादी और सम्वादी की परिभाषा लिखें।
उत्तर – वादी स्वर उसे कहते हैं| जिसका प्रयोग किसी राग में प्रमुखता या प्रधानता प्राप्त करता है। यह स्वर किसी भी राग की पहचान का आधार बनता है, यथा राग देश का वादी स्वर ‘रे’ है।
संवादी स्वर वादी स्वर का अनुपूरक होता है। जब किसी राग में वादी स्वर को छोड़कर कोई अन्य उपमुख्य स्वर होता है तब वही संवादी स्वर कहलाता है। वादी स्वर से इसकी दूरी चार या पाँच स्वरों की होती है, यथा राग देश का संवादी स्वर ‘प’ है।
प्रश्न-24. नाद (Naad) से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
उत्तर-संगीतोपयोगी ध्वनि को नाद कहते हैं यानी वह मधुर ध्वनि जो संगीत में प्रयोग की जाती है और नियमित तथा स्थित आन्दोलन संख्या वाली होती है, नाद कहलाती है।
नाद के प्रकार : नाद ही संगीत का आधार होता है। अतः इसके मुख्यतः दो प्रकार हैं-
(क) अनाहत नाद या गुप्तनाद या सूक्ष्मनाद : वह नाद जो बिना किसी आघात के उत्पन्न होता है, तथा साधारणतः सुनाई नहीं पड़ता, अनाहत नाद कहलाता है।
(ख) आहत नाद : जो नाद किसी आघात, रगड़ या संघर्ष के द्वारा उत्पन्न होता है, उसे आहत नाद कहते हैं। संगीत में इसी नाद का प्रयोग होता है।
नाद की विशेषताएँ या लक्षण-
(अ) नाद का छोटा-बड़ापन
(ब) नाद की जाति
(स) नाद का ऊँचा-नीचापन।
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