CBCS UG 3rd Sem Hindi MJC /MIC/MDC-3 Guess Question Pepper | BA 3rd Sem Hindi MJC 3 Viral Questions Papper
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BA 3rd Sem Hindi MJC 3 Viral Questions Papper
Subjective Questions Papper
1. आधुनिक काल
रामचन्द्र शुक्ल ने सं० 1900 से 1984 तक के हिन्दी साहित्य-रचना के आधुनिक काल को गद्यकाल की संज्ञा दी है। आचार्य डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 1900 ई० से. 1952 ई० तक के साहित्य के इतिहास को आधुनिक काल माना है। वे प्रेस के उद्भव को ही आधुनिकता का वाहन मानते हैं और शुक्लजी की भाँति इस काल को गद्यकाल ही मानते हैं। वस्तुतः इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना-गद्य का विकास है। किन्तु इस काल में पद्य का भी विविधमुखी एवं महत्त्वपूर्ण विकास हुआ है। इस काल की कविता में विविध वादों के दर्शन होते हैं। इन वादों का क्रमिक विकास इस प्रकार हुआ है-छायावाद, अभिव्यंजनावाद, हालावाद, यथार्थवाद, प्रगतिवाद, प्रतीकवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता एवं अकवितावाद, अगीतवाद इत्यादि।
आधुनिक काल अनेक प्रकार की प्रवृत्तियों से भरा पड़ा है। वास्तव में भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग तक तो आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियों का विकास सीधे मार्ग से चला है किन्तु छायावाद के जन्म के साथ ही आधुनिक साहित्य नाना वाद एवं प्रवृत्तियों की बाढ़ में डूब गया और आज तक छुटकारा नहीं पा सका है। इन प्रवृत्तियों एवं वादों के आधार पर इस युग के अनेक विभांग किये जा सकते हैं तथा इन सबका ‘मूल स्त्रोत एवं विकास की कहानी कहने के लिए पृथक् ग्रन्थ का सृजन हो सकता है। काव्य की प्रवृत्तियों के आधार पर आधुनिक काल के साहित्य का विवेचन इस प्रकार हुआ है- भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगशील युग तथा नई कविता एवं अकविता का वर्तमान युग। इसी प्रकार गद्य के विभिन्न आकार-प्रकार के आधार पर उसकी विभिन्न विधाओं-उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, आलोचना इत्यादि के उद्भव एवं विकास हुआ है।
आधुनिक काल में भी वीर-रसपूर्ण, भक्ति भावना से समन्वित एवं रीतिबद्ध श्रृंगारी रचनाएँ रची गई हैं। वस्तुतः इतिहास का काल-विभाजन एवं नामकरण निश्चित कालावधि एवं सभी प्रवृत्तियों का निरूपण नहीं करता। यह तो अनुमानाश्रित काल-विभाजन है और इसी प्रकार नामकरण भी प्रमुख प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर किया गया है।
2. भारतेन्दु मण्डल या काल
आधुनिक हिन्दी काव्य-धारा का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से (सन् 1868 से 1903) माना जाता
है। यह युग हिन्दी कविता का प्रथम उत्थान युग है। इस काल का सम्पूर्ण साहित्य भारतेन्दु जी
एवं उनके मण्डल के सहयोगियों की रचना है। भारतेन्दु जी ने हिन्दी साहित्य के विकास, प्रसार
एवं प्रचार के लिए एक मण्डल की स्थापना की थी, जो ‘भारतेन्दु मण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध
है। इस मण्डल के प्रमुख साहित्यकार हैं-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, श्री निवासदास, राधाचरण गोस्वामी, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ बालमुकुन्द गुप्त, श्रद्धाराम फुल्लौरी, तोताराम वर्मा, गोपालराम गहमरी तथा देवकीनंदन खत्री। भारतेन्दु मण्डल की प्रथम उपलब्धि के रूप में हम विषयवस्तु में क्रांतिकारी परिवर्तन की चर्चा कर सकते हैं।
भारतेन्दुयुग की चौथी उपलब्धि नाटक को लेकर है। भारतेन्दु का हिन्दी नाट्य साहित्य क्षेत्र में, एवं रंगमंच पर आना हिन्दी के सौभाग्य का सूचक है। हिन्दी का पहला नाटक ‘नहुष’ है, जो गिरधर दास द्वारा रचित है। यह नाटक खण्डित है। भारतेन्दु के द्वारा कई नाटकों की रचना की गई, जिसमें कुछ रूपान्तरित, अनूदित और कुछ मौलिक है। भारतेन्दु जी के प्रयास से काशी में नाटक मंडली की स्थापना की गई। इनके नाटकों में साहित्यिकता के साथ नाटकीय गुण भी हैं। भारतेन्दु जी की प्रेरणा से उस युग के कई लेखकों ने अनेक रंगमंचीय नाटकों का निर्माण किया। देश-प्रेम, प्राचीन गौरव-गाथा, नारी-सुधार, धार्मिक सुधार आदि की भावनाएँ इन नाटकों में पायी जाती हैं।
भारतेन्दु मंडल में निबंधों की भी रचना हुई। स्वयं भारतेन्दु जी ने विविध विषयों पर कई निबंध लिखे।.
3. द्विवेदी युग
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी साहित्य में आगमन सन् 1903 ई० में ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हुआ। इसके पहले उन्होंने थोड़ा बहुत साहित्य-लेखन किया था और एक दो पाठ्य-पुस्तकों की समीक्षा लिखी थी।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ के साथ-साथ ‘द्विवेदी युग’ का सूत्रपात होता है। द्विवेदी जी आधुनिक हिन्दी के युगप्रवर्त्तक, लेखक. और आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिनके मस्तिष्क की भागीरथी शक्ति संसार में नवीन विचारधारा प्रवाहित करती है। नव-जागरण तथा राष्ट्रीयता की जो अरुण रश्मियाँ हरिश्चन्द्र युग में निकल पड़ी थीं, वे सब अब धीरे-धीरे श्वेत आभा ग्रहण करने लग गई थी। समाज, राष्ट्र, साहित्य एवं संस्कृति के प्रति स्वाभिमान की भावना, भारतीयता को पुनः प्रतिष्ठित देखने के लिए उमड़ पड़ी थी। अनेक प्रकार के सामाजिक एवं राष्ट्रीय धरातल के सुधारक व्यक्तियों ने वातावरण में एक नई चेतना भर दी थी। और वे अनुभव कर रहे थे कि यदि इस प्रकार राग-द्वेषपूर्ण दोषोद्घाटक आलोचना का रूप चलता रहा तो इससे हिन्दी-साहित्य की हानि संभावित है।
आचार्य द्विवेदी जी ने सतत् परिश्रम से खड़ी बोली गद्य और पद्य की एक पक्की व्यवस्था की और दोनों प्रणालियों द्वारा पूर्व और पश्चिम की, पुरातन और नवीन की, स्थाई और अस्थाई
ज्ञान-सम्पत्ति सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्तों में मुक्तहस्त वितरित की। द्विवेदी जी के साहित्य-क्षेत्र में प्रवेश करने पर समीक्षा का स्वरूप अधिक व्यवस्थित हो चला। उन्होंने नवीन युग की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप साहित्य निर्माण की प्रेरणा दी और अपनी समीक्षा में उन्होंने ऐसी कृतियों को महत्त्व दिया, जो सामाजिक उत्थान और राष्ट्रीय विकास की भावनाओं से ओत-प्रोत थीं।
4. छायावाद
हिन्दी में ‘छायावाद’ का जन्म ‘कुररी के प्रति’ नामक पंडित मुकुटधर पाण्डेय की कविता से माना जाता है। पाण्डेय जी न केवल छायावादी कविता के जनक हैं। अपितु छायावादी नाम के भी जनक हैं। उन्होंने ही पहली बार जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘श्री शारदा’ में छायावाद’ शीर्षक से एक लेखमाला लिखी और तद्युगीन कविता के नामकरण का मामला उठाया। उनकी दृष्टि में अस्पष्ट और संकेतात्मक अभिव्यक्ति वाली रचना छायावादी थी। भाव की दृष्टि से प्रणय की तरलता वेदना की बहुविध अभिव्यक्ति, प्रकृति का अमित सौन्दर्य, रहस्यमयता तथा शैली की दृष्टि से लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, बिम्ब-विधान, चित्रात्मकता और अभिव्यंजना की भंगिमाओं की प्रधानता से मंडित जो काव्य हिन्दी साहित्य में सन् 1920 से 1935 के बीच में लिखा गया उसे आलोचकों ने ‘छायावाद’ की संज्ञा दी है। यद्यपि यह नाम चल पड़ने के कारण ही स्वीकृत हो गया फिर भी यह अर्थहीन नाम नहीं है। शुक्ल जी के अनुसार छायावाद का प्रयोग रहस्यात्मकता तथा शैली विशेष के अर्थ में किया गया है। जिस तरह मोती के चारों ओर हल्के प्रकाश का वृत्त होता है, उसी तरह काव्य की समग्रता में उसकी भावगत एवं शिल्पगत विशिष्टता से जो एक अव्यक्त सौंदर्य का आभास मिला उसी की अभिव्यक्ति छायावाद है। छायावाद के जन्म के संबंध में कई तरह की धारणाएँ प्रचलित हैं। डॉ० नगेन्द्र उसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मानते हैं तो दिनकरजी उद्दाम वैयक्तिकता का प्रथम विस्फोट। कुछ आलोचकों की दृष्टि में यह चोरदरवाजे से आया हुआ रीतियुग है तो कुछ अन्य लोगों की धारणा है कि यह बंगला से छनकर आने वाला स्वच्छंदतावाद का हिन्दी संस्करण है।
जिन परिस्थितियों ने राजनीति में गाँधीवाद को पैदा किया उन्हीं परिस्थितियों ने साहित्य में छायावाद को पैदा किया। व्यक्तिवादी और संघर्ष विमुख होकर भी छायावाद ने कभी सामयिक गाँधीवाद की सर्वथा अवहेलना नहीं की, उसने गांधीवाद के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आंदोलन युगीन कवियों को अपनी वाणी दी। प्रसाद, पंत एवं निराला, माखनलाल चतुर्वेदी आदि में यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है।
अपनी भावगत और शिल्पगत विशेषताओं के कारण छायावादी काव्य इतना समृद्ध, उत्कृष्ट, प्रभावशाली बन गया कि उसकी महत्ता सर्वसिद्ध स्थापित हो गई। अपनी उत्कृष्टता में यह भक्तिकालीन हिन्दी-कविता की समृद्धि और गौरव को प्राप्त करने में समर्थ हुआ। जिस तरह भाव और भाषागत समृद्धि के कारण भक्तियुग हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग कहलाता है, उसी तरह छायावाद आधुनिक हिन्दी कविता का स्वर्णयुग है।
5. प्रगतिवाद
हिन्दी में ‘प्रगतिवाद’ शब्द का प्रयोग सन् 1936 से सन् 1943 तक मार्क्स की विचारधारा के अंतर्गत रचित साहित्य के लिए होता है, जिसमें वर्ग संघर्ष और सामूहिक चेतना का उदात्त स्वर सुनाई देता है। पंत जी के शब्दों में यह साम्यवाद का साहित्यिक संस्करण है। शिवबालक राय की दृष्टि में यह साम्यवाद का सहोदर भाई है।
छायावादी पंत और निराला का सबल नेतृत्व प्रगतिवाद के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा। निराला ने निर्जीव संस्कार से विरोध किया और ‘भिक्षुक’, ‘कृषक’, ‘बन्धु की आँखें’, ‘विधवा’, ‘वह तोड़ती पत्थर’ आदि रचनाओं में समाज के दलितों-उपेक्षितों को हार्दिक सहानुभूति दी।
06 .प्रयोगवादनात्मा
हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन के साथ प्रयोगवाद का जन्म माना जाता है। तार सप्तक का प्रकाशन सन 1943 ई० में हुआ। इसके वक्तव्य में अज्ञेय ने प्रयोगधर्मिता का विशेष विवेचन किया और यहाँ से तारसप्तक की कविताओं के लिए प्रयोगवाद नाम का प्रयोग होना प्रारंभ हुआ, जो लगभग 1954 तक एक विशेष ढंग की काव्य-प्रवृत्ति के लिए प्रचलित रहा और आज भी मान्य है। इस तरह हिन्दी-कविता की वादयुक्त परंपरा में ऐतिहासिक दृष्टि से सन् 1943 ई० से 1954 ई० तक दस वर्षों की कालावधि में लिखी गई एक विशेष ढंग की कविताएँ प्रयोगवादी कहलाती हैं। प्रयोगवाद की सबसे बड़ी पहचान उसकी प्रयोगशीलता है। इस प्रयोग का कारण है ‘उलझी हुई जटिल संवेदना की अभिव्यक्ति, और इंस अभिव्यक्ति के लिए ‘प्रचलित भाषा या प्रतीक आदि को अपर्याप्त मानकर नये-नये प्रयोग करना’। इस तरह प्रयोगवाद में प्रयोग ही प्रधान है। प्रयोगवादी काव्य में बौद्धिकता की प्रधानता है। यह बौद्धिक कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों पंक्षों में है। असामाजिक अहंवाद, कुंठा-घुटन और विकृत सौंदर्य-बोध, अनास्था, निराशा, नियति, पीड़ा और क्षणवादी भावना की स्वीकृति, पलायन, पराजय आदि की स्वीकृति तथा नागरिक जीवन के प्रति आग्रह इस काव्यधारा की विषयगत प्रवृत्तियाँ हैं। अनुभूति पक्ष की भाँति प्रयोगवाद की कुछ शैलीगत विशेषताएँ भी हैं, जिनमें बिम्बों की अधिकता, यौन प्रतीकों का प्रयोग, आधे-अधूरे वाक्य-विन्यास और वैविध्यपूर्ण शब्द प्रयोग हैं। इस तरह कथ्य और शिल्प दोनों क्षेत्रों में प्रयोगशीलता का आग्रह रखनेवाला प्रयोगवाद उलझी संवेदनाओं का काव्य है, जो भाषा को अपर्याप्त मानकर उसकी मर्यादा का अतिक्रमण है। अज्ञेय प्रयोगवाद के पुरोधा हैं।
7. नयी कविता
‘नयी कविता’ शब्द का प्रथम प्रयोग अज्ञेय ने किया और जगदीश गुप्त के संपादन में निकलने वाले संकलन नयी कविता के द्वारा यह नाम अधिक प्रतिष्ठित हुआ। नयी कविता की सबसे मुख्य प्रवृत्ति है-वादमुक्तता। पिछले युगों में विभिन्न वादों का जो प्रचलन हुआ उसका विरोध नयी कविता में मिलता है। इसमें विषय तथा शिल्प के किसी क्षेत्र में किसी सिद्धांत के प्रति आग्रह नहीं मिलता है। कुंठा, तनाव, घुटन, टूटन और औपचारिकताओं की पीड़ा में छटपटाते लघु मानव-जीवन को यथार्थ अभिव्यक्ति नयी कविता में दी गयी है। काल्पनिक या कृत्रिम ढंग से रचे जीवन के बदले भोगे जा रहे जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति नयी कविता का आधार है। यदि नयी कविता व्यक्ति के दुख-दर्द को लेकर चलती है किन्तु यह समाज के दुःख-दर्द से इस तरह जुड़ी है कि इसे अलग करके नहीं देखा जा सकता। मुक्तिवोध में इस प्रकार की प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे शब्दों में, नयी कविता सामाजिक चेतना की कविता है, व्यक्तिवाद की कविता नहीं। नयी कविता यद्यपि जीवन के विघटन और खण्ड-सत्यों की मूर्तियाँ उरेहती रही है फिर भी उसमें आस्था के स्वर का अभाव नहीं है। अभिव्यक्ति की दृष्टि से नयी कविता की सबसे चुम्बकीय विशेषता है-व्यंग्य। हर अच्छी नयी कविता कहीं-न-कहीं व्यंग्य से अवश्य जुड़ी है।
8. जयशंकर प्रसाद
जन्म सन् 1889 ई० (काशी) निधन 15 नवम्बर, 1937 ई०। स्कूली शिक्षा आठवीं कक्षा तक हुई, लेकिन स्वाध्याय के बल पर उन्होंने साहित्य और इतिहास की गंभीर गवेषणा में दक्षता प्राप्त की। विशेष प्रसिद्धि उन्हें कवि और नाटककार के रूप में मिली, लेकिन कथा-साहित्य को इनकी देन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। पहली कहानी सन् 1911 ई० में ‘इन्दु’ में छपी। इनकी लगभग सत्तर कंहानियाँ पाँचं कहानी संग्रहों- ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आँधी’ और ‘इन्द्रजाल’ में संगृहीत हैं।
कविताओं में रोमांटिक, उपन्यासों में यथार्थवादी और कहानियों में यथार्थोन्मुख आदर्शवादी थे। कहानियों में शाश्वत भावों की अभिव्यक्ति का काव्यात्मक लाघव, समृद्ध कल्पना, दार्शनिक मुद्रा और पीड़ा की मार्मिक व्यंजना मिलती है। भाव-तात्त्विक संश्लेष और वातावरण के परिपार्श्व में घटना और चरित्र की भूमिका प्रायः मंद रहती है। प्रसाद की भाषा-शैली संस्कृतनिष्ठ और काव्यात्मक है।
जयशंकर प्रसांद प्रेमचंद युग के एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भकार हैं। उनकी 69 कहानियाँ संकलित हैं। प्रसाद ने जिस स्वानुभूति की निवृत्ति अपनें कहानी जगत में की है वह स्वानुभूति भारतीय संस्कृति में आकंठ मग्न हैं। बौद्ध दर्शन की करुणा, निःस्वार्थ त्याग और बलिदान तथा भारतीय संस्कृति के अतीत, चारित्रिक उदात्तता एवं आदर्श से अभिभूत उनका स्व उनकी कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है और उनका कवि-हृदय भी।
9. महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा आधुनिक युग की कवयित्री हैं। उनका जन्म 1907 ई० में हुआ था। उनके काव्य का मुख्य विषय है-वेदना, करुणा, पीड़ा दुखवाद आदि। उनके काव्य में छायावादी रहस्यवाद पाया जाता है। वे छायावाद की सरस्वती हैं। उनकी मुख्य रचनाएँ हैं-नीहार, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा आदि। गंद्य के क्षेत्र में भी महादेवी जी ने हिन्दी की सेवा की है।
छायावाद के चारों कवियों ने काव्य के क्षेत्र में एक अभिनव क्रांति की। पंत जी इस क्रांति के ब्रह्मा, प्रसाद जी इस क्रांति के विष्णु तथा निराला इसके शिवशंकर बन गये। महादेवी ने महाश्वंता सरस्वती का काम किया। उनके प्राणों की पीड़ा बिछलकर गीतों में फूट पड़ी। उनकी कविता में सामाजिक संघर्ष और हलचल तथा वैषम्य का तथ्यपरक चित्रण नहीं है। उनका काव्य एकान्तिक जीवन का अनुगायन है। ‘नीहार’ काव्य की निर्माणावस्था है। इसमें एक धुंधलापन है, अनुभूतियों में कोतूहल मिश्रित वेदना है। वस्तुतः ‘नीहार’ का काव्य उस स्थिति का है जब भावों के पारावार से गिरा मौन है। ‘नीरजा’ के गीतों में चिंतन और अनुभूति प्रधान है। इस काव्य में चिंतन और अनुभूति, गीत और संगीत का समन्वय मिलता है। ‘नीरजा’ में विरह व्यथा भी तीव्र है और इन भावों के दर्शन और चिंतन की पृष्ठभूमि भी है। ‘सांध्यगीत’ में उपासना-भाव चरम सीमा पर है और इन गीतों को साधना का गीत भी कहा जा सकता है। भावानुभूति का जहाँ तक प्रश्न है गीतांजलि और सांध्यगीत के भावों में निकटता है। ‘दीपशिखा’ में अनुभूति की तीव्रता है। उसमें लौकिक प्रेम का आवेग और लोक गीतों का विरह भी मुखर हुआ है।
10. ईसाई मिशनरियों की हिन्दी-सेवा
बिटिश काल में हिन्दी खड़ी बोली गद्य के विकास का इतिहास ईसाई मिशनरियों से भी जुड़ा हुआ है। उन्होंने अपने धर्म के प्रचार के लिए बाइबिल का अनुवाद कराया, पाठ्य पुस्तक लिखवाई और अन्य प्रचार-साहित्य भी तैयार कराया। इन अनुवादों में अरबी-फारसी शब्दों का समावेश नहीं होने दिया। ईसाइयों का यह साहित्य धर्म-प्रचार का साहित्य था। अतः उन्होंने ऐसी भाषा में ही लिखने का प्रयास किया, जिसे सामान्य जनता सरलता से समझ सके। इनके साहित्य में ग्रामीण शब्द भी रहते थे। प्रचार सामग्री का मुफ्त वितरण, स्कूल बुक सोसाइटी तथा ऑफॅन प्रेस की स्थापना, नागरी लिपि में टाइप आदि की सुन्दर व्यवस्था आदि जहाँ ईसाई धर्म के प्रसार के सहायक बने, वहाँ उन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अनेक दृष्टियों से परोक्ष लाभ पहुँचाया। ईसाई मिशनों के प्रयासों से हिन्दी में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। इन पत्रों की हिन्दी गद्य के निर्माण में विशेष भूमिका रही है।
11. मैथिलीशरण गुप्त
मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली हिन्दी कविता के दद्दा हैं। इन्होंने उसे ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया, उसकी युवावस्था को सँवारा और उसके सांस्कृतिक राष्ट्रीय व्यक्तित्व में छांयावादी सौन्दर्य-चेतना की झंकार पैदा की। आधुनिक युग के इस महान् कवि का जन्म 1886 में झाँसी के चिरगाँव नामक स्थान में हुआ। इन्होंने एक लम्बी जीवन ‘यात्रा के साथ लम्बी काव्य’ यात्रा पूरी कर अन्ततः 1964 में चिर विश्राम लिया।
गुप्त जी की प्रथम कांव्य कृति ‘रंग में भंग’ का प्रकाशन 1906 ई० में हुआ। तब से उनकी लेखनी अविश्रान्त भाव से चलती रही और उन्होंने लगभग 43 पुस्तकों की रचना की। इनमें साकेत, यशोधरा, जय, भारत, भारत-भारती, जयद्रथ वध, कुणालगीत, विष्णुप्रिया, झंकार, द्वापर, सिद्धराज, प्रदक्षिणा, पंचवटी आदि प्रमुख कृतियाँ हैं।
गुप्त जी मूलतः हमारी जातीय संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना के कवि हैं। उनकी समस्त काव्य-साधना देश प्रेम और मानवीय उच्च गुणों की अर्चना में समर्पित है। इसी भाव से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी उदार ग्रहणशीलता का परिचय देते हुए न केवल हिन्दुओं के अपितु मुसलमानों और सिक्खों के आदर्श पुरुषों को भी अपने काव्य का विषय बनाया है। गुरु तेगबहादुर तथा कावा और कर्बला जैसी रचनाएँ इसका प्रमाण हैं। इसीलिए गुप्त जी की काव्य-प्रवृत्ति पर लिखते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि गुप्त जी की प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात् उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्य-प्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। इस दृष्टि से वे हिन्दी भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि हैं। इसका एक प्रमाण तो ऊपर कथित विषयगत व्यापकता है और दूसरा प्रमाण छायावादी युग के प्रभाव से प्रेरित पूर्ण ग्रहणशीलता। यही गुप्त जी का साहित्यिक स्वरूप है।
गुप्तजी व्यक्तिगत जीवन में रामभक्त थे। उन्हें यह भक्ति अपने पिता से विरासत में मिली थी। उन्होंने राम के प्रति भक्ति भाव रखते हुए भी उन्हें मानवीय मनोभूमि पर उतारा है।
गुप्तजी ने भारतीय संस्कृति के मेरुदण्ड रूप में नारियों की सत्ता मानते हुए अपनी कृतियों में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ की भावना को प्रतिष्ठित किया है। यशोधरा, उर्मिला, विष्णुप्रिया आदि के माध्यम से उनकी नारी-भावना उत्कृष्ट रूप में व्यक्त हुई है।
12. नागार्जुन
आधुनिक प्रगतिशील कवियों में नागार्जुन का मुख्य स्थान है। ये क्रांतिकारी कवि के साथ-साथ विद्रोह की भावना से भरे हुए हैं। इनका जन्म 1911 ई० में दरभंगा में हुआ था। संस्कृत, हिन्दी और मैथिली साहित्य की इन्होंने सेवा की है। मैथिली में इनके चित्रा और विशाखा दो काव्य संकलन हैं। पारो, बलचनमा, नवतुरिया इनके मैथिली उपन्यास हैं। इनके हिन्दी उपन्यासों में रतिनाथ की चाची, नई पौध, बाबा बटेसरनाथ, वरुण के बेटे, दुखमोचन आदि प्रमुख हैं। धर्मालोकशतकम सिंहली लिपि में प्रकाशित संस्कृत भाषा का इनका एक लघु काव्य है। देश-दशकम्, कृषक दशकम्, श्रमिक दशकम् आदि संकलनों में इनकी संस्कृत की कवितायें हैं।
साहित्यकार जमाने के अनुसार चलता है, युग के अनुसार बोलता है और परिस्थितियों के अनुसार अपनी रचनाओं को प्रस्तुत करता है। यह विशेषता नागार्जुन में कूट-कूटकर भरी हुई है। उनके काव्य में युग बोलता है और समाज करवटें बदलता है। उन्होंने पुरानी मान्यताओं को समाप्त कर साहित्य में अपनी मान्यता स्थापित की है। सामाजिक ढाँचा चरमरा रहा है, परम्परा ढह रही है। कवि ने आधुनिक युग के अनुसार ही अपनी कविताओं को वाणी प्रदान की है।.
नागार्जुन ने प्राचीन मान्यताओं के समक्ष एक प्रश्नवाचक चिह्न रखा है। उन्होंने बतलाया है कि काव्य में कवि ही प्रधान होता है। सब की भूमिका में रचनाकार ही बोलता है। उसी का व्यक्तित्व रचना में झलकता है। वह अपनी ही बातों को अन्य पात्रों के द्वारा कहलवाता है। चाहे कालिदास हों या तुलसी, सूर हों या जायसी, प्रसाद हों या गुप्त जी ये सभी अपने ही विचारों को साहित्य में प्रतिपादित करते हैं।
13. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
आधुनिक हिन्दी गद्यकारों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्थान अन्यतम है। एक मौलिक विचारक और गंभीर लेखक के रूप में शुक्ल जी हिन्दी साहित्य की गरिमा के प्रतीक हैं। व्यक्तिगत जीवन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्यापक पद को सुशोभित करनेवाले शुक्ल जी की प्रतिभा बहुमुखी है। वे साहित्येतिहासकार, कवि, निबंधकार और आलोचक हैं। लेकिन कवि के रूप में उनकी कोई पहचान नहीं है। साहित्य के इतिहास लेखक के रूप में शुक्ल जी ने इतिहास लेखन को कविवृत्त संग्रह के पिटारे से निकालकर प्रवृत्तिपरक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया। निबन्धकार के रूप में शुक्लजी प्रधानतः मनोविकार-सम्बन्धी निबन्धों के लेखक हैं। श्रद्धा-भक्ति, उत्साह, लज्जा और ग्लानि जैसे मनोवैज्ञानिक विषयों का तलस्पर्शी विश्लेषण सुसंगत ढंग से किया है।
आलोचक के रूप में शुक्ल जी ने शास्त्रीय और व्यावहारिक आलोचनाओं से हिन्दी आलोचना के भंडार को समृद्ध किया है। ‘रस-मीमांसा’ ग्रंथ में कविता के स्वरूप, रूप-विधान, भाव-विस्तार आदि का विवेचन है तो गोस्वामी तुलसीदास, महाकवि सूरदास, जायसी ग्रंथावली की भूमिका ओदि रचनाओं में सूर, तुलसी, जायसी जैसे कवियों के कृतित्य का गंभीर विवेचन व्यावहारिक आलोचना का उदाहरण है। शुक्ल जी के प्रमुख ग्रंथ हैं-रस-मीमांसा, हिन्दी साहित्य का इतिहास, चिन्तामणि, महाकवि सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास इत्यादि।
शुक्ल जी तात्त्विक दृष्टि से रसवादी आलोचक हैं। वे मानते हैं कि हृदय की मुक्तावस्था रस-दशा कहलाती है और इसी मुक्ति की साधना के लिए वाणी जो भाव-विधान करती आयी है उसे कविता कहते हैं। शुक्ल जी रसवाद को आधुनिक धरातल पर स्वीकार करते हैं और कविता को आत्मविस्तार के लिए आवश्यक मानते हैं।
रसवादी शुक्ल जी कविता का एक निश्चित लक्ष्य मानते हैं। वह लक्ष्य है-लोकमंगल। यह लोक मंगल की भावना उनकी आलोचना का आधार तो है ही उनके मनोवैज्ञानिक निबन्धों का भी आधार है। उनके सभी निबन्धों में मनुष्यता के प्रति सहृदय होने की, चरित्र परिष्कार की और उदात्त होने की आकांक्षा व्यक्त हुई है। अपनी इसी कसौटी के कारण वे ‘कलिमल हर मंगल करनी’ रघुनाथ कथा लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी को सर्वश्रेष्ठ कवि मानते हैं।
केवल भाव पक्ष ही नहीं अभिव्यक्ति पक्ष की दृष्टि से भी शुक्ल जी कुछ निश्चित आधारों को लेकर चलते हैं। वे भाषा की ग्रहिणी क्षमता के आग्रही हैं। साथ ही वे आवश्यकतानुसार अलंकरण, शब्द-शक्ति, वक्रोक्ति आदि का विधान भी आवश्यक मानते हैं।
14. प्रेमचंद
प्रेमचंद हिन्दी कथा-साहित्य के सर्वोच्च शिखर हैं। उनका जन्म बनारस के निकट लमही नामक स्थान में हुआ था। प्रेमचन्द का जीवन अभावों में बीता। वे जीवन-भर कलम के मजदूर बने रहे। प्रेमचंद मूलतः और अन्ततः कथाकार हैं। कथा-साहित्य के दोनों अंग उपन्यास और कहानी उनकी लेखनी से समृद्ध हुए हैं। उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखी हैं, जो मानसरोवर नाम से आठ भागों में संकलित हैं। गोदान, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, प्रतिज्ञा, निर्मला, प्रेमाश्रमः और सेवासदन उनके प्रमुख उपन्यास हैं।
प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों की जमीन यथार्थ की है। यों कुछ कहानियाँ ऐतिहासिक भी हैं। उनके वर्णन का केन्द्र मध्यम वर्ग है। मजदूर वर्ग बहुत कम चित्रित हुआ है। इसी तरह उच्च वर्ग में मुख्यतः जमींदार या सामन्त या छोटे राजाओं का चित्रण उनकी रचनाओं में प्रधानता से हुआ है। यही वर्ग समाज शोषक है। उस समय तक औद्योगिक पूँजीवादी वर्ग कम विकसित हुआ था। इसलिए मध्यम वर्ग या निम्नवर्ग के शोषक रूप में प्रेमचंद जी ने जमींदार को ही रखा है। यों गोदान में शोषक रूप में महाजनों का भी वर्णन है। ये महाजन छोटे-मोटे सूदखोर तथा मिल-मालिक दोनों हैं।
मध्यमवर्ग की अनेक समस्याएँ प्रेमचंद के साहित्य में मुखरित हुई हैं। ‘गबन’ में मध्यमवर्ग की आभूषणप्रियता से उत्पन्न समस्याएँ हैं तो ‘गोदान’, ‘प्रेमाश्रम’ में मझोले और छोटे किसानों के जमींदारों द्वारा शोषण की समस्या है। ‘सेवासदन’ में आर्थिक अभाव के निष्करुण व्यवहार के कारण एक मध्यमवर्गीय महिला के वेश्या बन जाने और वेश्यावृत्ति से मुक्त होने की चेष्टा है। प्रतिज्ञा में विधवा और परित्यकताओं के लिए आश्रय की तालाश है तो निर्मला में विमाता की समस्या से पीड़ित परिवार के विनाश की करुण गाथा है।
15. फणीश्वरनाथ ‘रेणु’
जन्म सन् 1924 ई०, पूर्णिया जिले के औराही हींगना नामक गाँव में तथा निधन 11 अप्रैल, 1977 ई० को हुई। शिक्षा मैट्रिकुलेशन तक हुई। बचपन से ही राजनीति में गहरी दिलचस्पी थी। राणाशाही के विरुद्ध नेपाल-क्रांति में सक्रिय भूमिका रही। पहली कहानी ‘विश्वामित्र’ (कलकता) में ‘बट बाबा’ शीर्षक से छपी। प्रसिद्धि का कीर्त्ति स्तम्भ ‘मैला आँचल’ उपन्यास है, जो सन् 1954 ई० में प्रकाशित हुआ। उनका प्रथम कहानी संग्रह ‘ठुमरी’ है। तदनन्तर ‘आदिम रात्रि की महक’ और ‘अगिनखोर’ कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए।
नई कहानी-आन्दोलन के समानांतर कहानी की धारा को रेणु जी ने आंचलिक बोध की ओर उन्मुख किया तथा भारत की ग्रामवासिनी आत्मा की पहचान के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक विरासत की अच्छाइयों-बुराइयों को, संघर्ष और आशा-निराशा को आंचलिक भाषा की लयात्मक सहजता में बड़ी तन्मयता से व्यक्त किया। रेणु जी यथार्थवादी परम्परा के कहानीकार हैं, किन्तु दृष्टिकोण मानवतावादी है। पात्रों में बहुत गहरे डूबकर उनकी प्राण-विधायिनी शक्ति को पकड़ने और व्यक्त करने की इनकी प्रतिभा विलक्षण है।
‘ठुमरी’ कहानी-संग्रह की ‘ठेस’ शीर्षक कहानी में रेणु जी ने एक ग्रामीण कलाकार के स्वाभिमान, अक्खड़ता और सहृदयता का चित्रण किया है। गौने में बतौर सौगात दिये जाने के निमित्त बनायी जा रही शीतलपाटी और चिक को घर की औरतों की उपेक्षा के कारण अधूरा-अधबुना छोड़कर चले जानेवाले कलाकार के अंतर्मन को ‘मानू’ का चुपके से पान खिला जाना कचोटता रहता है। स्टेशन पर ‘मानू’ के विदा होते वक्त, जब गाड़ी छूटने ही वाली होती है, कलाकार सिरचन शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी डब्बे में रख देता है। सिरचन के हृदय की यह कोमलता ‘मानू’ की आँखों में स्नेह के आँसू बनकर बहने लगती है। रेणु जी ने ग्रामीण परिवेश की पारिवारिकता को आंचलिक भाषा प्रयोग से जीवन्त बना दिया है।
16. कामायनी
कामायनी वह कृति है, जो प्रसाद को हिंदी के बीसवीं शदी के सबसे बड़े कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है। इस कृति में सृष्टि के जन्म और विकास की कथा है, परंतु पूरा काव्य रूपक में चलता है, जहां श्रद्धा, इड़ा, मनु आदि पात्र भी हैं और प्रतीक भी। कर्म-सौंदर्य, भाव-सौंदर्य और ज्ञान-सौंदर्य की त्रिवेणी इसमें प्रवाहित होती है। कर्म से संघर्ष, श्रद्धा से ज्ञान, व्यक्तिं मन से विश्व मन, आनंद से परम आनंद की ओर अग्रसर कृति में शैव दर्शन अपनी काव्य-सत्ता पाता है। भाव सौंदर्य, निचार सौंदर्य, कला सौंदर्य, जीवन सौंदर्य को अपने ध्येय में धरे हुए यह कृति जीवन के पतन, भाव-विकार, संघर्ष, दुख और यातना को अनुस्यूत करते हुए जो विराट जीवन और उदात्त जीवन का सृष्टि राग रचती है, वह इस कृति को अनुपम बनाता है।
17. ‘सरस्वती’ पत्रिका
बीसवीं शताब्दी में हिन्दी साहित्य की बहुमुखी उन्नति हुई। इस शताब्दी के आरम्भ में ही काशी नगरी प्रचारिणी सभा के उद्योग से प्रयाग के इण्डियन प्रेस ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ। सन् 1903 ई० से इस पत्रिका का भार आचार्य पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ग्रहण किया। द्विवेदी जी के आ जाने से ‘सरस्वती’ में एक नया जीवन आ गया। एक सफल सम्पादक के रूप में आचार्य द्विवेदी ने बीस वर्षों तक बड़ी योग्यता, साधना और परिश्रम से सम्पादन कार्य किया।
भाषा की दिशा में उन्होंने ब्रज और खड़ी बोली के द्वन्द्व को समाप्त किया और व्याकरण की दृष्टि से उनका एक प्रतिमान स्थापित किया। इस पत्रिका के द्वारा द्विवेदी जी ने हिन्दी गद्य को व्यवस्थित बनाने का बहुत अच्छा प्रयत्न किया। उन्होंने नये ढंग से लेख लिखने के लिए लेखकों को उद्बुद्ध किया। ये स्वयं कविता और निबंध लिखा करते थे। कविता में इनकी प्रतिभा की कोई अच्छी अभिव्यक्ति नहीं हुई, किन्तु निबंधों और समालोचनाओं ने एक ओर तरुण साहित्यकारों को रुढ़ि-मुक्त होकर लिखने की प्रेरणा दी तो दूसरी ओर कई कृति साहित्यकारों को वाद-विवाद के क्षेत्र में उतरने और विचारोत्तेजक लेख लिखने का प्रोत्साहन दिया। माधव प्रसाद मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, पद्मसिंह शर्मा आदि इसी प्रकार की साहित्य समालोचना के क्षेत्र में आये। कहानी, जीवन चरित्र, निबंध, सूचनापरक साहित्य, वैज्ञानिक विवेचन संबंधी और पुरातत्वात्मक लेख, नाटक, गीति नाटक आदि विविध साहित्यागों की पूर्ति में भी इस पत्रिका ने महत्वपूर्ण भाग लिया।
बीसवीं शदी के प्रथम दो दशकों की साहित्यिक गतिविधियों का प्रतिनिधित्व करने वाली युग की प्रमुख पत्रिका और खड़ी बोली की मुख पत्रिका के रूप में ‘सरस्वती’ के महत्व को स्वीकार विवादेतर है। परम्परागत ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करके ‘सरस्वती’ के सम्पादक के रूप में द्विवेदी जी ऐतिहासिक महत्व के व्यक्ति हैं। इन्होंने अभिनव भाषा के साथ ही नूतन भाषा अपनाकर हिन्दी कविता में एक नवीन युग का सूत्रपात किया।
18. पंत का प्रकृति-प्रेम
अंग्रेजी साहित्य में जो स्थान वर्डस्वर्थ का है हिन्दी साहित्य में वही स्थान पन्त का है। प्रकृति ही उन्हें यह पद दे सकी है-यह पन्त जी भी स्वीकार करते हैं। पन्त के सम्पूर्ण प्रकृति-चित्रण में रीतिकालीन परम्परा से लेकर आज तक के सभी रूप हमें मिल जाते हैं। इनकी प्रकृति उद्दीपन के स्थान पर आलम्बन है- ‘यह विशेषता है। अलंकारों के प्रतिपादन के लिए पन्त ने प्रकृति का प्रयोग किया है, परन्तु उसके प्रयोग में भी एक विशेषता है। कवि प्रकृति को अमूर्त से मूर्त रूप में प्रतिपादित करता है। इसके अतिरिक्त पन्त का सृष्टा कवि प्रकृति के प्रत्येक उपादानों में प्राण भरता है, उसे सजीव बनाता है, उसका मानवीकरण करता है। प्रकृति उसकी प्रारम्भिक रचनाओं से लेकर अन्त तक चली आती है। ‘वीणा’ से ‘उत्तरा’ तक की प्रकृति में एक ही वर्ण्य-विषय को कवि ने अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखा है। छाया, ऊषा, सन्ध्या, प्रभात, सावन, बसन्त, पतझड़, निर्झर, सरिता, चाँदनी आदि विषयों पर कवि ने समय-समय पर अपने उद्गार सजाये हैं।
19. प्रगतिवादी कविता
छायावाद के अवसान के समीप सूक्ष्म सौन्दर्यवादी दृष्टिकोण के प्रति एक प्रतिक्रिया हुई और सामाजिक यथार्थवाद की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होने लगी। कवि कल्पना जगत से यथार्थ जगत में आ गया। यह प्रवृत्ति राजनीति के क्षेत्र में साम्यवाद, सामाजिक क्षेत्र में समाजवाद और साहित्यिक क्षेत्र में प्रगतिवाद के नाम से विख्यात हुई। प्रगतिवादी काव्यधारा मार्क्सवादी या साम्यवादी दृष्टिकोण पर आधारित है। प्रगतिवादी साहित्य की मूलभूत विचारधारा मार्क्स की विचारधारा है। प्रगतिवाद की जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं वे सब मार्क्सवाद की हैं।
प्रगतिवाद के काव्य में निम्नवर्ग के जीवन की प्रतिष्ठा हुई है। निम्नवर्ग की आर्थिक विषमता की प्रवृत्ति सामाजिक यथार्थवाद की है। इस युग का कवि जीवन के यथार्थ धरातल पर अवतीर्ण होकर समाज के यथार्थ जीवन को देखता है और उसी को अभिव्यक्त करता है। अतः इस युग के काव्यों में उच्च वर्ग एवं मध्यवर्ग के जीवन का चित्रण न होकर निम्नवर्ग का चित्रण है।
प्रगतिवादी काव्य में देश या विदेश की सामाजिक समस्याओं और घटनाओं का चित्रण हुआ है। प्रगतिवादी युग में बौद्धिकता का स्वरूप जन-जीवन की समस्याओं में दिखाई पड़ता है। सामाजिक सुधारवाद की भावना से प्रभावित होकर कवि व्यंग्य को अधिक महत्व देता है। पूँजीवाद की शोषण की प्रवृत्ति को, आधुनिक राजनीति को, नेतागिरी को, आर्थिक विषमता के समर्थकों को वह अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाता है।
वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष की भावना को उकसाने का लक्ष्य मार्क्सवादी क्रान्ति का एक अंग है।
अतः प्रगतिवादी कलाकार ‘ईश्वर असफल हो गया है’ धर्म अफीम का नशा है, जैसी घोषणाएँ कला के माध्यम से करता है प्रगतिवादी आत्मा, परमात्मा सृष्टि एवं जन्मान्तर में विश्वास नहीं करता। जातीयता एवं साम्प्रदायिकता उसके लिए निरर्थक है। वह ईश्वर तथा धर्मों के नियमों में विश्वास नहीं करता। सामाजिक अन्धविश्वासों, परम्पराओं एवं रूढ़ियों का प्रारम्भ से ही विरोध करता चला आ रहा है। वर्ग संघर्ष की तैयारी के लिए प्रगतिवादी कवियों ने भाग्य और धर्म को अनावश्यक बतलाया है।
प्रगतिवादी कवियों ने आज की आर्थिक विषमता से पूर्ण मानव सभ्यता को शोषक और शोषित दो वर्गों में विभाजित किया है। शोषकों द्वारा शोषित किये जानेवाले मजदूरों, किसानों एवं अन्य लोगों का कारुणिक चित्र प्रगति काव्यकारों द्वारा प्रस्तुत है।
20. प्रपद्यवाद
नकेनवाद को प्रपद्यवाद के नाम से जाना जाता है। इसकी स्थापना 1956 में नलीनं विलोचन शर्मा ने की थी। इसे हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद की एक शाखा माना जाता है। इसके अन्तर्गत तीन कवियों को लिया जाता है-नलिन विलोचन शर्मा, केशरी कुंमार नरेश। यह शाखा अज्ञेय के प्रयोगवाद के विरोध में उत्पन्न हुई। हिन्दी साहित्य में आलोचना पद्धति को एक नई पहचान देने में नलिन विलोचन शर्मा ने विशिष्ट योगदान दिया।
इस विचारधारा के अनुसार भौतिकता, यथार्थता, मानवता, मानववाद और धार्मिकता ये भारतीय साहित्य की मूल विशेषताएँ हैं। लिहाजा उनके आलोचना के मानदंड भी विभिन्न हैं। इस विचारधारा में रूढ़ीवादिता को स्वीकार नहीं किया गया है। इसमें स्वच्छन्दता और आधुनिकता का सम्मिश्रण है।
21. प्रेम और मस्ती का काव्य
प्रेम और मस्ती के काव्य में जीवन के विषय में किसी व्यापक परिकल्पना या सिद्धांत का अभाव मिलता है। इसकी विशेषता तो मात्र प्रणय में तल्लीन हो जाने की कामना में है, यही इसका साध्य प्रतीत होता है, “वह मादकता ही क्या जिसमें बाकी रह जाये जग का भय्!” (बच्चन)। इस दृष्टि से देखने पर यह कहा जा सकता है कि प्रणय का यह रूप छायावादी उदात्त प्रेम-भावना और अर्वाचीन नयी कविता की यौन-भावना के बीच की कड़ी है। यद्यपि प्रणय के ये कवि शारीरिक प्रेम के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहीं-कहीं जीवन की नैतिक मर्यादाओं का अतिक्रमण कर गये हैं, किंतु मुक्त निर्बंध भोग के समर्थक या प्रचारक ये भी नहीं हैं। यहां देखना यह है कि वे कौन-सी ऐसी नैतिक रूढ़ियां या ‘जग का भय’ है, जिसे ये आग्रहपूर्वक अस्वीकार कर देना चाहते हैं। दरअसल यह कविता भी उसी युग की उपज है, जिसने छायावाद को जन्म दिया। छायावादी कवियों ने भी नैतिकता के बोझ से आक्रांत प्रणय को मुक्त करने का प्रयास किया, किंतु वे उसे पूरी तरह मुक्त न कर सके और उनकी प्रणय-भावना आध्यात्मिकता से संपृक्त हो गयी। प्रणय के इन कंवियों ने द्विवेदीयुगीन नैतिकता के कठोर बंधनों के प्रति विद्रोह किया। लौकिक स्तर पर प्रणय की तीव्रता की स्वीकृति का एक परिणाम यह हुआ कि प्रणय के साथ-साथ कविता में मादकता, शराब, साकी, मैखाने आदि का भरपूर वर्णन होने लगा। यह प्रवृत्ति बच्चन की ‘मधुशाला’ आदि कृतियों में पूरी शक्ति के साथ दिखायी देती है। प्रणय और मदिरा का यह नशा, साकी और मैखाने का यह वर्णन व्यक्ति-स्वातंत्र्य की भावना की अभिव्यक्ति है। कवि न तो संसार से डरता है और न ही कोई लोकोत्तर आध्यात्मिक शक्ति उसे आतंकित करने में समर्थ है। इस प्रकार इन कवियों में व्यक्तिनिष्ठ यथार्थ की अधिक सशक्त अभिव्यक्ति दिखायी देती है।
22. नयी कहानी
स्वतंत्रता के बाद 1954 के आसपास ‘नई कहानी’ का आंदोलन चला। ‘नई कहानी’ ने अपने युग की सामाजिक समस्याओं और जटिलताओं को चित्रित किया। इन कहानियों में उन तमाम अनुभवों का चित्रण मिलता है, जिसे कहानीकार बड़ी शिद्दत के साथ महसूस कर रहे थे। जैस राजनीतिक दलों की लाभकारी अवसरवादिता, धोखेबाजी, सिद्धांतहीनता और सरलीकरण क प्रवृत्ति। राजनेताओं ने अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने के लिए जातिवा सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता आदि को फिर से जीवित कर दिया। गांधी और लोहिया के साथ यह सब बड़ा विश्वासघात था। इन स्थितियों के साथ-साथ कहानीकार व्यक्तिगत और सामाजिक जीक में अन्य समस्याओं से भी जूझ रहे थे जैसे-मध्यवर्गीय व्यक्ति की कुंठा, आक्रोश, अतृप्ति, निरा आदि। नई कहानी में पारिवारिक रिश्तों जैसे पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहन में आ रहे बदल को भी भोगा।
23. हिन्दी रेखाचित्र
‘रेखाचित्र’ यह नाम अंग्रेजी के ‘स्केच’ शब्द का पर्याय है। ‘स्केच’ चित्रकला का अंग है। चित्रकार कुछ गिनी-चुनी रेखाओं द्वारा किसी व्यक्ति, वस्तु या दृश्य कों चित्रित करता है। हिन्दी साहित्य में जिसे रेखाचित्र कहते हैं, उसमें कम से कम शब्दों में अपनी कथात्मक शैली द्वारा ‘लेखक किसी दृश्य, वस्तु या व्यक्ति का वर्णन करता है। इसी कारण रेखाचित्र को शब्दचित्र भी कहते हैं।
“रेखाचित्र किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या भाव का कम से कम शब्दों में मर्मस्पर्शी, भावपूर्ण और सजीव अंकन है।” क
जब किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना का ज्यों का त्यों वर्णन किया जाता है तो उसे रेखाचित्र कहते हैं। रेखाचित्रकार के लिए तटस्थता अनिवार्य होती है। वह वर्ण्य व्यक्ति, वस्तु या घटना के साथ एक सीमा तक ही छूट ले पाता है।
रेखाचित्र अतीत और वर्तमान का भी हो सकता है। हिन्दी रेखाचित्र में शिल्प के निरूपण, गठन पर अधिक ध्यान दिया जाता है। रेखाचित्र की शैली समासपरक होती है।
24. तार सप्तक
अज्ञेय के अनुसार “एक ही प्रकार की भाव-चेतना के तार में पिरोए सात कवियों की रचनाओं का संकलन तार सप्तक कहलाता है।”পার এশার
‘तार सप्तक’ मूलतः प्रभाकर माचवे के दिमाग की उपज मानी जाती है, परंतु इसके प्रवर्तन का श्रेय अज्ञेय को प्रदान किया जाता है
अज्ञेय ने तार सप्तक के कवियों के बारे में लिखा है “यह सातों कवि किसी एक स्कूल के नहीं हैं। वे राही नहीं अपितु राहों के अन्वेषी हैं।”
हिन्दी साहित्य जगत में अब तक चार तार सप्तकों की स्थापना हो चुकी है 1943 ई., 1951
ई., 1959 ई., 1979 ई.)
तार सप्तक एक काव्य संग्रह है। अज्ञेय द्वारा 1943 ई. में नयी कविता के प्रणयन हेतु सांत कवियों का एक मण्डल बनाकर तार सप्तक का संकलन एवं संपादन किया गया। तार सप्तक नयी कविता का प्रस्थान बिंदु माना जाता है। इसका ऐतिहासिक महत्त्व इस रूप में है
25. रिपोर्ताज
अथवा, रिपोतार्ज का स्वरूप
रिपोर्ताज शब्द फ्रांसीसी भाषा का है। इसका संबंध अंग्रेजी के ‘रिपोर्ट शब्द से है। रिपोर्ट किसी घटना के ज्यों का त्यों वर्णन को कहते हैं। यह अधिकतर समाचार-पत्र के लिए लिखी जाती है। लेकिन रिपोर्ताज रिपोर्ट से अलग होता है। रिपोर्ट में जहाँ कलात्मक अभिव्यक्ति का अभाव होता है, वहीं रिपोर्ताज में घटनाओं, तथ्यों की कलात्मकता और साहित्यिक अभिव्यक्ति होती है। रिपोर्ताज कल्पनात्मक घटनाओं पर नहीं लिखा जाता। आँखोदेखी और कानोंसुनी घटनाओं की प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति से सशक्त रिपोर्ताज बनता है। यह एक नई साहित्य विधा है। इस विधा का जन्म 1939 के आसपास द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हुआ था। रूसी साहित्य में यह बहुत लोकप्रिय हुआ और इसका विकास भी हुआ। एलिया एरनबर्ग को रिपोर्ताज लेखक के रूप में बहुत प्रसिद्धि मिली। रिपोर्ताज का सजीव, विश्वसनीय, प्रभावमय और चित्रमय रूप होना बहुत जरूरी है।
पड़ती है। साथ ही उसके लिए यह आवश्यक होता है कि वह हड़ताल, अकाल, बाढ़, उत्सव और महामारी के समय जनता के दुःख और सुख का खुद साक्षी हो।
हिन्दी. साहित्य में रिपोर्ताज लेखन की परंपरा की शुरुआत शिवदान सिंह चौहान की रचना ‘लक्ष्मीपुरा’ (रूपाभ, दिसम्बर, 1938) को माना जाता है। हिन्दी में इस साहित्य विधा का सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन भी शिवदान सिंह चौहान ने किया। ‘हंस’ के ‘समाचार और विचार’ तथा ‘अपना देश’ स्तंभों में उनके रिपोर्ताज प्रकाशित हुए। इनमें ‘मौत के खिलाफ जिंदगी की लड़ाई’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। बंगाल के अकाल पर बहुत कुछ लिखा गया लेकिन रांगेय राघव द्वारा ‘विशाल भारत’ के लिए लिखा रिपोर्ताज अपनी मार्मिकता के लिए बहुत प्रसिद्ध हुआ। अकालग्रस्त क्षेत्र में पहुँचकर उन्होंने व्यापारियों, पूँजीपतियों तथा जमाखोरों की अमानवीयता को देखा, भूख से तड़पते, मरते, नरकंकालों को देखकर जो वर्णन किया वह उनकी पुस्तक ‘तूफानों के बीच’ में संकलित हुआ।
26. प्रेमचन्द का गोदान
प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य के सर्वोत्कृष्ट उपन्यासकार तथा कहानीकार हैं। उन्होंने अनेक कहानियाँ और उपन्यास का लेखन किया उन्हीं में ‘गोदान’ एक महत्वपूर्ण उपन्यास है जिसका प्रकाशन 1935 में हुआ था। हिन्दी-उपन्यास को प्रेमचन्द की देन अनेकमुखी है। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘गोदान’ में ग्रामीण जीवन एवं कृषि-संस्कृति की चर्चा की हैं। गोदान को ग्रामीण जीवन एवं संस्कृति का महाकाव्य कहा गया है। ग्रामीण जीवन का इतना सच्चा, व्यापक और प्रभावशाली चित्रण हिन्दी के किसी अन्य उपन्यासों में कम ही हुआ है। ‘गोंदान’ में अंतर्जातीय विवाह तथा उच्चवर्गीय एवं मध्यवर्गीय समाज में नारी की स्थिति एवं अधिकार के प्रति उभरती जागरूकता को भी चित्रित किया गया है।
गोदान में जमींदारों द्वारा गरीब किसानों का शोषण तथा सूदखोरी को भी दिखाया गया है। प्रेमचंद ने ऋण के विभत्स रूप को भी अपने उपन्यास के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है। प्रेमचन्द राष्ट्रभक्त, समाजसेवी थे। वे समाज से कुरीतियों को मिटाने का प्रयास अपने उपन्यास के माध्यम से किया है। गोदान में उन्होंने मातादीन तथा सिलिया के विवाह को दिखाया है। ‘गोदान’ में भाषा का वैविध्य जितने स्तरों पर दिखायी पड़ता है वह किसी अन्य हिन्दी के उपन्यास साहित्य में दुर्लभ है। उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये दृश्य अत्यंत सजीव, गतिमान और नारकीय हैं। उन्होंने शब्दों का चुनाव सरल एवं बोलचाल की भाषा के रूप में किया है। भाषा के सटीक, सार्थक और व्यंजनापूर्ण प्रयोग में प्रेमचन्द ने अपने समकालीन उपन्यासकारों को पीछे छोड़ दिया।
27. फोर्ट विलियम कॉलेज के भाषा मुंशी
ब्रिटिश काल में हिन्दी खड़ी बोली के विकास के लिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने ईसाई मिशनरियों द्वारा बाइबल का हिन्दी, उर्दू, फारसी में अनुवाद कराया। अंग्रेजों ने इंग्लैंड से आनेवाले अधिकारियों को भारतीय भाषाएँ, उर्दू तथा हिन्दी खड़ी बोली सिखाने के उद्देश्य से सन् 1800 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की थी। इस कॉलेज में अन्य विभूतियों के अलावा मुंशी सदासुखलाल को नियुक्त किया गया। दिल्ली वासी मुंशी सदासुखलाल कंपनी सरकार के अधीन चूनार में नौकरी करते थे। उर्दू और फारसी में इन्होंने ‘नियाज’ उपनाम से बहुत सी कृत्तियाँ लिखी थीं। खड़ी बोली हिन्दी में इन्होंने विष्णुपुराण तथा भागवत् पर आधारित सुख सागर तरंग की रचना की। इसमें इन्होंने खड़ी बोली में तत्सम प्रधान शब्दावली का पक्ष लिया। इनकी भाषा में उर्दू का पुट नहीं था। इनकी भाषा संस्कृत मिश्रित गद्य शैली थी। उन्होंने हिन्दी की बोलचाल की शिव भाषा में रचना की, कहीं-कहीं संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया। ब्रिटिश काल में हिन्दी साहित्य के विकास में इनके अवदान को श्रेय दिया जाता है।
28. इतिहास और आलोचना में अन्तर इतिहास का लक्ष्य सदा अतीत की व्याख्या करते हए विवेच्य वस्तु के विकासक्रम को स्पष्ट है
. जबकि आलोचना का लक्ष्य वस्तु के गण-दोषों का अन्वेषण करते हुए उसका मूल्य निर्धारण करना होता है। इतिहासकार भी कृति के गुण-दोषों पर विचार कर सकता है, किंत वहां भी उसका लक्ष्य उन्हें युगीन प्रवृत्तियों के संदर्भ में देखने का रहता है. स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन का नहीं। दूसरे, देश और काल के महत्त्वपूर्ण आयामों में से जहां आलोचक देश या स्थान को इतिहासकार कालक्रम और युगीन संदर्भ को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करते हुए परिवर्तनशील तत्त्वों के विश्लेषण में प्रवृत्त होता है। तीसरे, आलोचक व्यक्ति विशेष या कृति विशेष का मूल्यांकन स्वतंत्र रूप में भी कर सकता है, जबकि इतिहासकार व्यक्ति और कृति को सदा पूर्व परंपरा और युगीन वातावरण के संदर्भ में रख कर ही उसके योगदान को स्पष्ट करता है। चौथे, आलोचक के लिए महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों एवं रचनाओं का चयन भी पर्याप्त सिद्ध हो सकता है, किंतु इतिहासकार के लिए ऐसा संभव नहीं। इतिहास की संपूर्ण धारा को समझने के लिए सम्राट अकबर जितना महत्त्वपूर्ण है, हेमू वणिक भी उससे कम नहीं है; या महाकवि तुलसीदास का सर्वगुण संपन्न महाकाव्य उसके लिए जितना महत्त्वपूर्ण है, अनेक दोषों से ग्रस्त केशव की ‘रामचंद्रिका’ भी उसके लिए उतनी ही उपयोगी है; वह इनमें से किसी एक को भी ठुकरा कर इतिहासः की विकास-प्रक्रिया के विश्लेषण में सफल नहीं हो सकता।
संक्षेप में साहित्य का इतिहासकार जहां अतीत के सर्जन-कार्य को विभिन्नं परंपराओं और धाराओं के रूप में ग्रहण करते हुए युगविशेष के संदर्भ में उनका विश्लेषण करता है, वहीं आलोचक किन्हीं स्थापित मूल्यों के आधार पर या नये मूल्यों की स्थापना के उद्देश्य से विभिन्न कृतियों के मूल्यपरक तत्त्वों का उद्घाटन करता है। एक के द्वारा जहां ‘ऐसा क्यों हुआ’ का उत्तर दिया जाता है, वहीं दूसरा ‘इसमें क्या विशेषता है’ की व्याख्या करता है। फिर भी, अनेक कारणों से आज साहित्येतिहास और साहित्यालोचन की सीमाएं घुलमिल सी गयी हैं जिसके अनेक कारण हैं। एक तो साहित्य क्षेत्र में, विशेषतः हिंदी साहित्य में, इतिहासकार और आलोचक का कार्य कई बार एक ही व्यक्ति द्वारा संपन्न होता रहता है। इतना ही नहीं, अनेक बार ‘इतिहास’ संज्ञक रचनाओं में ऐतिहासिक विवेचन की अपेक्षा आलोचनात्मक अनुशीलन अधिक रहता है और आलोचनात्मक पुस्तकों में मूल्यांकन की अपेक्षा ऐतिहासिक व्याख्या अधिक उपलब्धं होती है। कदाचित् इसी से इस धारणा का प्रचार हुआ कि अच्छे आलोचक के लिए अच्छा इतिहासकार या इसके विपरीत अच्छे इतिहासकार के लिए अच्छा आलोचक होना आवश्यक है। आंशिक रूप में अवश्य यह बात सही है, किंतु अंततः दोनों के लिए दो भिन्न प्रकार की प्रतिभाएं, दृष्टियां और पद्धतियां अपेक्षित हैं, इसे प्रायः भुला दिया गया है। इसके अतिरिक्त अधुनातन लेखन में कुछ वर्गों द्वारा आलोचना और इतिहास के भी मूल स्वरूप को विकृत करने की चेष्टा की जा रही है। आलोचना में जहां मूल्य और मूल्यांकन के स्थान पर आत्मप्रशंसा, वैयक्तिक प्रतिक्रिया, एकपक्षीय विवरण, समाचारपत्रीय परिचय को प्रस्तुत किया जा रहा है, वहीं इतिहास में परंपराओं, धाराओं व युगीन प्रवृत्तियों के तटस्थ विश्लेषण के स्थान पर वर्गविशेष, वादविशेष या व्यक्तिविशेष की प्रतिष्ठा का प्रयास हो रहा है।
29. नवगीत या नये गीत
मैं मानव-मन के संवेगों को नया-नया रूप प्राप्त होता रहता है. लेकिन संवेगों को गाने के लिए गीत एक विधा है, और समसामयिक परिवर्तनों के साथ चिरंतन विधा है। युगीन संदर्भों मन में बेचैनी रहा करती है। यह सत्य है कि आज के व्यक्ति के सुख-दुःख, राग-विराग की संवेदना आदिम काल के मानव की संवेदना की तरह प्रत्यक्ष, सीधी और आवेगात्मक नहीं है- उसमें बौद्धिक युग की बहुत-सी जटिलताएं आ गयी हैं। इसलिए आज की संवेदना आदिकालीन मध्ययुगीन और आधुनिक काल के रूमानी गीतों की संवेदना की तरह एक लय में वेग से फूट नहीं चलती, बल्कि वह एक विशिष्ट मानसिक स्थिति में अपने अनुकूल बिखरे हुए संवेगों से से जुड़ती हैं अर्थात् एक संवेग दूसरे से संक्रान्त होता है। ये संक्रान्त संवेग एक आंतरिक एकता से अनुशासित होते हैं। देखने में ये संवेग अलग-अलग मालूम पड़ते हैं, परन्तु मूलतः आंतरिक संगीत से जुड़े होते हैं। आज का यह भाव-सत्य नयी कविता और नये गीत दोनों में व्यक्त हो रहा है इन संक्रांत संवेगों को रूपायित करने के लिए कवि को अनिवार्य रूप से बिंबों और प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है। उनके बिना संवेगों की संश्लिष्टता और सूक्ष्मता व्यंजित नहीं हो पाती।
इधर गीत ने फिर एक नया मोड़ लिया है। इसे कुछ गीतकारों ने नवगीत नाम दिया है। इन गीतों में घरेलू जीवन का परिवेश है, प्रकृति के बहुत टटके अछूते बिंब हैं और आसपास के जीवन का रंग है। फिर भी लगता है कि अधिकांश गीतकारों ने नवीन बिंबों की खोज की झोंक में संवेदनात्मक गहराई की उपेक्षा कर दी है। इन गीतकारों में विशिष्ट हैं-ओम प्रभाकर, नईम, शुलभ श्रीराम सिंह, चंद्रमौलि उपाध्याय, देवेंद्रकुमार, मणि मधुकर, माहेश्वर तिवारी, रमेश रंजके आदि। नये गीतकारों में बालस्वरूप ‘राही’ का अपना अलग स्थान है। राही गीतों के माध्यम से आज के जीवन के विसंगतिमय यथार्थ और व्यक्ति के आहत अनुभवों के वैसे ही चित्र उभारते हैं, जैसे नयी कविता में उभरे हैं। इस प्रकार वे गीत के वर्ण्य क्षेत्र का विस्तार करने वाले तथा गीत की संवेदना में विचार भरने वाले गीतकार हैं।
30. रामधारी सिंह दिनकर
दिनकर जी का जन्म 1908 में सिमरिया गाँव में हुआ था। बचपन में ही पितृस्नेह से वंचित हो जाने वाले दिनकर का पालन-पोषण ‘मूर्तिमती करुणा’ जननी के हाथों हुआ। अभावों और संघर्षों से जूझते हुए दिनकरजी ने पटना विश्वविद्यालय से इतिहांस लेकर बी० ए० ऑनर्स किया। शिक्षक, सब रजिस्टार, सरकार के युद्ध प्रचार अधिकारी आदि से लेकर लंगट सिंह कॉलेज में अध्यापक, भागलपुर विश्वविद्यालय में कुलपति एवं राज्यसभा के सदस्य आदि अनेक पदों को दिनकर जी ने गौरवान्वित किया। इन्होंने मुख्यतः कविताएँ लिखी हैं। गद्य में ये केवल निबन्धकार और आलोचक हैं। रेणुका, हुंकार, रसवन्ती, कुरुक्षेत्र, उर्वशी, रश्मिरथी, संस्कृति के चार अध्याय, अर्द्धनारीश्वर, हारे को हरिनाम, उजली आग इत्यादि इनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। इनके देहावसान के साथ वस्तुतः हिन्दी साहित्य गगन का देदीप्यमान सूर्य अस्त हो गया।
अनल किरीट के कविता कामिनी का अभिषेक करने वाले राष्ट्र कवि दिनकर हिन्दी के ओजस्वी कवि हैं। उनकी. कविता उस नदी की तरह प्रवाहित है जिसके एक किनारे पर क्रांति का जयघोष हो रहा है, चिता जलाई जा रही है, बलिदानियों का गौरव गान हो रहा है और नगपति हिमालय का आह्वान हो रहा है तथा दूसरी ओर कोमलता, फूल, चाँदनी प्रेयसी और अनुराग की दुनिया बसाई जा रही है।
दिनकर मूलतः रोमांटिक कवि हैं। हैं। उनके काव्य की मूल चेतना द्वन्द्व है। जीवन का अस्तित्व सत्-असत्, शुभ-अशुभ, नश्वर-अनश्वर आदि में बँटा हुआ है। दोनों में से किसी एक का ही चयन किया जा सकता है। दिनकर को दोनों चीजें बारी-बारी से लुभाती हैं और वे दोनों ओर ललक के साथ बढ़ते हैं।
इस काव्य प्रवृत्ति की दृष्टि से दिनकर की रखुमाओं का एक वर्ग वह है जिसमें रसवन्ती, उर्वशी आदि की गणना होती है। इसमें प्रेम के प्रति स्वच्छन्दतामूलक दृष्टिकोण के साथ उसके विविध पक्षों का कथन हुआ है।
31. धर्मवीर भारती
धर्मवीर भारती का जन्म इलाहाबाद (उ.प्र.) में 1926 ई. में हुआ। उनकी पूरी शिक्षा भी इलाहाबाद में ही हुई। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए, किया और ‘सिद्ध साहित्य’ पर शोध करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उसी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में उनकी नियुक्ति व्याख्यात पद पर हुई। इलाहाबाद की प्रख्यात साहित्यिक संस्था ‘परिमल’ के वे प्रमुख संयोजक थे। उस रूप में उनकी सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। पत्रिकाओं के संपादन की दिशा में उनकी अभिरूचि प्रारंभ से ही रही थी। फलतः, 1960 ई. में उनकी नियुक्ति ‘धर्मयुग’ के संपादक-पद पर हुई। उन्होंने अपने संपादनकाल में उस पत्रिका को खूब सजाया-संवारा और उसे हिंदी भाषाभाषियों के बीच अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता प्रदान की। ‘धर्मयुग’ के अतिरिक्त उन्होंने ‘निष्कर्ष’, ‘कविता’ और ‘आलोचना’ का भी संपादन किया। उनकी रचनात्मक प्रतिभा, संगठनात्मक क्षमता और हिंदी के प्रति उनकी महत्त्वपूर्ण सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधि दी। बिहार सरकार का एक लाख रूपये का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार उन्हें दिया जा चुका है। वे बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति और आधुनिक हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। दूसरे तारसप्तक में उनकी तरह कविताएं संकलित हैं। उन्होंने कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, एकांकी, निबंध, यात्र-संस्मरण और रिपोर्ताज लिखे हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
काव्य ठंडा लोहा, सात गीत वर्ष, अंधा युग, कनुप्रिय।
उपन्यास- गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा
कहानी-मुदों का गांव, चांद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान
एकांकी नदी प्यासी थी।
निबंध ठेले पर हिमालय, कहनी अनकहनी, पश्यंती
रिपोर्ताज मुक्तक्षेत्र युद्धक्षेत्रे
शोध और आलोचना – सिद्ध साहित्य, मानव-मूल्य और साहित्य, प्रगतिवाद : एक समीक्षा धर्मवीर भारती जी का साहित्यिक मूल्यांकन करते हुए डॉ. देवी प्रसाद कुंवर ने लिखा है कि धर्मवीर भारती एक ऐसे रचनाकार हैं जो जीवन की नई दृष्टि और शिल्प की नई भोंगमा के कारण नई कविता में जितने महत्त्वपूर्ण हैं |
32. आधुनिक कविता के क्षेत्र में सोहन लाल द्विवेदी का स्थान अथवा, गाँधीवादी कवि सोहनलाल द्विवेदी का साहित्यिक परिचय
सोहनलाल द्विवेदी द्विवेदीयुगोत्तर राष्ट्रीय काव्य-धारा के राष्ट्रीय कवियों में पांक्तेय हैं जो युगीन उग्रनीति में सक्रिय दृष्टिगत होते हैं। ध्यातव्य है कि पं० माखन लाल चतुर्वेदी, पं० बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि भी उन्हीं कवियों में हैं। अपनी कविताओं में कवि द्विवेदी जी ने राष्ट्रीयता के प्रति अपने प्रबल समर्थन और अनन्य भक्ति का विशेष रूप से परिचय दिया है। वे गाँधीवादी विचारधारा से अत्यंत प्रभावित ही नहीं थे अपितु उसके प्रबल समर्थक भी थे। यही कारण है कि उनकी कविताओं में विशेषतया, अहिंसा, प्रेम-शांति और समता को स्वर मिला है जो उनकी कविताओं के वर्ण्य विषय माने जा सकते हैं जिन्हें उन्होंने अपने युगानुरूप प्रस्तुत किया है। उनकी कविताओं में कहीं तो देशवासियों को महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर के दृष्टांत द्वारा सेनापतित्व ग्रहण – करने की प्रेरणा दी गई है तो कहीं उत्साहित और प्रेरित करने के लिए यह अभियान गीत प्रस्तुत किया गया है कि,
“अविचल गति से तुम चले चलो,
“प्राणों की अन्तिम ज्वाल लिए।”
कवि द्विवेदी जी की कृतियों में भैरवी, सेवाग्राम आदि प्रमुख हैं। निःसंदेह द्विवेदी जी राष्ट्र प्रेम के अद्वितीय मतवाले कवि हैं।
33. सत्यनारायण ‘कविरत्न’
अथवा, हिन्दी साहित्य में कविरत्न का स्थान
सत्यनारायण ‘कविरत्न’ का जन्म उत्तर प्रदेश राज्यान्तर्गत अलीगढ़ जिले में 24 फरवरी, सन् 1880 ई० तथा निधन 16 अप्रैल, 1918 ई० को हुआ था। वे जाति के सनाढ्य ब्राह्मण थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई के टूटते सिलसिले के बावजूद बी०ए० तक की शिक्षा प्राप्त की। अपने माता-पिता के असमय निधनोपरांत उन्होंने बाबा रघुनाथदास द्वारा पालन-पोषण पाया उनके सान्निध्य में अधिक समय व्यतीत करने के कारण उनके व्यक्तित्व की सात्विकता का प्रभाव उन्होंने अधिक ग्रहण किया था। उनकी हंसोड़ प्रकृति और हृदयगत निश्छलता ने उन्हें मिलनसार बनाया। यद्यपि उन्होंने शिक्षा अंग्रेजी पद्धति से प्राप्त की थी किन्तु उससे उनकी सादगी में कोई अन्तर नहीं आया। उनका विवाह सावित्री देवी के साथ हुआ था।
सत्यनारायण ‘कविरत्न’ द्विवेदी युगीन कवियों में अपनी युग-चेतना और सामयिक विचार-धारा के साथ ही सरल सीधी-सादी अभिव्यक्ति के लिए सर्वाधिक ख्यात हैं। उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ी बोली हिन्दी दोनों को अपनी काव्य-भाषा के रूप में स्वीकार किया।
34. सोहन लाल द्विवेदी
सोहनलाल द्विवेदी का जन्म सन् 1905 ई० में विन्दकी जिला के फतेहपुर में हुआ था। सोहनलाल द्विवेदी को हिन्दी संसार मुख्यतः दो दृष्टि विन्दुओं से जानको फलेहपुरता है। एक तो देश-प्रेम और राष्ट्रीयता के जागरण-स्वर के स्वध्यायी चिन्तक के रूप में और दूसरे, बालोपयोगी रचनाओं के सजर्क के रूप में। आपका वर्ण्य-विषय प्राचीन भारत की गौरव-गाथा रहा है और इसी के सहारे आप युगीन परिस्थितियों का निदान प्रस्तुत करते हैं। किन्तु, इन संदर्भों के पीछे भी आपकी मुख्य सूझ-बूझ गाँधीवादी प्रभावों से प्रभावित-अनुप्रेरित हुआ करती है और इन गाँधीवादी प्रभावपरक रचनाओं के मूल्य को लेकर आपका स्थान स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त जी के ठीक बाद आता है।
आपने शिक्षा भरपूर पाई थी, एम०ए०, एल०एल०बी० किया था, फिर भी आप सदैव घर पर ही रहे और भारतीय प्राचीन सद्ग्रन्थों का आपने गहरा स्वाध्ययन किया। आपको गाँधी-अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्पादन करने का भी श्रेय प्राप्त हुआ और यह आपके गाँधीवादी प्रभाव एक यश का ही परिणाम है।
रचनाएँ- भैरवी, युगारम्भ, पूजागीत, वासवदत्ता कुणाल, विषपान, सेवाग्राम, प्रभाती वासन्ती, युगाधार, चित्रा आदि।
उन्होंने काफी मात्रा में बाल साहित्य की भी रचना की। उनमें प्रमुख हैं-बांसुरी, झरना बिगुल, बच्चों के बापू, चेतना, दुध बताशा, बाल भारती, नेहरू चाचा इत्यादि।
35. भगवती चरण वर्मा
भगवतीचरण वर्मा का जन्म 1903 ई० में शफीपुर, उन्नाव में हुआ था और प्रारम्भिक शिक्ष के पश्चात् इलाहाबाद में पढ़ने लगे। युनिवर्सिटी में हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कलाकार डॉ रामकुमार वर्मा इनके सहपाठी थे।
इनकी शिक्षा बहुत आगे तक न हो सकी। युनिवर्सिटी छूटने पर कुछ दिन इधर-उधर भटकत रहे। इसके पश्चात् बम्बई, सिनेमा जगत् की शरण में गए। वही टेढ़े-मेढ़े रास्ते की रचना की कुछ दिन वहाँ रहकर लौट आए और पूर्णरूप से साहित्य में अपने को लगा दिया।
साहित्यिक जीवन- साहित्य रचना का शौक भगवतीचरण वर्मा को प्रारम्भ से ही था विद्यार्थी-जीवन में वे हाथ मलते रहे। पहली कहानी 1921 ई० में ‘हिन्दी मनोरंजन’ में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात् इन्हें कविता लिखने की धुन सवार हुई |
36. उपन्यास के स्वरूप, तत्व तथा विशेषता अथवा, वस्तु और संवेदना की दृष्टि से उपन्यास
उपन्यास शब्द उप न्यास से बना है जिसका अर्थ होता है समीप रखना। यह अंग्रेजी शब्द नॉवेल के अर्थ में प्रयुक्त और प्रचलित है। उपन्यास सामान्यतः गद्य में रचित वृहद आकार का वह आख्यान है जिसके अन्तर्गत वास्तविक जीवन के किसी पक्ष का वर्णन चरित्रों तथा घटनाओं के माध्यम से किया जाता है।
उपन्यास में सामान्यतः घटना, पात्र और परिस्थिति के योग से बुने गये ताने-बाने के सहारे किसी लक्ष्य तक पहुँकर जीवन के किसी पक्ष की व्याख्या की जाती है। यह महज घटनाओं का पोथा और चरित्र का जंगल नहीं होता है और न ही इसमें केवल दृश्यों, परिस्थितियों और जीवनगत परिवेश का भंडार घर होता है। इसमें लेखक एक विशेष दृष्टिकोण या लक्ष्य को व्यक्त करने के लिए तदनुसार वर्णन विपुल कथा का संयोजन करता है।
विद्वानों के अनुसार उपन्यास के निम्न तत्व होते हैं-कथावस्तु, चरित्र, वातावरण शैली, उद्देश्य और संवेदना।
रचनाकार जीवन के जिस क्षेत्र या जिस लक्ष्य की सिद्धि के लिए उपन्यास लिखना चाहता है उसी क्षेत्र से कथानक लेता है। कथावस्तु का निर्माण, घटना, चरित्र और लक्ष्य के गुणनफल से होता है। किसी उपन्यास में एक कथा हो सकती है और किसी में एक से अधिक। जहाँ एक से अधिक कथा होती है वहाँ प्रधान कथा को अधिकारिक और गौण था को प्रासंगिक कथा कहते हैं। रचनाकार क्षेत्रों का उचित ढंग से संयोजन करता है जिसे कथा-शिल्प के रूप में जाना जाता ‘है। गणपतिचन्द्र गुप्त के अनुसार उपन्यास की कथावस्तु में तीन तत्वों का होना आवश्यक है-स्वाभाविकता, प्रवाह और रोचकता। इन तीन तत्वों के समावेश से उपन्यास जीवन्त बनता है और पाठक को पढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
उपन्यास की कथा चरित्रों के बल पर खड़ी होती है। पात्र या चरित्र हमें प्रेरणा देते हैं और उनमें हम अपनी या समाज की प्रति छवि देखते हैं।
उपन्यास लिखने के कई ढंग होते हैं जिनके आधार पर उपन्यास का शिल्प व्यक्त होता है। शिल्प के आधार पर ही उपन्यास के चरित्र प्रधान, घटना प्रधान, वातावरण प्रधान आदि भेद होते हैं। इसी तरह भाव प्रधान, चिन्तन प्रधान, आदि रूप भी शिल्प को प्रधानता सूचित करते हैं।
प्रत्येक उपन्यास का एक उद्देश्य होता है। वह अपने जिस अनुभव, विचार, दृष्टिकोण या भावबोध को पाठक तक प्रेषित करना चाहता है वही उसका उद्देश्य होता है। उद्देश्य तक की यात्रा. उपन्यासकार को इस तरह करनी होती है कि अन्त का भाग पढ़कर पाठक के सामने पूरी रचना विम्ब की तरह स्पष्ट हो उठे। |
37. कहानी का स्वरूप एवं तत्त्व
जीवन के अनुभवों को सर्वाधिक निकट से अभिव्यक्त करनेवाली विद्या ‘कहानी’ है। यह जुबानी से लेखन तक की यात्रा का एक विकास है। विवरण से विश्लेषण का एक अर्थ-संकेत है। यह अनुभव की डाल पर खिला हुआ एक फूल है। यह अपने समय की मानवीय संस्कृति को समझने की एक कुंजी है। कहानी के आविर्भाव के मल में मनोरंजन तथा कौतुहल का भाव समाहित है। प्रेमचंद ने कहानी को धूपद की वह तान कहा है जिसमें रचनाकार महफिल पर प्रभाव विद्या है। अपनी आकारिक लघुता के कारण यह विद्या प्रभाव की तीव्रता और कथन की कुशलता के कारण सीधा प्रभाव डालती है।
किसी महत्वपूर्ण घटना, चरित्र या मनोदशा को ऐसा चमत्कारपूर्ण वर्णन कि पाठक पढ़कर आह या वाह कह उठे कहानी की सफलता का मानदंड होता है। प्रेमचन्द की दृष्टि में उत्कृष्ट कहानी वह होती है जिसका आधार कोई न कोई मनोवैज्ञानिक तथ्य होता है।
कहानी के प्रसंग में उसके तत्वों की चर्चा आवश्यक है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि ये सभी तत्व सभी कहानियों में रहें ही, यह आवश्यक नहीं है। कथावस्तु, चरित्र-विधान, भावबोध, उद्देश्य, देशकाल और वातावरण तथा शैली कहानी के तत्व माने जाते हैं। इनमें कोई एक तत्व भी किसी कहानी में प्रधान हो सकता है। इस आधार पर कहानी का स्वरूप बदल जाता है और कहानी के भेद के रूप में वह तत्व पहचान कर कार्य करता है। उदाहरणार्थ जिस कहानी में घटना की प्रधानता होती है उसे घटना प्रधान कहानी कहते हैं तो चरित्र की प्रधानता वाले को चरित्र प्रधान और वातावरण की प्रधानता वाले को वातावरण प्रधान कहानी।
कहानी में प्रधानता चाहे जिस तत्व की हो, उसमें शिल्प की दृष्टि से कसावट, रोचकता और मन को रमाने की चेष्टा होनी चाहिए। कहानी का एक निश्चित लक्ष्य होना आवश्यक है। उस लक्ष्य को कहानी के अन्त में चमंत्कारपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने से कहानी की उत्कृष्टता में चार चाँद लग जाते हैं।
भाव तत्व कहानी को रोचक और रसात्मक बनाता है। इसके माध्यम से लेखक की अनुभूतियाँ, मनोदशाएँ तथा लोकजीवन के प्रति चिन्ता व्यक्त होती है। अतः कहानी में हमारे भावों को उत्तेजित करने और हमारे विचारों को झकझोरने की क्षमता होनी चाहिए। एक वाक्य में जो कहानी ‘नावक के तीर’ की तरह ‘गंभीर घाव’ करती है वह श्रेष्ठ होती है।
कहानी में कोई एक लक्ष्य कोई घटना या पात्र के चरित्र का कोई एक पहलू चुना जाता है। उस पहलू को केन्द्र में रखकर रचनाकार इस ढंग से घटना का ताना-बाना बुनता है कि वह पक्ष एक कोण के रूप में उभर कर सामने आता है और अपने प्रभाव के वृत्त में पाठक को ले लेता है। इस तरह कहानी में परिधि से केन्द्र की ओर चलने का प्रयत्न होता है। ऐसी स्थिति में अवान्तर घटना या प्रसंग को समेटने का अवसर ही कहानी में नहीं होता। यदि कोई घटना प्रसंगवश आती भी है तो गौण रूप में। उसकी उपयोगिता मुख्य लक्ष्य को अधिक प्रभावशाली अथवा पुष्ट बनाने में होती है। अर्थात् कहानीकार अर्जुन की तरह अपनी आँख केवल लक्ष्य पर केन्द्रित रखता है।
कहानी के प्रकारों का निर्धारण कठिन कार्य है। क्योंकि, किसी भी ढंग की कहानी लिखकर वर्गों की सीमा का अतिक्रमण कर सकता है। फिर भी कुछ वर्गों की चर्चा की जा सकती है। कहानी के प्रकार आधार-भेद से भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। अतः आधारों की चर्चा आवश्यक है।
38. आचार्य चतुरसेन
आचार्य चतुरसेन प्रेमचन्द युग के कथाकार हैं। ये दिल्ली निवासी थे और पेशे से वैद्य थे। इन्होंने प्रधान रूप से उपन्यासों तथा कहानियों की रचना की है। दुखवा कासे कहूँ मोरा सजनी” इनकी एक प्रसिद्ध कहानी है। वयं रक्षामः वैशाली की नगरवधू, खवास का ब्याह आदि इनके उपन्यास हैं। वयं रक्षामः राक्षस संस्कृति को केन्द्र में रखकर लिया गया उपन्यास है। वैशाली की नगर वधू बज्जि गणतंत्र की नगरवधू अम्बपाली को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है। खवास का ब्याह पृथ्वी राज चौहान और जयचंद की पुत्री संयोगिता के ब्याह पर आधारित है। इनके उपन्यासों में रोचकता और घटना वर्णन की प्रकृति प्रधान है। इनकी भाषा सामान्य तथा बोधगम्य और साहित्य गुणों से परिपूर्ण होती है।
उपन्यासकार चतुरसेन शास्त्री प्रेमचन्द युग के रचनाकार हैं। वह युग सामाजिक परिवर्तन का युग था। मध्यवर्गीय चेतान प्रधान हो रही थी। प्रेमचन्द जी ने मुख्यतः मध्यवर्गीय समाज तथा कृषक जीवन को अपनी रचना का आधार बनाया। राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह ने भी यही राह पकड़ी, अन्य रचनाकारों ने भी सामाजिक जीवन को ही अपनाया। इन सबके बीच चतुरसेन जी ने इतिहास तथा भारतीय संस्कृति के प्राचीन युग को अपनी रचना का आधार बनाया। वे पेशे से वैद्य थे और प्राचीन संस्कृति साहित्य के ज्ञाता भी थे। अतः उन्होंने इतिहास तथा पुरातत्व को आधार बनाया। उनके पास अत्यन्त उर्वर कल्पनाशक्ति थी जिस कारण उन्हें प्राचीनयुग में विचरण करने में सुविधा सामाजिक जीवन का यथार्थ सामने होता है। अतः उसे प्रामणिक रूप में प्रस्तुत करना कठिन नहीं होता। चतुरसेन एक लोकप्रिय उपन्यासकार थे।
39. राजेन्द्र यादव
राजेन्द्र यादव ‘नई कहानी’ आन्दोलन के प्रस्तोताओं में से एक, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं जिन्होंने अद्यतन अपने को कहानी-रचना और कहानी को दिशा-निर्देश देने में सक्रिय रखा हुआ है। नई कहानी की त्रयी-मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव में वे एक महत्वपूर्ण नाम के रूप में स्वीकार किए जाते हैं। नई कहानी दौर में राजेन्द्र यादव ‘टूटना’, ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’, ‘तस्कर’, ‘पंचहजारी’, ‘छोटे-छोटे ताजमहल’, ‘खेल-खिलौने’, ‘बिरादरी बाहर’ आदि कहानियों से विशेष चर्चा में आए।
राजेन्द्र यादव ने हिन्दी की नई कहानी को कथ्य एवं शिल्प दोनों क्षेत्रों में नई दिशाएँ प्रदान कीं तथा समकालीन कहानी की स्वरूप-निर्मिति में महत्त्वपूर्ण योग दिया। उस समय ‘एक दुनिया समानान्तर’ जैसी ‘नई कहानी’ का प्रसिद्ध कथा-संग्रह सम्पादित किया और उसकी सुदीर्घ भूमिका ‘ने उस कहानी को पूरी तरह प्रतिष्ठित और चर्चित कर दिया। उनके कहानी सम्बन्धी विचार ‘कहानी : स्वरूप और सम्वेदना’ तथा ”कहानी अनुभव और अभिव्यक्ति’ जैसी पुस्तकों में भी देखे जा सकते हैं।
प्रकाशित कृतियाँ ‘देवताओं की मूर्तियाँ’, ‘खेल खिलौने’, ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’, ‘अभिमन्यु की आत्म-हत्या’, ‘छोटे-छोटे ताजमहल’, ‘किनारे से किनारे तक’, ‘टूटना’, ‘ढोल’, ‘अपने पार चौखट’ ‘तोड़ते त्रिकोण’ (कहानी संग्रह); ‘प्रिय कहानियाँ’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’, ‘चर्चित कहानियाँ’ के रूप में कहानी-संकलन (श्रेष्ठ कहानियाँ); ‘सारा आकाश’, ‘उखड़े हुए लोग’, ‘शह और मात’, ‘कुलटा’, ‘एक इंच मुस्कान’ (मन्नू भंडारी के साथ), ‘अनदेखे अनजान पुल’ |
40. उपन्यासकार भीष्म साहनी
भीष्म साहनी नई कहानी दौर के ऐसे कथाकार हैं जो उस समय खूब खूब चर्चा में रहे और आज तक उन्होंने अपने श्रेष्ठ लेखन के बल बते अपने को चर्चा में बनाए रखा है। निरन्तर कहानी, उपन्यास और नाटकों से उन्होंने हिन्दी के भंडार को भरा है। सहज-सरल व्यक्तित्व के स्वामी भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त, 1915 को रावलपिंडी (वर्तमान पाकिस्तान में हुआ। इनकी हिन्दी-संस्कृत की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हई। स्कूल में उर्द और अँगरेजी की पढाई कर, आपने गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से अँगरेजी में एम.ए. किया और फिर पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
भारत-पाक बँटवारे से पूर्व आपने थोड़े समय तक व्यापार भी किया और साथ ही अध्ययन कार्य भी। विभाजन के बाद कुछ समय तक आप पत्रकारिता से भी जुड़े रहे, कुछ समय तक ‘इप्टा’ नाटक-मंडली में भी काम किया। फिर कुछ समय अम्बाला तथा अमृतसर में कॉलेज में अध्यापन-कार्य किया। तत्पश्चात् स्थायी रूप से दिल्ली आकर दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली कॉलेज में कार्यरत रहे। इसी बीच लगभग 7 वर्ष विदेशी भाषा प्रकाशन-गृह, मास्को, में अनुवादक के रूप में कार्य किया। लगभग ढाई वर्षों तक राजकमल प्रकाशन की पत्रिका ‘नई कहानियाँ’ का सौजन्य-सम्पादन किया। भीष्म साहनी को अपने उपन्यास ‘तमस’ से विशेष ख्याति प्राप्त हुई, इस पर साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिला और फिल्म भी बनी। टेलीविजन पर इस फिल्म के प्रसारण से ‘तमस’ को विशेष लोकप्रियता प्राप्त हुई।
भीष्म साहनी की कहानियाँ अपनी सहजता के लिए विशेषतः चर्चित रही हैं। चाहे कहानी ‘चीफ की दावत’ हो या ‘खून का रिश्ता’, भीष्म साहनी बहुत सहजता से अपने परिवेश की ऐसी घटना या पात्र को प्रस्तुत करते हैं कि वह देर तक हमारी स्मृति में रचा-बसा रहता है। इसीलिए उनके पात्र, ‘चीफ की दावत’ की ‘माँ’, ‘खून का रिश्ता’ का मंगलसेन आदि, बहुत देर तक हमारी चेतना पर छाए रहते हैं। इनकी कहानियाँ मध्यवर्गीय पात्रों की जिन्दगी के रूप को मार्मिकता से उघाड़ती हुई दिनोंदिन क्षीण होते जा रहे मानवीय मूल्यों और सम्बन्धों की ऊष्मा के शेष हो जाने की पीड़ा को गहराई से उकेरती हैं। शैली की सहज-बयानी पाठक को कहानियों से एक सहज लगाव प्रदान करती है। इनकी विशेष रूप से पठनीय कहानियाँ हैं-‘ चीफ की दावत’, ‘खून का रिश्ता’, ‘अमृतसर आ गया है’, ‘लीला नन्दलाल की’ आदि।
कृतियाँ : ‘भाग्य रेखा’, ‘पहला पाठ’, ‘भटकती राख’, ‘पटरियाँ’, ‘वाचू’,
‘शोभा-यात्रा’, ‘निशाचर’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ आदि (कहानी संग्रह); ‘झरोखे’, ‘कड़ियाँ’,
‘तमस’, ‘बसन्ती’, ‘मटकादास की माड़ी’, ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ (उपन्यास); ‘हानूश’,
‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘माधवी’ (नाटक), ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ (नाटक)।
41. प्रयोगवाद एवं नयी कविता में संबंध तथा अन्तर
अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ पत्रिका के प्रकाशन काल (1943) से प्रयोगवादी कविता का आरंभ माना जाता है तथा ‘तार सप्तक’ के दूसरे प्रकाशन काल (1951) से नयी कविता का आरम्भ माना जाता है। ये दोनों एक ही काव्यधारा के विकास की दो अवस्थाएँ हैं। प्रयोगवाद इस काव्यधारा की आरंभिक अवस्था है और नई कविता उसकी विकसित अवस्था। इन दोनों की काव्यगत प्रवृत्तियों में समानता है। प्रयोगवाद में मोहभंग और उससे उत्पन्न व्यंग्य-विद्रूपता की मनः स्थिति प्रमुख हैं और यह प्रवृत्ति नयी कविता में और आगे बढ़ी।
42. ‘अकविता’
1960 ई. के बाद ‘अकविता’ का जो दौर आया उसमें अस्वीकृति का तेवर सीमा पर पहुंच गया। अकविता का आशय ऐसी काव्य-प्रवृत्ति से था जैसी कविता अब तक नहीं हुई है। इसके लिए उसके नाम में ही परंपरा को पूरी तरह नकारने का भाव था। वस्तुतः यह विवेक पक्ष की उपेक्षा करके विद्रोह या व्यवस्था विरोध की काव्य प्रवृत्ति थी। डा. श्याम परमार ने ‘अंतर्विरोधों की अन्वेषक’ कविता को ‘अकविता‘ नाम दिया। सन् 1965 में ‘अकविता’ पत्रिका में इसका अनुमोदन हुआ। धीरे-धीरे उसको व्याख्यायित करके उसका दायरा और बढ़ाया गया। निष्कर्ष यह कि अकविता व्यक्ति के अकेलेपन और उसकी काम कुंठाओं का चित्रण करती है। जो कुरूप है, उसे अनावृत करती है और जो अनावृत है, उसे प्रस्तुत करती है। आत्मरति एवं विकृत संबंधों पर टिका सभी कुछ अकविता का दृश्य है। प्रसंगवश, नयी कविता के कवियों के साथ कवियों की जो नई पीढ़ी सामने आई थी, उसमें दो जमातों के कवि थे। कुछ कवि ऐसे थे, जिन्होंने ‘अकविता’ नाम से नया काव्यांदोलन चलाने की कोशिश की थी, और कुछ कवि प्रतिबद्ध थे। विद्रोह दोनों ही जगह था, लेकिन भिन्न रूपों में ताज्जुब नहीं कि 1972 में जगदीश चतुर्वेदी के संपादकत्व में ही ‘अकविता’ के कवियों का जो दूसरा काव्य संकलन निकला, तो उसका नाम ‘निषेध’ रखा गया।
43. ‘नवगीत’
‘नवगीत’ एक यौगिक शब्द है जिसमें नवं (नई कविता) और गीत (गीत विधा) का समावेश है। नवगीत ने नयी कविता से अधिकांश चीजें (लघुता, क्षण-बोध आदि) ग्रहण करके अपने को सुसज्जित किया।
‘नवगीत’ की संभावित रूप-रेखा यद्यपि ‘गीतांगिनी’ संकलन के संपादक राजेन्द्र प्रसाद ने फरवरी सन् 1958 के अंक में स्पष्ट की थी और अनेक पत्रिकाओं में सन् 1961 से 1963 के बीच छपी लेख-श्रृंखला ने नवगीत-विवेचन बहुत आगे बढ़ाया। परंतु ‘नवगीत’ को प्रतिष्ठा तब मिली जब सन् 1964 में अलवर से नवगीतों का ‘कविता 64’ नाम से समवेत संकलन प्रकाशित हुआ। नवगीत ने नए भाव बोध से संपृक्त रहकर भी जातीय वैशिष्ट्य को अक्षुण्ण रखने का प्रयास किया। भाषा एवं छंद के नए प्रयोग होने पर भी उसमें अन्वितिहीनता या अनर्गलता तथा गद्यात्मकता नहीं आई। व्यष्टि-समष्टि और ग्राम नगर के कृत्रिम अंतर की गंध वहाँ नहीं मिलती। शिल्प-पक्ष में नई कविता से बहुत कुछ लेकर भी नवगीत का कथ्य नई कविता की आरोपित आधुनिकता से ग्रस्त नहीं होने पाया, यहां भोगा हुआ यथार्थ है लेकिन है भारतीय। नवगीत ने नई कविता से प्रेरणा ली थी, लेकिन बाद में अपनी आइडेन्टिटी (परिचय) पृथक स्थापित करनै के. लिए वह प्रयोगवाद या नई कविता द्वारा गृहीत प्रचार-ढंग का अनुकरण भी करने लगा। ‘सप्तकों’ के पैटर्न पर सन् 1982 में शम्भूनाथ सिंह द्वारा संपादित 10 कवियों का संकलन ‘नवगीत दशक-।’ नाम से सामने आया। ‘नवगीत दशक-2’ तथा ‘नवगीत दशक-3’ क्रमशः सन् 1983 और 1984 में प्रकाशित हुए।
44. ‘प्रगतिवाद’
राजनीति में जो मार्क्सवाद है. साहित्य में प्रगतिवाद है। अर्थात मार्क्सवाद का साहित्यिक संस्मरण प्रगतिवाद है। प्रगतिवाद के मूल में माक्र्सवाद है। प्रगतिवादी दृष्टि ने साहित्य के स्वरूप और इसके उद्देश्य पर प्रश्न उठाए और बताया कि साहित्य को सोद्देश्य होना चाहिए। प्रगतिवादी साहित्य में श्रमशील जनता को महत्व प्राप्त होता है। पतनोन्मुख एवं जड़ मूल्यों के लिए इस काव्य (साहित्य) को सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के साथ जोड़ने पर बल दिया। सामाजिक संरचना में परिवर्तन के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है- यह उनका स्पष्ट मत है। सामाजिक यथार्थ पर उनकी बड़ी पैनी नजर है। उनकी कविताओं में शोषक सत्ता का विरोध और श्रम की प्रतिष्ठा हुई है। प्रगतिवादी कवियों ने सामाजिक-आर्थिक विषमता पर चोट की। उनके स्वरों में हकलाहट नहीं, व्यंग्य की धार है।
प्रगतिशील चेतना का प्रादुर्भाव तो आधुनिक हिन्दी साहित्य में भारतेंदु के साथ हो गया था, किन्तु अब उसमें एक सुसंबद्ध विचारधारा के प्रति बहुत आकर्षण उत्पन्न हुआ। इस विचारधारा ने स्वाधीनता के स्वप्न को और अधिक सुस्पष्ट बनाया। इसके बाद अपने सारे उतार-चढ़ाव के बाजवूद प्रगतिशील काव्यधारा हिंदी की प्रमुख काव्यधारा बनी हुई है। इस काव्य में व्यापक संवेदनशीलता है। यह काव्यधारा अपना संबंध हिंदी की जातीय परंपरा से जोड़ती है और भावी समाज से भी। वर्तमान के प्रति यह आलोचनात्मक दृष्टि अपनाती है। प्रगतिशील साहित्य में जनता, उसका संघर्ष और जीवन स्थितियाँ केन्द्र में है, पर वह नारेबाजी का साहित्य नहीं है। शमशेर बहादुर सिंह प्रगतिशील चेतना के कवि हैं। मुक्तिबोध और धूमिल की कविताओं से हिंदी कविता में एक प्रकार से प्रगतिशील कविता की धारा व्यापक और बेगवती हुई। कविता में दिन-प्रतिदिन होनेवाली घटनाओं को महत्व देने से अखबारीपन भी आ गया।
45. समकालीन हिन्दी कविता की संवेदना और शिल्प
डॉ. प्रमोद कुमार सिंह के शब्दों में, ‘समकालीन कविता एक विशिष्ट अर्थ का बोध कराती है जिसे डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय ने अभिनिवेशपूर्वक स्थापित किया है।…….. समकालीन कविता ‘प्रगति’ और ‘प्रयोग’ की परिधि में सीमित नहीं, देश काल गत परिस्थितियों की आग से उपजी है। यह मोहभंग और नैराश्य के वातावरण में संघर्ष कराशखा है जो युगीन अंधेरे में अपने अस्तित्व का उद्घोष करती है। इसे नई कहानी की तरह अंधेरे की चीख’ नहीं कहा जा सकता है। यह वस्तुतः ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने वाली तजस्विता है।’ इस तरह, समकालीन हिंदी कविता संवेदना और शिल्प के स्तर पर क्रमशः अधिक लोकतांत्रिक हुई है। उसमें अपने समय और समाज की कठिन वास्तविकताओं और जटिल स्थितियों को समझने, पहचानने और व्यक्त करने की विकलता दिखाई देती है। आज के समय और समाज में भारतीय मनुष्य की संकटग्रस्त नियति और दुर्गति की चिंता केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, मुक्तिबोध और धूमिल जैसे कवियों में मिलती है। ये कवि बेलाग भाषा में जीवन की सच्चाइयों और निर्द्धद्ध और निर्भय अभिव्यक्ति को ही अपनी कविता का लक्ष्य मानते हैं।
46. नयी कविता
नई कविता का ऐतिहासिक सम्बन्ध अज्ञेय द्वारा संपादित ‘दूसरा सप्तक’ (1951) से है जिसे आगे चलकर ‘नई कविता’ पत्रिका (1954) से प्रतिष्ठा मिलती है। नयी कविता में जीवन की विडंबना पर गहरा व्यंग्य है। यह तल्लखी का स्वर कभी-कभी प्रकृति-चित्रण के माध्यम से भी उभरकर यहाँ आता है। प्रकृति के अतिरिक्त प्रेम के क्षेत्र में भी इस प्रकार की शैली के दर्शन हो जाते हैं, जैसे कैलाश वाजपेयी की ‘ढाई आखर’ कविता में। नयी कविता में उपमान और प्रतीक भी बदले हैं, और बदले ही नहीं हैं, वे कवि के आस-पास बिखरी हुई वस्तुओं में से लिए गये हैं। ब्रह्मराक्षस जैसी फैन्टेलियां भी शब्द को नया संस्कार देने की बेचैनी की ही प्रतीक है।
47. ‘प्रपद्यवाद’
अथवा, ‘नकेनवाद’
प्रयोगवाद के उदय के कुछ समय बाद बिहार के तीन कवियों (नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार तथा नरेश) ने मिलकर प्रयोगवाद को स्पष्ट करने के दस सूत्र सामने रखे। इस वाद को उन्होंने ‘प्रपद्यवाद’ नाम दिया। प्रपद्यवाद उन कवियों के नाम के प्रथमाक्षरों से ‘नकेनवाद’ भी कहलाता है। सूत्रों का सार यह है कि प्रपद्यवाद न केवल शास्त्र या दल-निर्धारित नियमों को, अपितु महान् पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को भी निष्प्राण मानता है। प्रपद्मवाद की दृक्वाक्यपदीय प्रणाली प्रयोगवाद की तिरछी टेढ़ी लकीर प्रणाली से अलग है। प्रपद्यवाद प्रयोग को साध्य मानता है अर्थात् वह ‘प्रयोगवाद’ ही है। यों, बिहार के तीनों रचनाकारों के नाम के आद्यक्षरों से बने शब्द ‘नकेन’ के नाम से प्रयोग को प्रयोगवादियों की तरह साधन मानने के बदले साध्य माननेवाला स्वतंत्र काव्यांदोलन ही चला जिसके अनुसार शुद्ध प्रयोगवादी ये ही थे, अज्ञेय आदि सप्तकों के कवि प्रयोगशील थे। प्रसंगवश, प्रयोगवाद के ही अन्तर्गत बिहार के तीनों प्रपद्यवादी कवि हिन्दी कविता की मुख्यधारा के कवि न थे। वे प्रयोग को साधन ही नहीं, साध्य भी मानते थे। इसलिए उन्होंने दावा किया था कि वही असली प्रयोगवादी है। प्रपद्यवाद हिंदी में अंग्रेजी के बिंबवाद का उद्धरणी था, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उक्त तीनों ही कवियों ने अपनी कविताओं में आधुनिक जीवन की मूल्यहीनता और निरर्थकता को बहुत ही तीखेपन के साथ चित्रित किया है।
48. ‘तार सप्तक’ का महत्व
आधुनिक हिन्दी कविता में अज्ञेय द्वारा संपादित तीन सप्तकों का ऐतिहासिक महत्व है। वे हैं ‘तार सप्तक’, ‘दूसरा ‘सप्तक’ और ‘तीसरा सप्तक’। ‘ता
‘तार सप्तक’ (प्रथम) 1943 ई. में प्रकाशित हुआ था और ‘दूसरा सप्तक’ 1951 में। प्रकाशन-वर्ष का उल्लेख इस दृष्टि से उपयोगी है कि हिंदी कविता में प्रयोगवाद की चर्चा ‘तार सप्तक’ (पत्रिका) के प्रकाशन के बाद शुरू हुई और नई कविता की चर्चा ‘दूसरा सप्तक’ के प्रकाशन के बाद। इतिहासकार और आलोचक प्रयोगवाद और नई कविता के आपसी संबंध को लेकर ‘तार सप्तक’ के बहाने तर्क-वितर्क करते रहे। नई कविता के सिद्धांतकारों ने उसकी प्रतिष्ठा के लिए ‘तार सप्तक’ से उसका संबंध जोड़ा और इस तरह उसे प्रयोगवाद का ही परवर्ती रूप ठहराया। स्वयं अज्ञेय ने इसके लिए मार्ग प्रशस्त किया था। ‘तार सप्तक’ की कविता के लिए ‘प्रयोगवाद’ नाम उन्हें अनुपयुक्त लगा था, इसलिए उन्होंने सुझाव दिया था कि कहना ही हो, तो उसे नई कविता कहा जा सकता है। डा. रामविलास शर्मा, जो कि ‘तार सप्तक के एक कवि भी हैं, उसमें और दूसरे सप्तकों में स्पष्ट अन्तर करते हैं। ‘तार सप्तक’ उनके लिए न प्रयोगवादी कविताओं का संकलन है और न नई कविता का। उनके अनुसार वह यथार्थवाद की दिशा में उठाया गया एक कदम है, निश्चय ही प्रगतिशील कविता की पृष्ठभूमि में, जो कि नई कविता के भी समानांतर चलती रही थी, जबकि दूसरे सप्तकों में जो कवितायें सामने आई, वे यथार्थ विरोधी थी। स्वभावतः वे नई कविता को गैर प्रगतिशील मानते हैं। मुक्तिबोध भी ‘तार सप्तक’ के कवि हैं, लेकिन उन्हें न प्रयोगवाद नाम से परहेज है और न नई कविता नाम से। उन्होंने बेहिचक अपने को प्रयोगवादी और नई कविता का कवि भी कहा है।
Confirm Question By Madhav sir
प्रश्न-1. हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल भारतीय नवजागरण का उदयकाल है, स्पष्ट करें।
अथवा, आधुनिक काल की विविध परिस्थितियों का साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा है ? इसे स्पष्ट करते हुए नवयुग के पुनर्जागरण पर प्रकाश डालें।
उत्तर-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रारंभ सन् 1900 से माना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इस काल के उदय काल सन् 1900 से माना है। लेकिन हिन्दी साहित्य में आधुनिक युग की नयी चेतना का आरंभ 40-50 वर्ष पूर्व ही हो चुका था। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-“वस्तुतः साहित्य में आधुनिकता का वाहन प्रेस है और उसके प्रचार के सहायक हैं-यातायात के समुन्नत साधन।” इस तरह हम देखते हैं कि नवयुग की चेतना का उदय संवत 1925 से ही भारतेन्दु की रचनाओं के साथ हो गया था। भक्तिकाल का साहित्य आम जनता का साहित्य था, रीतिकाल का साहित्य राजन्य संस्कृति एवं आश्रयदाताओं की तुष्टि के लिए था, लेकिन आधुनिक साहित्य धरती की धड़कनों को मुखरित करने वाला साहित्य है। डॉ० शिवकुमार शर्मा ने लिखा है-“आधुनिक हिन्दी साहित्य भारतीय समाज के एक सर्वथा नये वर्ग की वाणी को मुखरित करता है, जो कि नवीन शासन प्रणाली तथा नूतन अर्थ-व्यवस्था के परिणामस्वरूप पीड़ित और शोषित था-वह था मध्य वर्ग।”
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में नवयुग की चेतना का विकास अपने आप में एक अपूर्व घटना है। इसका बीज इसी युग की राजनीतिक चेतना, सामाजिक स्थिति एवं धार्मिक परिस्थितियों में मिलता है।
1. राजनीतिक परिस्थितियाँ: सन् 1757 ई० के बाद अंग्रेजों की नींव भारत में दृढ़ में गई। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारों का फैलाव हुआ, साथ ही भारत पर दमन भी बढ़ा। रेशी राज्यों को मिलाने के लिए ‘लैप्सकी नीति’ कुटिल सिद्ध हुई। 1854 ई० में झाँसी इसी नीत्ति के तहत अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। इसके तीन वर्षों के बाद 1857 ई० में भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम स्वाधीनता युद्ध छेड़ा। 1885 ई० में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना हुई। कांग्रेस की स्थापना के बाद भारतीयों की राजनीतिक चेतना विकसित होने लगी। 1909 ई० में हिन्दू मुस्लिम एकता को धक्का लगा। प्रथम विश्वयुद्ध 1914 से 1919 तक चलने के कारण भारत को काफी क्षति हुई। 1920 ई० में कांग्रेस की बागडोर गाँधी जी के हाथ में आयी। 1920 से 1930 ई० तक अंग्रेजों का दमन अपनी चरम सीमा पर था। 1942 ई० में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन चला। 15 अगस्त, 1947 ई० की भारत को पूर्ण आजादी मिली। नवीन चेतना का विकास हुआ। डॉ० शिवकुमार शर्मा ने लिखा है- “तत्पश्चात् नव चेतना, नव निर्माण में परिणत हो गयी। आज के स्वतंत्र भारत राष्ट्र की राजनीतिक चेतना, राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता के रूप में विकसित हो रही है। हिन्दी साहित्य ने इस नवजागरण और नव राष्ट्रीय चेतना का केवल अनुसरण ही नहीं किया, वरन् उसे प्रेरित भी किया और उसका मार्ग भी प्रशस्त किया।
2. सामाजिक एवं धार्मिक चेतना आधुनिक काल में भारत में जो धार्मिक एवं सामाजिक चेतना आई इसका कारण आंग्ल-भारतीय सम्पर्क ही है। इसके प्रभाव से हिन्दूधर्म का कट्टरपन’ धीरे-धीरे दूर होने लगा। इस चेतना के कारण कई सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं की स्थापना हुई। ब्रह्म-समाज, आर्य समाज, महाराष्ट्र समाज, थियोसोफी, सनातन धर्म स्वामी राम कृष्ण परमहंस, विवेकानन्द और अरविंद इसी चेतना की उपजं हैं। स्वामी दयानंद ने ‘आर्य समाज’ की स्थापना करके सामाजिक स्तर पर एक बड़ी क्रांति उपस्थित की।
प्रश्न-02. पठित कविता के आधार पर सिद्ध कीजिए कि महादेवी करूण-वेदना की गायिका है।
उत्तर- महादेवी वर्मा छायावाद की अकेली रहस्यवादी कवयित्री हैं जिनके काव्य में अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रणयानुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है जिनमें वेदना और करुणा को अत्यधिक महत्व प्राप्त है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “छायावादी कहे जाने वाले कवियों में महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं। उस अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही इनके हृदय का भाव केन्द्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएँ छूट-छूटकर झलक मारती हैं। वेदना के साथ ये रहना चाहती है।”
महादेवी वर्मा का जन्म सन् 1907 ई० में उत्तर प्रदेश राज्यान्तर्गत फर्रुखाबाद के एक सुसम्पन्न एवं प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक हुआ करते थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। उनका विवाहं बारह वर्ष की अवस्था में डॉ० रामस्वरूप वर्मा के साथ हुआ था। वे प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्य के पद पर आजीवन रही जहाँ से उन्होंने पूर्व में बी० ए० एवं संस्कृत में एम० ए० भी किया था। उनका वैवाहिक जीवन नहीं निभ पाया था।
महादेवी की कविताओं में वेदना ही प्रधान दृष्टिगोचर होती हैं जो उनके लिए काव्य-प्रेरणा रही है और उनकी कविताओं का मूल स्वर भी। यह वेदना कवयित्री को अत्यंत प्रिय रही है यही कारण है कि वह विरह को सर्वस्व मानकर जैसे मिलन का तिरस्कार करती हुई कहती है कि,
“मिलन का मत नाम ले, विरह मैं मैं चिर हूँ।”
संभव है महादेवी की वेदना के पीछे कारण उनपर पड़ने वाला बौद्ध-दर्शन का प्रभाव रहा हो जैसा कि वे कहती भी हैं-“इसके अतिरिक्त बचपन से ही भगवान बुद्ध के प्रति एक भक्तिमय अनुराग होने के कारण उनके संसार को दुखात्मक समझनेवाली दर्शन से मेरा असमय ही परिचय हो गया था।”
महादेवी वर्मा ने अनेक कृतियाँ की रचना की है जिनमें नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत और दीपशिखा हैं। ‘नीहार’ कवयित्री की अनुभूति प्रधान प्रारंभिक रचना है जिसमें कवयित्री के भावों को सहज अभिव्यक्ति मिली है। भाव और कला पक्ष का सुन्दर समन्वय सांध्यगीत में होता दृष्टिगोचर होता है। दीपशिखा में साध्य अव्यक्त की साधना है।